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मनोवैज्ञानिक रोमांच से भरी फिल्म ‘चुप’

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हिमांशु जोशी

फिल्म समीक्षक इरीन थिरर ने न्यूयॉर्क डेली न्यूज़ अखबार के लिए साल 1928 में पहली बार फिल्मों को उत्कृष्ट, अच्छी, औसत, बुरी श्रेणी में बांटते हुए स्टार देना शुरू किया था।

मनोवैज्ञानिक रोमांच से भरी फिल्म ‘चुप’ फूलों की दुकान वाले डैनी की कहानी है जो फिल्म समीक्षकों के इन्हीं स्टार्स से चिढ़ता है। फिल्म में एक के बाद एक फिल्म समीक्षकों के मारे जाने के साथ ही डैनी की लव स्टोरी भी चलती है ,जो दर्शकों को फिल्म से जोड़ कर रखती है।

छा गए दुलकर, पुरानी छवि से बाहर निकलते सनी देओल और नई छवि बनाती श्रेया धनवंतरी 

डैनी बने अभिनेता दुलकर सलमान तमिल, तेलुगु, मलयालम, हिंदी फिल्मों में दिखते रहे हैं। दक्षिण भारतीय सिनेमा में कई सारे पुरस्कार जीतने वाले दुलकर ने ‘चुप’ में बेहतरीन काम किया है। खुद से बात करते डैनी के किरदार में दुलकर पूरी तरह खो गए हैं और आने वाले दिनों में हम उन्हें कई बड़ी हिंदी फिल्मों में देख सकते हैं।

फिल्म में सनी देओल पुलिस ऑफिसर के किरदार में दिखे हैं। इस बार उन्होंने अपनी गुस्सेल छवि पर नियंत्रण रख, दर्शकों को विविधता भरा सनी देओल दिखाने की कोशिश करी है और उनकी यह कोशिश बॉलीवुड में उनके दम तोड़ते कैरियर को जरूर नई जान देगी।

अभिनेत्री श्रेया धनवंतरी ‘स्कैम 1992’ वेब सीरीज़ से चर्चा में रही हैं और इस फ़िल्म में उनका किरदार एक युवा पत्रकार से ज्यादा डैनी की गर्लफ्रैंड होने पर ज्यादा केंद्रित रहा है। ‘गया गया गया’ गीत में वह खूबसूरत लगी हैं। 

यह गीत सुनने भी बड़ा प्यारा है।

फ़िल्म में पूजा भट्ट और सरन्या पोंवंनन जैसे बड़े नाम भी हैं, जिनका काम भी ठीक रहा है।

श्रेया, दुलकर सलमान के साथ फ़िल्म के अन्य कलाकारों ने जो भी ड्रेसेज़ पहनी हैं उनमें वह सही जमे हैं।

कुछ नया करते रहे हैं निर्देशक आर बाल्की, फ़िल्म में सिनेमा पर विशेष संवाद

‘पा’ और ‘की एन्ड का’ जैसी प्रयोगधर्मी फिल्म तो ‘पैडमैन’ जैसी सामाजिक फिल्म बनाने वाले निर्देशक आर बाल्की इस बार सिनेमा और सिनेमा समीक्षकों का महत्व समझाती फ़िल्म हमारे सामने लाए हैं। निर्देशक की नज़रों में सिनेमा क्या है, यह हम फ़िल्म के संवादों ‘जिंदा फील करने के लिए सिनेमा चाहिए’ और ‘पेन (pain) इज़ द मोस्ट पॉवरफुल फ्यूल फ़ॉर एन आर्टिस्ट’ से समझ सकते हैं।

आर बाल्की ने एक ढर्रे पर चली आ रही सिनेमा के बीच नया प्रयोग किया है। सोशल मीडिया और बाइक के शौक में डूबे युवाओं के इस जमाने में उनकी फिल्म का मुख्य पात्र साइकिल में घूमता है और नायिका को भी उसमें ही घुमाता है। 

नायिका के ‘हे तुम सोशल मीडिया पे क्यों नही हो’ पूछने पर नायक का जवाब होता है ‘क्योंकि मैं आपके सामने हूं’।

हत्या के अलग अलग तरीकों और घटनास्थल के दिल दहला देने वाले दृश्यों से भी निर्देशक अपनी निर्देशन कला का नमूना दिखाते हैं।

फ़िल्म के बहुत से संवाद बेहद दमदार हैं और दर्शकों को फिल्मी जगत की सच्चाई से बेहद ही करीब से वाकिफ कराते हैं। जैसे ‘पिक्चर रिव्यूज से थोड़ी चलती है, पिक्चर चलती है वर्ड ऑफ माउथ से’।

महानायक का संवाद, एक तीर दो निशाने 

चुप में बॉलीवुड के महानायक और आर बाल्की के पसंदीदा अभिनेता अमिताभ बच्चन भी दिखाई दिए हैं।

फिल्म समीक्षाओं पर उनका एक महत्वपूर्ण संवाद यह है कि समाज को आलोचक की सख्त आवश्यकता है। क्रिटिकिंग इज़ का मस्ट फ़ॉर सोसाइटी, फॉर प्रोग्रेस इन एनी फील्ड। अपनी खूबियों की शाबाशी सबको अच्छी लगती है लेकिन सच्ची शिक्षा तब मिलती है, जब कोई आपको अपनी खामियों का अहसास दिलाता है। बेहतर होने की राह दिखाता है।

अमिताभ द्वारा समीक्षा पर बोली गई यह पंक्तियां दर्शकों को आज के दौर में पत्रकारिता का महत्व समझाने का कार्य भी करती हैं। यह दर्शकों को समझाती है कि सिर्फ सच दिखाने वाली पत्रकारिता ही इस देश को बेहतरी के मार्ग पर लेकर जा सकती है।

लाइट्स और बैकग्राउंड स्कोर के दम पर बनी ये फिल्म याद रखी जाएगी

किसी मनोवैज्ञानिक रोमांच वाली फ़िल्म में दर्शकों को प्रभावित करने के लिए लाइट्स और बैकग्राउंड स्कोर का बड़ा महत्व होता है, इस फिल्म में इन दोनों से दर्शक प्रभावित होते हैं। अमन पन्त ने बैकग्राउंड स्कोर पर कमाल का काम किया है और उनके द्वारा इस्तेमाल की गई कुछ आवाज़ें फ़िल्म के अंत तक दर्शकों के दिमाग में गूंजती रहेंगी। 

लाइट्स के जरिए फ़िल्म के कई दृश्यों का रोमांच बढ़ाया गया है तो मुंबई की खूबसूरती से कभी कभी मन को शांत भी रखा गया है।

फिल्म के पटकथा लेखन में बैकग्राउंड स्कोर की अति न लगे, इस पर विशेष ध्यान दिया गया है।

फिल्मों पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाघर तक पहुंचा जा सकता है।

हिमांशु जोशी

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