अग्नि आलोक

देश कागज पर खींचा हुआ नक्शा ही नहीं होता:राजनेताओं का लोकतांत्रिक बोध क्या बहरा है! 

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राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का राजनीतिक झुकाव आकर्षक ढंग से मनुष्य और लोक-हित की तरफ हो रहा है। इसलिए नेता प्रतिपक्ष के रूप में लोकसभा में राहुल गांधी के भाषण में कुछ समझदार लोगों को वाम-पंथी अंतर्वस्तु दिख रही है। इस में कुछ हद तक सचाई के होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि इस वाम-पंथी अंतर्वस्तु के कारण कांग्रेस पार्टी वाम-पंथी नहीं हो गई है। राहुल गांधी भी वाम-पंथी नहीं हो गये हैं। जितनी ‘वाम-पंथी अंतर्वस्तु’ कांग्रेस या राहुल गांधी की सोच में है, उतनी ‘वाम-पंथी अंतर्वस्तु’ तो मानवीय गरिमा को महत्व देनेवाली हर सोच में होती है। अभी तो ‘सोने की चिड़िया’ को पूंजीवाद के ही पिंजरे में रहना है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि वाम-पंथी राजनीति स्थिति को किस तरह से पढ़ती है, आगे यह देखना दिलचस्प होगा। खटकर खानेवाले साधारण और सामान्य लोगों का आनेवाला दिन इस राजनीतिक समय में वाम-पंथी दृष्टि के संवैधानिक पाठ को स्पष्ट शब्दों में सुनने के लिए जरूर उत्सुक रहेगा। दुनिया और देश का राजनीतिक यथार्थ गूंगा नहीं है, राजनेताओं का लोकतांत्रिक बोध क्या बहरा है? 

प्रफुल्ल कोलख्यान

समझदार लोगों ने बार-बार कहा है, देश कागज पर खींचा हुआ लकीर या नक्शा ही नहीं होता है। देश का पूरा प्राकृतिक परिवेश जरूरी तो है, मगर देश का मतलब देश के लोगों से ही होता है। देश के लोग अति-प्रभावशाली राजनीतिक-प्रशासनिक लोगों के घर और दफ्तर के अहाते में खिले हुए गुलाब की तरह नहीं, किसानों के पसीने और प्रकृति के वात्सल्य से लहराते हुए जजात की तरह हो सकते हैं। देश की आबादी का बहुत छोटा-सा हिस्सा जरूर ‘सुर्ख गुलाब’ है, लेकिन देश के अधिकांश लोगों को बेरोजगारी-भूख-कुपोषण-गरीबी-महंगाई-अन्याय के प्रकोप ने दबोच रखा है। 

पेट भरे लोगों को आंकड़ों की गवाही चाहिए होती है लेकिन दिन की प्यास और रात की भूख से लड़ते हुए लोगों के लिए देश की आर्थिक प्रगति के किस्से का कोई अर्थ नहीं होता है। ऐसे किस्सों से देश के लोगों को तसल्ली नहीं होती है, सुकून नहीं मिलता है। भारत के दुनिया की तीसरी-दूसरी-पहली आर्थिक-शक्ति बन जाने के सपनों में धूल-धूसरित पांव का प्रवेश स्वतः निषिद्ध है। देश का राजनीतिक यथार्थ गूंगा नहीं है, हमारा लोकतांत्रिक बोध ही बहरा हो गया लगता है कि हम देश के राजनीतिक यथार्थ की दहाड़ती हुई आवाज को ठीक से सुन नहीं पा रहे हैं। देश के लोगों का हक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भयानक भ्रष्टाचार ने मार लिया है। इस से अधिक खतरनाक बात और क्या हो सकती है कि अधिकतर हकमार राष्ट्र-नायक बनकर दनदनाता हुआ फिर रहा है। देश के महा-प्रभुओं को ऐसा लगता है कि जनता की चेतना गोबर और गाजर में फर्क करने लायक नहीं बची है। देश के लोगों की चेतना सही-सलामत है, भ्रम-जाल में पड़कर जरूर उन की शक्ति कुछ कमजोर हो गई है! अब धीरे-धीरे भ्रम-जाल कट रहा है, शक्ति लौट रही है। निःशक्त आबादी ने अपनी शक्ति का संकेत 2024 के आम चुनाव के खंडित जनादेश में दे दिया है।

खंडित जनादेश का साफ-साफ और निश्चित संदेश है कि ‘कॉरपोरेट यारी’ नहीं चलेगी। गरीबी में पड़े लोगों का हक ‘पचकेजिया मोटरी’ से कहीं अधिक है। असली लाभार्थी तो वे हैं जिन्हें लाखों करोड़ विभिन्न तरकीबों से उपलब्ध करवा दिया जाता है। देश के लोगों को ‘पचकेजिया मोटरी’ नहीं, ‘लोक-लुभावन’ सपने नहीं, बेरोजगारी-भूख-कुपोषण-गरीबी-महंगाई-अन्याय से मुकाबला करने की शक्ति चाहिए। शक्ति और आधिकारिकता (Entitlement) चाहिए। किसी आत्म-मुग्ध नेता की कृपा के रूप में नहीं, लोकतांत्रिक हक और संवैधानिक अधिकार के रूप में चाहिए। 

इस बार खंडित जनादेश के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तिबारा सत्तारूढ़ हुई भारतीय जनता पार्टी के लोगों के लिए यह समझना मुश्किल ही है कि राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में इस समय उनका मुख्य राजनीतिक कर्तव्य क्या है। भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उनका आज मुख्य दायित्व क्या है! वे पूरी तरह से आपसदारी के मति-भ्रम और मतभेद की मनःस्थिति में फंस गये लगते हैं। मति-भ्रम और मतभेद की मनःस्थिति में उन्हें लगता है कि बस राहुल गांधी पर पिले रहने से ही उन्हें ‘काम पर’ लगा हुआ मान लिया जायेगा। इसलिए वे अपनी पुरानी शैली में राहुल गांधी के बारे में अपनी ‘राजनीतिक गतिविधि’ चलाये जा रहे हैं। उन्हें इस बात का कोई ध्यान ही नहीं है कि इस बीच राजनीतिक हवा और राजनीतिक जमीन दोनों ही गुणात्मक रूप से बहुत बदल चुकी है।

राम मंदिर का चुनावी मुद्दा न बन पाने, अयोध्या और आस-पास भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के हार जाने और चुनाव के मैदान में उतरते समय 400 के पार की ‘दहाड़’ के 240 में सिमट जाने का राजनीतिक मतलब उन की पकड़ से बाहर है। इस में साधारण कार्यकर्ताओं का कोई दोष नहीं है, क्योंकि बड़े-बड़े नेता ही दुविधा-ग्रस्त हैं कि नई राजनीतिक परिस्थिति में किस तरह अपनी राजनीतिक सक्रियता को पुनर्संयोजित किया जाये। किसी भी स्तर पर राजनीतिक पुनर्संयोजन (Realignment) का कोई संकेत सतह पर दिख नहीं रहा है। चुनाव परिमाण आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की कोई बड़ी सांगठनिक सभा नहीं हो पाई है। साधारण कार्यकर्ताओं से मिल रही जानकारियों और खुफिया रिपोर्ट को भी सही संदर्भ में संकलित किया जा रहा है या उस में भी कोई हेरा-फेरी हो रही है! क्या पता! 

हाथरस में एक सत्संग में मची भगदड़ में 02 जुलाई 2024 को लगभग सवा-सौ श्रद्धालुओं की जान चली गई। यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी। इस हाथरस हादसे के बाद आस्था और विश्वास के मामला पर आम लोगों के बीच और शासन-प्रशासन के बीच भी तरह-तरह की चर्चाएं होनी स्वाभाविक है। अभी मुख्य धारा की सब से तेज समाचार चैनल पर कुछ तथाकथित साधु-संत-पीठाधीश्वर को आपस में चर्चा का मंच उपलब्ध करवाया गया था। एंकर ‘ऊपरवाला सब देख रहा है’ की भूमिका में अपनी अन-उपस्थिति में उपस्थित था। उन साधु-संत-पीठाधीश्वर में कम-से-कम एक पीठाधीश्वर ऐसे भी थे जो पहले कांग्रेस में देखे जाते थे और अब भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय हैं। 

मजे की बात है! सनातन के विचार को समझाते हुए मध्यकाल के कबीर और संत कवियों की वाणी का उल्लेख कर रहे थे, कह रहे थे, ‘जात पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’! अब कौन और कैसे निवेदन करे कि संघर्ष ‘हरि का होने’ के लिए नहीं है। संघर्ष सही अर्थ में मनुष्य बनने के अवसर के लिए है। हर कोशिश मानव गरिमा को हासिल करने के लिए है। ‘पचकेजिया मोटरी’ का संघर्ष नहीं है। सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन का हक पाने के लिए अंध-विश्वास से संघर्ष एक बड़ा मुद्दा है।  

उस चर्चा के आयोजन के पीछे की ‘रणनीति’ पर थोड़ा ठहर कर विचार किया जाना चाहिए। अंध-विश्वास के संदर्भ में उन में से एक ने कहा कि अंध-विश्वास कुछ नहीं होता है। विश्वास ही होता है। विश्वास की जांच की तरफ बढ़ा जाये तो फिर वह विश्वास ही नहीं रह जायेगा। यहां तक बात ठीक ही लग रही थी। लेकिन इस का वास्तविक अर्थ यह था कि अंध-विश्वास से लड़ने का मतलब विश्वास से ही लड़ना होता है। विश्वास से लड़ने का मतलब आस्था से लड़ना होता है। अतः अंध-विश्वास से लड़ने की बात सोची भी नहीं जानी चाहिए। अंध-विश्वास के साथ फिर कैसा सलूक किया जाना चाहिए? 

विश्वास हर व्यवस्था की धुरी होता है। विश्वास के क्षरण की परिणति अंततः व्यवस्था की गुणवत्ता के क्षरण में ही होती है। यहां यह बात विचार से ओझल हो जाती है या कर दी जाती है कि विश्वास के भी विभिन्न संभाग और आधार होते हैं। विश्वास का एक प्रकार वह है जो वास्तव में भौतिक रूप से फलीभूत होता है और जो किसी ज्ञात एवं सुनिश्चित कारण-कार्य श्रृंखला के आधार पर बनता है। विश्वास का एक अन्य प्रकार भी होता है जो भौतिक रूप से वास्तव में कभी फलीभूत और घटित नहीं होता है और जो किसी ज्ञात या सुनिश्चित कारण-कार्य श्रृंखला के आधार पर भी नहीं बना होता है। विश्वास का पहला प्रकार बुद्धिमत्तायुक्त होता है। विश्वास का दूसरा प्रकार बुद्धिमत्ताहीन होता है। ईश्वर और ईश्वर सरीखे किसी को भी बुद्धि-हीन होकर ही सुमरने से फल मिलने की आशा के मूल में अंध-विश्वास ही होता है। 

कहा जा सकता है कि बुद्धि विरोधी या बुद्धि-निषेधक विश्वास की ‘आध्यात्मिक’ उपयोगिता चाहे जितनी हो, उसकी भौतिक महत्ता शून्य ही होती है। मनुष्य का जीवन वास्तविक और प्राथमिक रूप में भौतिक ही होता और रहता है। हां, मानसिक और द्वितीयक रूप से ‘आध्यात्मिकता’ की जरूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। विचार-विमर्श भी तो जीवन की भौतिक प्रक्रिया ही है। अंध-विश्वास के विरोध की बात का मतलब होता है बुद्धि-विरोधी या बुद्धि-निषेधक विश्वास का विरोध। लेकिन दक्षिण-पंथ की तो पूरी राजनीतिक संरचना ही बुद्धि विरोधी होती है। बुद्धि सक्रिय होती है तो तर्क-वितर्क का रास्ता पकड़ती है, तर्क-वितर्क दक्षिण-पंथ की किसी भी विचारधारा को पसंद नहीं है। दक्षिण-पंथी मन तर्क-वितर्क की किसी भी प्रक्रिया से दूर रहता है, मानता है कि वही होता है जो ‘राम रचि राखा’ है। 

दक्षिण-पंथी मन को किसी भी प्रकार के संदेह से परहेज होता है। संदेह ही आधुनिकता का प्रस्थान-बिंदु होता है, इस संदर्भ में दार्शनिक रने देकार्त (Rene Descartes) को याद किया जा सकता है। दक्षिण-पंथी विचार तर्क-वितर्क से बचने के लिए बुद्धि के विरोध में ही रहता है। दक्षिण-पंथी विचार अंततः आधुनिकता एवं ज्ञानोदय की किसी भी परियोजना के खिलाफ ही रहता है। बार-बार परंपरा की दुहाई देता है। हालांकि तर्क-वितर्क का खतरा टलते ही वह परंपराओं को तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकता है। 

दक्षिण-पंथ की राजनीति बहुत ही कच्ची लेकिन धूर्त समझ के साथ आधुनिकता को वाम-पंथ से एकाकार कर देती है। वाम-पंथ के विरोध से दक्षिण-पंथी विचार को बुद्धि, तर्क-वितर्क, आधुनिकता, प्रगतिशीलता सभी से लड़ने में सुविधा और बढ़त मिल जाती है। यह ठीक से समझना होगा कि देर-सबेर दक्षिण-पंथ का संघर्ष वाम-पंथ से ही होना है। कहना न होगा कि वाम-पंथ और दक्षिण-पंथ के बीच संघर्ष की राजनीति का असली कारण आर्थिक है। राज-व्यवस्था की अर्थ-व्यवस्था में वाम-पंथ पूंजी और मुनाफा के पक्ष में नहीं, मनुष्य और लोक-हित के पक्ष में खड़ा होता है। जाहिर है कि दक्षिण-पंथ की राजनीति को सर्व-ग्रासी पूंजीवाद हर तरह से संपोषित करती है। 

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का राजनीतिक झुकाव आकर्षक ढंग से मनुष्य और लोक-हित की तरफ हो रहा है। इसलिए नेता प्रतिपक्ष के रूप में लोकसभा में राहुल गांधी के भाषण में कुछ समझदार लोगों को वाम-पंथी अंतर्वस्तु दिख रही है। इस में कुछ हद तक सचाई के होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि इस वाम-पंथी अंतर्वस्तु के कारण कांग्रेस पार्टी वाम-पंथी नहीं हो गई है। राहुल गांधी भी वाम-पंथी नहीं हो गये हैं। जितनी ‘वाम-पंथी अंतर्वस्तु’ कांग्रेस या राहुल गांधी की सोच में है, उतनी ‘वाम-पंथी अंतर्वस्तु’ तो मानवीय गरिमा को महत्व देनेवाली हर सोच में होती है। 

पिछले दिनों ईश्वरीय महिमा से अभिभूत राजनीतिक नेताओं ने मानवीय गरिमा के सवाल को देश में लोकतांत्रिक सत्ता की राजनीति की चौहद्दी से बाहर, बहुत दूर तक खदेड़कर पहुंचा दिया था। राहुल गांधी मानव गरिमा के सवाल को सत्ता की राजनीति की चौहद्दी के भीतर सम्मानजनक ढंग से वापस लाने की कोशिश में लगे हुए हैं। अतीत और अति दक्षिण-पंथ की ओर उन्मुख भारतीय जनता पार्टी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत और पूंजी के पैरोकार राहुल गांधी की इसी कोशिश से बहुत विस्मित और हतप्रभ हैं। न सिर्फ विस्मित और हतप्रभ हैं बल्कि ‘शत्रु-भाव की महादशा’ में पहुंच गये लगते हैं। 

राहुल गांधी का राजनीतिक सरोकार, लोकतंत्र की रक्षा और निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty) के साथ सामयिक मुकाबला से ही सीमित लगता है। कांग्रेस की राजनीति फिलहाल सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty) को स्वाभाविक मान लेने की ही लगती है। अर्थ-व्यवस्था की जो संरचना यह मानती है कि अ-समानता कोई एक बार में समाप्त की जानेवाली स्थिति नहीं होती है। हां, इसे लगातार बलपूर्वक समाप्त करते रहना चाहिए। अ-समानता को समाप्त करने में लगातार की गई कोताही से अ-समानता भयानक विषमता में बदल जाती है। असहनीय विषमताएं स्वभावतः पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ध्वस्त होने के राजनीतिक कारणों को पैदा करती है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद की स्थिति? फिलहाल तो इस बात को याद किया जा सकता है कि राजनीति, खासकर सत्ता की राजनीति की प्रक्रिया बहुत ही गतिशील होती है। दक्षिण-पंथ से लड़ते हुए कांग्रेस आज जिस वैचारिक मुकाम पर पहुंची है, बीस-पच्चीस साल पहले कांग्रेस के बारे में ऐसा सोचना संभव नहीं था। कहने का आशय यह है कि कांग्रेस और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की राजनीति की गतिमयता दक्षिण-पंथ से राजनीतिक लड़ाई में आगे क्या मोड़ ले सकती है, अभी कुछ भी कहना बहुत मुश्किल है। सत्ता की राजनीति की आंतरिक और बाहरी गतिमयता पर नागरिक समाज को भी नजर बनाये रखनी चाहिए। 

जी, अभी तो ‘सोने की चिड़िया’ को पूंजीवाद के ही पिंजरे में रहना है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि वाम-पंथी राजनीति स्थिति को किस तरह से पढ़ती है, आगे यह देखना दिलचस्प होगा। खटकर खानेवाले साधारण और सामान्य लोगों का आनेवाला दिन इस राजनीतिक समय में वाम-पंथी दृष्टि के संवैधानिक पाठ को स्पष्ट शब्दों में सुनने के लिए जरूर उत्सुक रहेगा। दुनिया और देश का राजनीतिक यथार्थ गूंगा नहीं है, राजनेताओं का लोकतांत्रिक बोध क्या बहरा है? 

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