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15 अगस्त से भी ज्यादा महत्व का दिन है 9 अगस्त

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9 अगस्त 1967 को अगस्त क्रांति और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की पच्चीसवीं वर्ष गाँठ के मौके पर वरिष्ठ समाजवादी नेता डाॅ. जी जी पारिख ने डा. राममनोहर लोहिया को मुंबई आमंत्रित किया था। डाॅ. लोहिया मुंबई तो ना जा सके लेकिन उन्होंने डा. पारिख को एक पत्र लिखकर और बाद में एक लेख लिखकर 9 अगस्त और अगस्त क्रांति का महत्व समझाया था। पेश है डा. लोहिया का वह खत और लेख।

डाॅ. राम मनोहर लोहिया

नौ अगस्त का दिन जनता की महान घटना थी और हमेषा बनी रहेगी। पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी। लेकिन अभी तक हम 15 अगस्त को धूमधाम से मनाते हैं क्योंकि उस दिन ब्रिटिश वाइसराय लाड माउंटबैटन ने भारत के प्रधानमंत्री के साथ हाथ मिलाया था और क्षतिग्रस्त आज़ादी देश को दी थी। नौ अगस्त जनता की इस इच्छा की अभिव्यक्ति थी- हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे। हमारे लंबे इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों ने आजादी की अपनी इच्छा जाहिर की। कुछ जगहों में इसे बड़े जोरदार ढंग से प्रकट किया गया। एक जिला, बलिया, कुछ समय के लिए स्वतंत्र भी हो गया। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर को गिरफ्तार किया गया। सैकड़ों पुलिस हल्के स्वतंत्र हुए। लेकिन यह इच्छा थोड़े समय तक ही रही लेकिन मजबूत रही।उसमें दीर्घकालिक तीव्रता नहीं थी। जिस दिन हमारा देश दृढ़ इच्छा प्राप्त कर लेगा उस दिन हम विश्व का सामना कर सकेंगे। बहरहाल, यह 9 अगस्त, 1942 की पच्चीसवीं वर्षगांठ है। इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस प्रकार मनाई जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि 26 जनवरी भी पृष्ठभूमि में चला जाए या उसकी समानता में आए। 26 जनवरी और 9 अगस्तक एक ही श्रेणी की घटनाएं हैं। एक ने आजादी की इच्छा की अभिव्यक्ति थी और दूसरी ने आजादी के लिए लड़ने का संकल्प दिखाया।

सभी राष्ट्रीय दिवसों में दो सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। एक है 14 जुलाई का फ्रांस का दिन। उस दिन कोई घोषणा नहीं हुई, कोई हाथ-मिलाई नहीं हुई और कोई समारोह नहीं हुआ। उस दिन फ्रांस की राजधानी पेरिस के लोग लाखों की संख्या में बाहर निकले और उन्होंने बस्टिले की जेल को तोड़कर उन सारे कैदियों को छुड़ाया जिन्हें फ्रांस के बादशाह ने बंद कर रखा था। दूसरा दिन 4 जुलाई का है। उस दिन अमरीकी जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आजादी की लड़ाई में, अपनी आजादी की घोषणा की थी। ये दोनों दिन जनता के दिन हैं; 15 अगस्त की तरह राज्य के दिन नहीं।

कुछ लोग कह सकते हैं कि यह भेद एक विद्वान की अकादमिक रुचि का ही विषय हो सकता है। किंतु यह वृक्ष की जड़ों की तरफ इशारा  करता है। इन पंक्तियों के लेखक ने तीन या चार महीनों में महसूस किया है कि जिस पेड़ को महात्मा गांधी ने लगाया था, लेकिन वे उसे पालपोस कर बड़ा नहीं कर पाए, वह निर्वीर्य हो गया है और सड़ने लगा है। उसने यह महात्मा गांधी को एक पत्र में लिखा भी है। लेकिन उन्होंने इस सड़न की गहराई को नहीं समझा था। इस तरह की लापरवाही अक्षम्य है। राजनीति में काम करने वालों को पूरी तरह चैकन्ना रहना चाहिए।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद नौकरशाही और पुलिस ज्यों की त्यों रही। बाकी चीजें भी पहले की तरह ही चलती रहीं और कुछ लोगों ने इसे महसूस भी किया। किंतु नौकरशाही के एक पक्ष की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए था। ब्रिटिश राज के समय नौकरशाही ने यथास्थिति को बनाए रखा और उसने जनता को दबाने तथा अफसरों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने का काम किया। स्वाधीनता के बाद इस स्थिति में सुधार नहीं हुआ। यह और खराब हो गई। नौकरशाही में कुछ तो अच्छे लोग रहे होंगे। किंतु उनकी उपेक्षा हुई। स्वतंत्र भारत में जिस नौकरशाह को उच्चमत पद मिला, वह वाशिंगटन में ब्रिटिश एजेंट था और उसने 1942 में महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी की जेल में हुई मृत्यु के औचित्य में सभी प्रकार के तर्क प्रस्तुत किए थे। यह आदमी था सर गिरिजा शंकर वाजपेयी। शायद वाजपेयी और नेहरू में कोई आध्यात्मिक संबंध रहा होगा। अन्यथा, इस तरह की बात कैसे होती। यह अकेली घटना नहीं है। यह एक प्रक्रिया है जो अब भी चल रही है। सच्चे, ईमानदार और देशभक्त नौकरशाहों को लगातार दबाया गया, उनकी अच्छी भावनाओ को कुचला गया और जो दुष्ट, क्रूर हैं, जो देष को कमजोर बनाए रख रहे हैं और सरकार को जनता-उन्मुख बनाने के बजाय अफसर-उन्मुख बना रहे हैं, उन्हें तरक्की और लाभ मिले।

व्यावहारिक कौशल का अर्थ इस देष में जल्दी समझा जाना चाहिए। कौन ज्यादा व्यावहारिक है, मानसिंह या प्रताप? जीते जी मानसिंह की प्रशंसा होगी और प्रताप को जिद्दी कहा जाएगा। मृत्यु के बाद प्रताप की पूजा होती है जबकि मानसिंह की निंदा की जाती है। हमारा मानना है कि प्रताप को भी अधिक सावधान रहना चाहिए और जब मानसिंह उसके पास आए तो उसके साथ सम्मानीय अतिथि का व्यवहार किया जाए। लेकिन इसमें कोई षक नहीं कि जब तक देश प्रताप को उसके जीवनकाल में सम्मान नहीं देगा, तब तक वह राष्ट्र को महान बनाने की दृढ़ा इच्छा-षक्ति और संकल्प की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा। 

सौजन्य: कुर्बान अली

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