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*’हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति : एक विहंगम दृष्टि*

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     ~ कुमार चैतन्य 

हिन्दू जाति के उत्थान  पर कुछ लिखने के पूर्व इस विषय पर एक विवेचनापूर्ण प्रकाश डालना परमावश्यक जान पड़ता है कि भारत के किस जन-समुदाय की संज्ञा हिन्दू है तथा हिन्दू शब्द का निकास किस भाषा से हुआ है; कारण कि ये दोनों बातें, इस शब्द के किसी भी प्राचीन संस्कृत व असंस्कृत (जैसे पाली, प्राकृत आदि) भारतीय ग्रन्थ में नहीं मिलने के कारण विवादग्रस्त है। कतिपय विद्वानों का मत है कि हिन्द शब्द जो विदेशियों और विशेषतः पारसवालों के द्वारा इस देश का नाम रखा गया है, सिन्धु शब्द से, जो पंजाब की एक नदी का नाम है, निकला है; फिर इसी हिन्द शब्द से हिन्दू और हिन्दी इन दोनों शब्दों का निकास हुआा है।

     हिन्दू शब्द से पारसवालों का अभिप्राय सिन्धु नदी के पारवत्तीं देश से, हिन्दू शब्द से हिन्द के निवासियों से और हिन्दी शब्द से हिन्द वासियों की भाषा से वा हिन्द-सम्बन्धी से था । पारस निवासी, जहाँ हम ‘स’ चोलते हैं, वहाँ प्रायः ‘ह’ का उच्चारण करते हैं; जैसे-सप्त (इफ़्त ), असुर (अहुर), सरस्वती (हरइवती), सप्त सिन्धु ( इफ़्त हिन्दू) इत्यादि।

     इस तर्क शैली का अनुसरण करते हुए इम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सिन्धु से हिन्द हुआ और हिन्द से हिन्दू और हिन्दी ये दो शब्द उत्पन्न हुए। और चूँकि अपने प्राचीन ग्रन्थों में, देश में एकता विरोधी वर्णाश्रम धर्म का प्रचार रहने के कारण अपना कोई जातीय नाम (national name) न था, हम भारतवासियों ने अपनी जाति के लिए हिन्दू तथा अपनी भाषा के लिए, हिन्दी नाम अपना लिया।

दूसरा मत-यह तो हुआ हिन्दू शब्द की उत्पत्ति-विषयक एक मत । दूसरा मत यह है कि कुछ पारसवालों ने हमें सिन्धु से हिन्दू नहीं बनाया; बल्कि हमीं अपने को शुद्ध संस्कृत में सिन्धु कहते-कहते प्राकृत भाषा में हिन्दू कहने लगे; क्योंकि संस्कृत का ‘स’ प्राकृत में ‘ह’ हो जाता है। पर यह विल्कुल गलत है।

      संस्कृत का ‘स’ प्राकृत में ‘इ’ कमी भो नहीं होता। वह ज्यों का त्यों बना रहता है; जैसे- सपः (सप्पो), सप्तम् (सत्तं), सूत्रेण (सूत्तेण), सत्यम् (सच्चे ), समीपे (समीवे), सुखम् (सुई) इत्यादि । वररुचि, हेमचन्द्र, चण्डादि प्राकृत भाषा के व्याकरण-कार है। उनके अनुसार केवल ‘ल, ष, य, घ’ और ‘म’ के ही स्थान में ‘ह’ होता है; ‘स’ अथवा किसी अन्य अक्षर के स्थान में नहीं। सूत्र यह है- ‘ख घथ घां हः’, यथा-मुखम् (मुँह), मेखला (मेहला), मेषः (मेहो), जघनः (जहणो), गाथा (गाड़ा), शपथः (सवही), राधा (राहा), वधिरः (बहिरो), समा (संहा), रासमः (रासहो) इत्यादि।

     अतः यह कहना कि संस्कृत का सिन्धु शब्द बिगड़ कर प्राकृत में हिन्दू चन गया, प्राकृत भाषा के व्याकरण से अपना पूरा कोरापन प्रकट करता है। यथार्थ बात तो यह है कि जिस प्रकार प्राचीन यूनानी ( Greeks ) सिन्धु नदी को Indus (इंडस्), सिन्धु के पारवतीं देश को India (इंडिया) और वहाँ के रहने बालो को Indians (इंडियन्स) कहते थे और हमने भी इन नामों को उनके संसर्ग में आकर अपना लिया था और आज भी इम यूरोपियनों के साथ बातचीत करते हुए अपना परिचय Indian कह कर ही देते हैं; ठीक उसी प्रकार हमने पारसबालों के हिन्द, हिन्दू और हिन्दी शब्दों को उनके साथ प्राचीन काल में अपनी घनिष्ठता के कारण अपना लिया था और तब से आज तक अपने सम्बन्ध में उनका प्रयोग बराबर करते चले आए।

      हिन्दू शब्द को अपनाने का एक और भी कारण मालूम पड़ता है कि भारतवर्ष में आय्यं, अनाय्यं, द्रविड़ आदि कई प्रकार की जातियाँ रहती थीं और उनको एकता के सूत्र में बाँधनेवाला हमारे साहित्य में कोई समान (common) जातीय नाम न था ।

तीसरा मत-कुछ लोगों का तीसरा मत भी है कि फ़ारसी (न कि पारसी) भाषा में हिन्दू शब्द का अर्थ काला, चोर, ठग, डाकू, गुलाम आदि है और मुसलमानों ने घृणा वश हमारा यह नाम रख दिया और अपने पक्ष की पुष्टि में इस मत के माननेवाले ग़यासुल्लोग़ात का निम्नलिखित उद्धरण पेश करते हैं-

हिन्दू दर महाविरे फारसियां बमानी दुदर व रहजान मी आयद।

      अर्थ : फ़ारसी भाषा के मुद्दाविरे में हिन्दू शब्द चोर और डाकू के अर्थ में आता है। आज से कोई ५५० वर्ष हुए कि शांफ़त शोराजी नाम के एक प्रसिद्ध कवि फ़ारस में हो गए हैं। उन्होंने अपने निम्नोद्भुत शेर में हिन्दू शब्द को काला अर्थ में प्रयुक किया है-

   अगर आँ तुर्क शीराजी बदस्त आरद दिले मारा।

 बखाले हिन्दुवश बखशम समरकन्दो बुखारा॥

अर्थ : अगर शीराज़ का रहनेवाला मेरा माशूक मेरे दिल को अपने हाथों में कर ले तो मैं उसके काले तिल पर समरकन्द और बुखारा के बादशाहत भी न्यौछावर कर दूँ।

    उच्चारण-सादृश्य के कारण एक से दीखनेवाले शब्दों का भिन्न- मिन भाषाओं में भिन्न-भिन्न अर्थ रखना कोई असम्भव तथा आश्चर्यजनक वस्तु नहीं है पर इससे यह कभी न मान लेना चाहिये कि इन एक से दीखने वाले शब्दों में वस्तुतः कोई मौलिक एकता है।

    उदाहरण के लिए निम्नलिखित शब्दों पर दृष्टिपात कीजिए :

    देव (संस्कृत) = देवता; देव (फ़ारसी) – दानव, दैत्य आदि । ये दोनों अर्थ पूर्णतः एक दूसरे के उल्टे हैं। दस्त ( फ़ारसी ) = हाथ; दस्त ( हिन्दुस्तानी ) = मल, पाखाना। मार (संस्कृत) = कामदेव; मार ( फ़ारसी ) = साँप । राम (संस्कृत) = हिन्दुओं के भगवान् रामचन्द्रः राम (फ़ारसी) = ताबेदार गुलाम । कुली (संस्कृत) उत्तम कुल का; कुली (तुर्की) = मज़दूर। साम (संस्कृत) = नीति विशेष, एक वेद का नाम; साम (अरबी) – विषैला इत्यादि।

       खोजने पर और भी कितने ऐसे शब्द मिलेंगे जो भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न अर्थ रखते है।

    इससे स्पष्ट है कि फ़ारसी भाषा के हिन्दू शब्द के साथ, जिसके अर्थ काला, चोर डाकू आदि हैं, हमारे जातीय नाम हिन्दू शब्द का कुछ भी मौलिक सम्वन्ध नहीं है। दोनों में उच्चारण-सादृश्य चाहे भले ही हो; पर हैं वे एक दूसरे से पूर्णतः स्वतन्त्र तथा मूलतः भिन्न।

     यह दिखा कर कि फ़ारसी भाषा के हिन्दू शब्द के साथ हमारे जातीय नाम हिन्दू शब्द को कुछ भी छुआ-छूत नहीं है, अब यह दिखाना है कि हमारा यह जातीय नाम मुसलमानों का रखा हुआ कभी भी नहीं है। इस्लाम धर्म के प्रवर्त्तक इज़रत मुहम्मद साहब ने ईसा की सातवीं शताब्दी में अपने इस नवीन धम्म का प्रचार किया था, जिससे सिद्ध है कि मुसल्मानों का प्रादुर्भाव-काल आज इस बीसवीं शताब्दी में केवल १३०० वषों के ही निकट है।

    इन १३०० वर्षों के पहले मुसल्मानो का भूमंडल में कहीं भी अस्तित्व न था।

      अतः यदि हमारा हिन्दू नाम मुसल्मानों का कृष्णा-वरा दिया हुआ होता और इम उनके अत्याचारों के कारण इसे ग्रहण किए होते तो उनके प्रादुर्भाव से हज़ारों वर्ष पहले की लिखी हुई पारसियों की शातीर नामक धर्म-पुस्तक में इमारे देश को हिन्द और हमें हिन्दी कह कर कैसे पुकारा गया होता? उक्त शातीर नामक ग्रन्थ में लिखा है :

  अकनू चिरहमने व्यास नाम अज्ञ हिन्द आमद वस दाना कि अकल चुना नस्त।

   अर्थ : व्यास नामक एक ब्राह्मण हिन्द (भारत) से श्राया, जिसके बराबर कोई दूसरा अक्लमन्द न था। अवश्य ही ये व्यास महाभारत तथा अट्ठारह पुराणों के रचयिता महर्षि कृष्णदै पायन वेदव्यास ही होंगे; क्योंकि तभी तो उनकी बुद्धिमत्ता को अद्वितीय कहा गया है।

   इसी पुस्तक शातीर में आगे चल कर हिन्दी शब्द का प्रयोग हिन्द वाले के अर्थ में हुआ है :

चूं व्यास हिन्दी बलख आमद, गश्ताशप जरदश्त राब स्वान्द।

अर्थ : जब हिन्दवाला ब्यास बलख में आया तो ईरान के बादशाह गश्तासप ने जरदश्त को बुलाया। यह ज़रदश्त वा ज़रखुश्त पारसी धर्मों का प्रवर्त्तक था। संभव है कि गश्तासप ने इसे व्यास के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये बुलाया हो।

 शातीर में आगे लिखा है :

  मन मरदे अम हिन्द निजाद” अर्थात् में हिन्द में पैदा हुआ एक पुरुष हूँ। पुनश्च – “व हिन्द बाज गश्त” अर्थात् फिर वह हिन्द को लौट गया।

    शातीर के उक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि हिन्द, हिन्दी आदि शब्द मुसल्मानों की उत्पत्ति से हज़ारों वर्ष पूर्व ही इस देश तथा इसके निवासियों के लिए पारस में प्रचलित थे; अतः ये शब्द मुसलमानों के गढ़े हुए नहीं है।

हिन्दू शब्द हिन्द (भारत) के मुसल्मानों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। मौलाना रूम अपनी मसनवी में लिखते हैं- 

  चार हिन्दू दर इके मसजिद शुदन्द, बहिरे ता अत एके ओ मसजिद शुदन्द। 

  अर्थ : चार हिन्दू एक मसजिद में गए और इतायत के लिए सिजदा करने लगे। यहाँ पर यह शंका होती है कि हिन्दू मसजिद में क्यों गए ? इस पर मसनवी के टीका-कार मौलवी बहरुल्ला साहब ने स्पष्ट लिखा है कि यहाँ हिन्दू से मतलब हिन्द के मुसल्मानों से है।

     एक और भी कारण है जिससे हम इस मत को कदापि नहीं मान सकते कि हमारा यह हिन्दू नाम मुसल्मानों ने रखा है और हमने उनके अत्याचारों के कारण इसे मान लिया है। भारत में मुस्लिम- राज्य की नीव डालनेवाला शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी था।

      पर अभी मुसल्मानों के अत्याचार तो दूर थे; उनके पैर भी अभी तक भारत- भूमि पर नहीं जमने पाए थे; स्वयं गोरी भी पृथ्वीराज की मार से कराह रहा था, तभी पृथ्वीराज के दरवार का सुप्रसिद्ध कवि चंदबरदाई तथा उसके पिता वेनने अपनी-अपनी कविताओं में इस जाति को हिन्दु और इस देश को हिन्दव-अस्थान (हिन्दुस्तान ) कह कर पुकारा है.

    वेनने पृथ्वीराज के पिता को, जो अजमेर का राजा था, सम्बोधन करके लिखा है-

अटल ठाट महिपाट, अटल तारागढ़ थानं।

 अटल नम्र अजमेर, अटल हिन्दव अस्थानं ||

    चन्दवरदाई ने भी अपने काव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दवान और हिन्दू शब्दों का बारबार प्रयोग किया है-

 (क) किए सलाम तिनवार जाहु अपने सूधानइ। 

मति हिन्दू पर साहि सब्जि श्रावौ स्वस्थानह।।

ख) आज माग चहुआन चमू, आज भाग हिन्द वान। 

इन जीवित दिल्लीश्वर, गंज न सक्कै आन॥

 ( ग ) निर्लज्ज म्लेच्छ लाजै नहीं, सम हिन्दू लजवान।

     अतः यह कब मानने की बात है अपने देश तथा अपनी जाति की आन पर मर मिटनेवाली राजपूत जैसी वीर और शानदार जाति के श्रभित कविगण तथा इस विशाल देश की विपुल जनता ने उन मुसल्मानों के घृणा-वश दिए हुए हिन्दू नाम को, जिनके साथ हिन्दुओं की कट्टर शत्रुता चल रही थी और जिनका देश में अभी कुछ भी प्रमाव न था, विना चीं-चपड़ किए ही कबूल कर लिया।

    तत्कालीन महात्मा समर्थदास जी ने भी एक कविता में अपनी भविष्यवाणी कहते हुए हिन्दतां और हिन्दुत्थान शब्दों का प्रयोग किया है :

(क) खप्नी ने देखिलें रात्रीं, तें में तौ सेंचि होत से।

 हिन्दतां फिरता गेलो, आनन्द बन भूवनीं।।

(ख) वडाले सर्व ही पापी, हिन्दुस्थान बला वलें। 

श्रभक्तां च क्षयी झाला, आनन्द वन भूवनीं।।

    शिवाजी मुसल्मानों के और विशेष कर मुगल सम्राट् औरंगज़ेब के जानी दुश्मन थे। पर उनके चाभित भूषण कवि ने भी अपने स्वामी का यशोगान करते हुए अपनी कविता में हिन्दुवानी, हिन्दुवान आदि शब्दों का व्यवहार किया है :

   राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान के तिलक राख्यो, स्मृति पुराण राख्यो वेद विधि सुनी मैं।

      राखी रजपूती राजधानी राखी राजनकी, घरा में धरम राख्यो राख्यो भूषण सुकवि जीति इद्द देस देस कीरति बखानि गुण गुनी मैं।

 मरहठ्ठन की, तब सुनी में।

 साहि के सपूत सिवराज समसेर तेरी, दिल्ली दल दाबिके दिवाल राखी दुनी में।

  सुजानसिंह, जो बुन्देलखंड का एक शक्तिशाली राजा हो गया है, अपने मित्र छत्रसाल से कहता है-

  पातसाह लागे करन, हिन्दु धर्म क्रौ नासु।

 सुधिकरि चंपतराय की, लई बुन्देला साँस।।

    अतः इन सब सुदृढ़ प्रमाणों से क्या यह सिद्ध नहीं होता कि हमारा यह हिन्दू नाम मुसल्मानों का रखा हुआ नहीं है! बल्कि उनकी उत्पत्ति से हज़ारों वर्ष पूर्व से ही यह व्यवहत होता चला श्रा रहा है। यदि यह नाम मुसलमानों का दिया हुआ रद्दता, तो जिस समय उनके साथ हमारा कट्टर विरोध चल रहा था और उनका हमारे देश में न कुछ अभी अत्याचार था और न कुछ प्रभाव ही था, उस समय हम अपना परिचय चोर, डाकू आदि जैसे घृणित अर्थ रखने बाले हिन्दू शब्द से देकर अपने दुश्मनों की बात शिरोधार्य कभी नहीं करते।

*हिन्दू’ शब्द की संस्कृत व्युत्पत्ति :*

    उपरोक्त तो हुए सिन्धु शब्द के पारसी ( न कि फ़ारसी) अपभ्रंश हिन्दू शब्द के विदेशी होने के प्रमाण।

     कितने ऐसे भी स्वजात्याभिमानी पर दुराग्रही हिन्दू विद्वान् है जिन्हें इस शब्द का विदेशी होना असह्य है। वे संस्कृत ब्याकरण के सूत्रों की खाल खींच कर इसे शुद्ध संस्कृत शब्द का बाना पहनाने का प्रयत्न करते हैं और अपने मत की पुष्टि में रामकोष, शब्द कल्पद्रुम, अद्भुत कोष, मेदिनी कोष श्रादि कोषग्रन्थों तथा मेरुतंत्र, पारिजात इरण नाटक, कालिका पुराण, शाङ्गधरपद्धति आदि अन्य ग्रन्थों की दुहाई देते हैं।

    अब इन विद्वानों की की हुई हिन्दू शब्द की विविध व्युत्पत्तियों तथा अथों का अवलोकन कीजिये :

    (१) हीनं (वर्णाश्रम धम्र्म रहितं) दूषयतीति हिन्दुः पृपोदरादित्वात् साधुः। जाति-विशेषः। जो वर्णाभमधम्मंहीन मनुष्यों को दोषयुक्त बतावे वह हिन्दू है।

    यह शब्द पृषोदरादिगण में सिद्ध होता है और जाति-विशेष का नाम है। पृषोदरादिगण आकृतिगण माना गया है।

(२) हिंसां दबयतीति हिन्दुः अर्थात् जो हिंसा को दूर करें यह हिन्दू है।

 (३) हिंसन्ति धर्मानिति हिंसाः तान् दुनोतिद्यतीति हिन्दुः संयोगन्तलोपे सिद्धिः । अर्थ-जो धम्मों की हिसा करें वे हिंस है। और जो इन (हिंसों) को दुःख दे वा खंड खंड कर दे यह हिन्दू है।

 (४) दिडि (गत्यनादरयोः)। इस धातु से औणदिक ऊ प्रत्य होकर पृषोदरादित्वात् डकार का दकार और “इदितोनुम्” इस सूत्र से नुमागम होने पर भी हिन्दू शब्द सिद्ध होता है। 

(५) हिनस्ति दुष्टानिति हिन्दुः अर्थात् जो दुष्टों का हनन करे यह हिन्दू है। 

नोट : संस्कृत के सूत्रों द्वारा एक वचन में हस्व उकारान्त हिन्दुः और दीर्घ ऊकारान्त हिन्दूः ये दोनों शब्द सिद्ध होते हैं। 

   अष्टाध्यायी जैसे कामचेनु के बल पर हम अंगरेज़ी, फ़ारसी, अरबी आदि के शब्दों को भी शुद्ध संस्कृत रूप देकर आकाश और पाताल का कुलावा एक कर सकते हैं। कहावत भी प्रसिद्ध है- उणादि से प्रत्यय आये डालिक, डीजा, डोलना; मा धातु से सिद्ध किया मालिक, मीथा मोलना। पर यह केवल बातो का बनाना है।

      इससे केवल हमारी बुद्धि की कुशाग्रता तथा हमारे संस्कृत व्याकरण की कामधेनुता सिद्ध होती है। इसके सिवा और कुछ नहीं! जिन-जिन संस्कृत ग्रंथों में हिन्दू शब्द आया हो उन्हें अनार्ष तथा आधुनिक समझना चाहिये।

    यदि यह शब्द संस्कृत रहता तो बेदों में न सही, पर कम से कम स्मृतियों, पुराणों, एवं रामायण तथा महाभारतादि आर्ष ग्रन्थों तथा प्राचीन कोषों में अवश्य पाया जाता। और तो और हमारा प्राचीन कोष-ग्रन्थ अमर कोष भी इस हिन्दू शब्द से पूर्णतः अनभिज्ञ है।

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