अग्नि आलोक

*गांधी और सावरकर की एक मुख्तसर मुलाकात*

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नितिन ठाकुर

आज भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों की उस मुख़्तसर सी मुलाकात पर बात करने का सही मौका है जो 118 साल पहले हुई थी। मुलाकात की जगह उसी मुल्क की राजधानी थी जिसके साम्राज्य में सूरज ना छिपने की कहावत चर्चा पाई थी। 

एक था 37 साल का वो वकील जिसे लोग एमके गांधी के नाम से जानते थे। उसने दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के बीच नेतृत्व जमा लिया था। सरकार से बातें मनवाने का वो तरीका भी खोज लिया था जिसे पूरा भारत महज़ एक दशक बाद अपनाने वाला था।

दूसरा था 23 साल का नौजवान जिसका नाम वीडी सावरकर था। तीन महीने पहले उसने गांधी की ही तरह वकालत के लिए लंदन में दाखिला लिया था। गांधी के शांतिपूर्ण और दिन के उजाले में संपन्न होने वाले अहिंसक आंदोलनों के ठीक उलट वो गुप्त संगठन और हथियारों के बल पर दमनकारी सत्ता को उखाड़ फेंकने का सपना देखता था। यही वजह थी कि जहां उसके गुरू का नाम बालगंगाधर तिलक था वहीं भविष्य में गांधी ने राजनीतिक गुरू के तौर पर गोपालकृष्ण गोखले का शिष्यत्व ग्रहण किया था जो तिलक के धुर विरोधी थे।

तारीख थी- 20 अक्टूबर 1906. जगह- लंदन का वो इंडिया हाउस जो आज खामोशी की चादर ताने चुपचाप खड़ा है मगर बीसवीं सदी के शुरूआती दशक में उसकी छत के नीचे एक से एक क्रांतिकारियों ने पनाह पाई। इंडिया हाउस की दास्तान खुद में बेहद रोमांचकारी है लेकिन आज बात उस छोटी सी मुलाकात की जिसे जानकर आप भी समझ लेंगे कि वर्तमान भारत में टकरा रही दो विचारधाराओं के प्रेरणापुरुषों की पहली भेंट दरअसल इस संघर्ष की पूर्वपीठिका है।

गांधी और सावरकर के एनकाउंटर का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता मगर मुलाकात के चश्मदीद झांसी के पंडित परमानंद ने जो कुछ हरेंद्र श्रीवास्तव को बताया वही जानकर हमें संतोष करना पड़ता है। उस शाम सावरकर अपने लिए खाना बना रहे थे। गांधी कोई राजनीतिक बात करने में मशगूल थे कि बीच में ही सावरकर ने उन्हें साथ में खाने का न्यौता दिया। सावरकर चितपावन ब्राह्मण थे और अपने लिए झींगा बना रहे थे। गांधी ठहरे शुद्ध शाकाहारी गुजराती। वो न्यौते को लेकर झिझके तो सावरकर ने कहा- अगर आप हमारे साथ खा नहीं सकते, तो हम साथ मिलकर लड़ेंगे कैसे.. और फिर ये तो उबली हुई मछली है जबकि हमें ऐसे लोग चाहिए जो ब्रिटिश को कच्चा चबा जाएं। 

दुनिया जानती है कि सावरकर अंग्रेज़ों का कच्चा नहीं चबा सके और ना ही उनके अनुयायी इस पचड़े में फंसे। कालांतर में वो दस साल से अधिक की जेल काटने के बाद आज़ाद हुए तो उन्होंने हिंदूवादी राजनीति को आगे बढ़ाया जिसके विरोध का केंद्र अंग्रेज़ नहीं बल्कि मुसलमान थे। उधर गांधी ने भी अंग्रेज़ों को कच्चा नहीं चबाया लेकिन तीन दशकों तक क्रमश: अपने आंदोलनों से हिलाकर रख दिया। 

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तीन साल बाद 1 जुलाई 1909 को जब लंदन में मदनलाल ढींगरा ने तत्कालीन भारत-सचिव (जो भारत के वायसराय और लंदन की सरकार के बीच अहम भूमिका निभाता था) के सहयोगी विलियम हट कर्ज़न वाइली को बेहद करीब से चार गोलियां मारकर ढेर कर दिया तब भी गांधी और सावरकर एक-दूसरे से अलग विचार रखते थे। ढींगरा के परिजनों तक ने उससे संबंध तोड़कर खुद को दूर कर लिया था लेकिन सावरकर ने सार्वजनिक तौर पर उसका साथ दिया, वहीं गांधी इसे बहादुरी भरा कारनामा मानने के बजाय हिंसक कृत्य ठहराया। उन्होंने लिखा कि- अगर ऐसी हत्याओं के बाद ब्रिटिश देश छोड़कर चले भी जाएं तो उनकी जगह कौन शासन करनेवाला है? इसका एकमात्र जवाब है- क़ातिल। 

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गांधी-सावरकर की एक मुलाकात और हुई। संयोग से ये भी अक्टूबर था। साल 1909 था और तारीख 24 अक्टूबर. लंदन में भारतीय समुदाय विजयादशमी मनाने के लिए इकट्ठा हुआ था। गांधी ने उस दिन राजनीति पर बोलने से परहेज किया और रामायण पर बोले। उन्होंने देश की आज़ादी से पहले चल रहे संघर्ष को रामायण के पात्रों से जोड़ते हुए हा था कि शासन करने से पहले भगवान राम ने वनवास भोगा था। तब सीता को भी असंख्य परेशानियां झेलनी पड़ी थीं और लक्ष्मण किसी अविवाहित की तरह जिये थे।

उनके बाद सावरकर को बोलने का मौका मिला और उन्होंने देवी दुर्गा के बहाने युद्ध का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि राम अगर रावण के खिलाफ अनशन पर बैठते तो रामराज्य की स्थापना असंभव थी। 

निश्चित ही सावरकर युग और परिस्थिति भुलाकर हिंसक उपायों के पक्ष में तर्क गढ़ रहे थे जबकि अचरज है कि गांधी दुनिया के दरवाज़े पर दस्तक देते लोकतंत्र को पहचानकर ऐसा रास्ता दिखा रहे थे जिसमें मनुष्य का खून कम से कम बहे। बीसवीं सदी ने साबित भी किया कि सत्ता से टकराने का एकमात्र रास्ता बंदूक और बम नहीं बल्कि नारे और धरना भी है। 

– नितिन ठाकुर

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