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समाज में नारी की दुर्दशा का संक्षित इतिहास

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कमल झँवर

यदि हम अपने समाज की सभ्यता के इतिहास पर गहराई से नजर डालें तो हम उसे मुख्यतः ४ भागों में बाँट सकते हैंपहले भाग पाषाण और कृषि काल जिसमें नर और नारी में कोई भेद नहीं था, सिर्फ प्रकृति के अनुरूप कार्यों का बंटवारा होता था. नारी भी शिकार करती थी और साथ ही वंश वर्धन भी करती थी. पुरुष का कार्य एक चौकीदार की तरह नारी और परिवार का रक्षण व भरण पोषण करना था. कृषि काल में भी कमोबेश यही स्थिति रही.

उसके बाद आया वैदिक युग जिसमें ऋषि-मुनियों नें सम्मिश्रित आध्यात्मिक ज्ञान और विज्ञान का अर्जन किया. यह युग हमारी सभ्यता का स्वर्णिम काल था. इस काल में भी नारी की स्थिति स्वतंत्र और परस्पर सहयोगी की रही. गुरुकुल का मैनेजमेंट और शिष्यों का लालन-पालन की जिम्मेदारी गुरुमाता की ही थी. उस समय भी नर और नारी एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते थे, कोई छोटा-बड़ा नहीं. उस समय ना जातिवाद था और ना ही लिंगभेद. बस विद्वान, ज्ञानी को ब्राम्हण कहा जाता था जो समाज को शिक्षित करता था, राजा को न्याय-संगत एडवाइस देता था और उसकी उदरपूर्ति का साधन राजा और प्रजा मिलकर करते थी.

असली कहानी बदली पौराणिक युग में जब कतिपय स्वार्थी तत्वों नें अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए जातिवाद शुरू किया और पुरुषवाद समाज की स्थापना के लिए स्वहितार्थ पुराण-उपनिषद-मनुस्मृति आदि लिखकर और वेदों में भी घालमेल कर स्वयं की श्रेष्ठता समाज पर थोपी.

इन पुरुषवादी लोगों नें ना सिर्फ अन्य जातियों की बल्कि स्वयं अपनी जाति की औरतों को भी अपनी जायदाद-मिल्कियत-प्रोपर्टी बनाने के लिए तमाम कवायदें समाज के दिमाग में इस तरह बैठा दी कि स्वयं नारी का आत्मसम्मान चूर-चूर हो गया. नारी को शिक्षा से वंचित कर कमसिन उम्र में मांबाप की मर्जी से शादी कर ससुराल में सिर्फ भोग्या-आया और नौकरानी बनाकर सिर्फ वंशवृद्धि का साधन मात्र समझा गया. नारी की ना कोई इज्जत, ना कोई पसंद, ना कोई अपनी सोच और ना ही कोई आत्मसम्मान. उसे सिर्फ जानवर की तरह उसे गृहस्थी में जोता गया. बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा प्रथा घूंघट प्रथा, सभी उसी काल की देन है

चौथा काल अब आया है, आधुनिक काल जिसमें समाज नें अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखा कर शिक्षित काबिल बना कर एक स्वस्थ समाज की स्थापना की. उनकी देखादेखी अन्य जातियां भी नारी शिक्षा को महत्व देने लगी और आज नारी अंगडाई लेकर उठ खड़ी हुई है, अपने आत्मसमान को पुनः प्राप्त करने को उद्दत है

लेकिन समाज का एक  पुरुषों का वर्ग जो स्वयं अशिक्षित है, वे आज भी नारी को अपने चंगुल से मुक्त नहीं होने दे रहे. इसलिए धर्म के नाम पर, रीति-रिवाज-परंपरा के नाम पर और खास कर साज-श्रृंगार के जाल में बहलाकर, फंसाकर, ठगकर, आज भी तमाम अंकुश नारी पर लगाए बैठे हैं और नारी आज भी उनके जाल को समझ नहीं पा रही

बहनों, मैनें वस्तुस्थिति से आपको परिचित कराया है, आगे का निर्णय आपको स्वयं को ही करना है.

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