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यादें : इंदौर शहर की….बहुत कुछ बदल गया है इस शहर मे…

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बरसों पहले इस शहर ने कभी सपने मे भी नही सोचा था कि यहाँ  बसों की तादाद इतनी हो जाएगी  कि  उन्हे  दौड़ने  के लिए एक अलग रेस ट्रॅक बनाना पड़ेगा | तब बस थी ही कहाँ – हम तांगे  मे सफ़र करते थे, गाँधी हॉल के पास बने शास्त्री पुल को पार करना हो तो पाँच सवारी मे से एक को तो पक्का उतर जाना पड़ता था | इंदौर रेलवे स्टेशन से छावनी जी पी ओ  चार आने लगते थे एक सवारी के और समय – बस पहुँच गये भीया | “…चल बे शेरू क्या सिर्फ़ घास ही खाएगा या चलेगा भी …” छावनी तो कने ही था ना, हां, पिपल्या पाला जाना हो तो दो दिन पहले से सोचना पड़ता था, साईकल ठीक कराके पूरा परिवार आगे पीछे बीठा कर आधे एक घंटे मे हवा खाते पहुँच जाते थे, तब बस थी ही कहाँ |
            बहुत कुछ बदल गया है इस शहर मे – छावनी का दो नंबर का स्कूल नही है, के ई एच क़मपाउंड के कोने पर बना हुआ नेहरूजी का पुतला बिना पार्क के अकेला खड़ा है , नवरतन बाग और ढक्कन वाले कुआँ यह नाम रिक्शे वाले को अब समझ नही है |  महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय यानी – बड़ा अस्पताल पता है जो उस समय इंदौर की इकलोती  सात मंज़िल  बिल्डिंग हुआ करती थी, अब तो आस पास की कई कॉलोनी उसे धता दीखाती है – अपनी उँचाई की शेखी मारती हुई ! लाल अस्पताल के नाम का वजूद ही नही है, नवलखा के आम के बाग़ीचे पता नही कौन गटक गये | शहर मे फल बाग भी हुआ करता था | मेसोनिक लॉज ( भूत बंगला) गायब हो गया | तिलक स्टॅच्यू पर बनी हुई दुकाने अब हटाई जाने वाली है पर इस स्टॅच्यू के साथ जुड़े चौराहे के नाम ने पलासिया चौराहे का नया नाम, अतिक्रमण के तहत स्वीकार कर लिया है |
           सियागंज  और राज कुमार मिल के बंद रेलवे फाटक को कोसते – कोसते हम जवान हुए | राज, यशवंत, बम्बिनो, मिल्कीवे और स्टारलिट कहाँ गायब हुए बस पतली गली से कहीं खिसक ही गये – दी ग्रेट एस्केप की तरह | एक समय मे मिल्कीवे और स्टारलिट की छत नही थी – यह बात बहुतो को मालूम भी नही होगी , इसीलिए उसका नाम स्टारलिट और मिल्कीवे  था |  आज भी शायद लोगों को स्टारलिट के बॅंजो ( बर्गर ) याद आते होंगे – के एफ सी को मात दे सकते थे वे इन्दोरी बन्स  मे छुपे हुए स्वादिष्ट आमलेट !
            डकोटा, एव्रो  यानी एच एस ७४८ और  फॉकर फ्रेंडशिप हवाई जहाज़ मे मुंबई का सफ़र बेहद खर्चीला बनता था पर तब खंडवा और रतलाम मे घंटो रुकने का और कोई चारा भी नही था | हवाई अड्डे किसी को लेने लिवाने जाना मतलब पूरा परिवार जहाज़ देखने जाएगा ज़रूर ! फ्लाइयिंग क्लब का छोटा जहाज़ इंदौर के उपर निगरानी रखता था हर दिन और रात में  टिम टिम  रोशनी के साथ युवाओं के मन मे सपने जगाता था | बड़ा गणपति पार किया मतलब शहर पार किया |                  
           गणेश विसर्जन मे रास्ते की रेलम पेल मे पूरी रात कब निकल जाती थी पता ही नही चलता था और वार्षिक पुलिस के डंडे भी फ्री फ्री फ्री  मिलते थे | किस मिल की झाँकी मे कितने बल्ब थे यह बात गूगल पर आज नही मिलेगी परंतु उस समय  हर किसी अख़बार की शान थी ! नई दुनिया तब किबे कमपाउंड मे छपता था, जागरण, स्वदेश, नवभारत, इंदौर समाचार, अग्ञिबाण  अपनी ज़िंदगी की जद्दोजोहत मे लगे थे |  झाँकी बनाने वाले  कारीगर और अखाड़े के उस्ताद का नाम इंपॉर्टेंट होता था आज के आई पी एल के स्कोर की तरह ! 
         सन ६२ और ७१ की लड़ाई मे महू से निकले टॅंक और बखतरबंद  गाड़ियाँ इंदौर वासियों को हिला गयी थी | देश के लिए कुछ करने का जज़्बा महू – इंदौर को कई वीर सेनानी दे गये |
       वहीं लंदन – सिड्नी कार रॅली की लोटस कॉरटीना कारें पूरे परिवार को सड़क किनारे अचंभित छोड़ गयी – अपनी रफ़्तार से  : इंदौर ने असली  स्पीड का एक लाइव नमूना देखा था आगरा बंबई राष्ट्रीय राजमार्ग पर !
        याद आता है  जी पी ओ के  पास  मील का पत्थर जिस पर एक तरफ बंबई और दूसरी तरफ आगरा लिखा था और संख्या वही थी –  ५९५ ! छावनी / नौलखा का गुरुवार का हाट और नंदलालपुरा का फ्रूट और सब्ज़ी मार्केट पूरे इंदौर की सेहत संभाले हुए था – बस सप्ताह मे एक बार पापा के संग जाओ और छोटे से फ्रिज मे सब्ज़ी भर दो – प्लास्टिक की थेली  तब  बनी ही नही थी, घर से ले जाने पड़ते थे थैले और पूरे बाज़ार मे तोक कर चलना पड़ता था ~ गाय – बैलों के बीच से !           
          घर  मे ए सी का कोई चलन  नही था – थे तो दरवाजे और खिड़कियों पर खस के पर्दे जिस पर समय समय पर पानी छिड़कने का काम सिर्फ़ बच्चों का था  – पानी से खेलने का यह एक बहाना था ~ कहीं कूलर भी बिकते थे ? याद नही ! दस पैसे मे गन्ने के रस का छोटा गिलास पेट भरा करता था, साथ मे चटपटे मसाले की प्लास्टिक की बोतल और विविध भारती के गाने फ्री |
          अम्बेसडर और फियाट ही इंदौर के धनाढ्य परिवार का शौक था ! ट्रॅफिक लाइट तो सिर्फ़ तोप खाना – जैल रोड चौराहे पर लगा था पूरे शहर मे ! तीन पहियों वाला टेंपो भी सड़क पर ट्रॅफिक के लिए अजूबा था ! कार स्कूटर की नंबर प्लेट मे सिर्फ़ तीन अँग्रेज़ी के अक्षर और चार संख्याए थी ~ सब कुछ पेट्रोल से चलता था , तब डीजल होता था क्या ??  शायद खेतों मे पंप चलते  होंगे |
                 २२ मई १९५५ को आकाशवाणी इंदौर का शुभारंभ हुआ था | रात सवा नौ बजे का कार्यक्रम ” हवा महल” बहुत रोचक हुआ करता था और कभी कभार खुशी इस बात की होती थी की कोई झलकी  आकाशवाणी इंदौर क्रेन्द्र की भेट है – यह अंत में सुनने पर इंदौरी  होने का अहसास द्विगुणित हो जाता था ! ६४८ किलोहेर्ट्ज़ क्या होता था ये बचपन मे नही पता था परंतु इंदौर के मालवा हाऊस से नित प्रतिदिन सुन सुन कर ये नंबर  याद हो गया था .. कोई मीटर का नंबर होता था उस ज़माने मे !  स्वतंत्र कुमार ओझा, वीरेंद्र मिश्र, वीना नागपाल, प्रोफ़ेसर सरोज कुमार  और महेंद्र जोशी की क़ाबलियत, आवाज़ की कशिश और प्रोडक्शन की बारीकियों को जानने वाले  बहुत कम लोग बचे है !  
          वही खेल के मैदान से सुशील दोषी और चंद्रा नायडू क्रिकेट का आँखों देखा हाल रेडियो पर इस तरह सुनाते थे जैसे हॉकी के एक्सपर्ट जसजीत सिंग आपको गोल के भीतर ले जाकर ही दम लेते थे .. रेडियो वाकई में हमारा इंटरनेट हाइ स्पीड डाटा  कनेक्षन होता था ! कैसे भूले ऑल इंडिया रेडियो / विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून को जो सभी को सुबह ५ बजकर ५७ मिनिट पर जगा देती थी !! हर शाम सात बजकर पाँच मिनट : फ़ौज़ी भाईयों का गीतों का कार्यक्रम – जय माला और शनिवार की विशेष जय माला जिसमे किसी फिल्मी हस्ती का शामिल होना तय था – यह कार्यक्रम भी कहीं ना कहीं दिल को झकझोर  देता था | मन भावन और अपना घर हमारे  डेली सोप  होते थे और बुधवार की बिनाका गीत माला सुने बगेर खाना हजम नही होता था | वही गाने गुनगुनाते हुए गर्मियों मे घरों की छत पर मालवा की ठंडी हवा मीठी नींद मे हमे अपने आगोश मे ले लेती थी ! ना पंखे ना कूलर और ना ही मच्छरदानी …वाह, क्या दिन और रातें थी शब – ए – मालवा की !
            रविवार की सुबह, महीने मे एक बार प्रकाश टॉकीज पर सुबह सुबह भीड़ देखी जा सकती थी – सिनेमा क्लब के सदस्य, एक कलात्मक अँग्रेज़ी फिल्म देखने  आया करते थे – आज के सानंद के आयोजन की तर्ज पर |
           इंदौर वासियों का क्रिकेट का जुनून अँग्रेज़ों के ज़माने से था ..  मुश्ताक़ अली,   सी के नायडू, चंदू सर्वटे, एम एम जगदाले सभी नाम इतिहास की किताबों मे बाद मे आए, पहले इंदौर के बच्चों ने इनसे      दो – दो हाथ किए | रणजी ट्रोफी के मॅच,  भारत और पाकिस्तान के बीच मॅच भी खुले स्टेडियम मे  हो  चुके थे | फिर आया बड़े स्टेडियम का निर्माण कार्य | हनुमंत सिंग, राज सिंग डूंगरपुर, फ़ारूख़ इंजिनियर,  बापू नाडकरनी, टाइगर पटौदी,  क्लाइव लॉयड  जैसे दिग्गजों को पास से देखना नसीब हुआ था | एस्सो के पेट्रोल पंप पर बार – बार पेट्रोल भरने के लिए पिताजी को मनाना और भारत इंग्लेंड मॅच के अल्बम को इकट्ठा करने की कवायत कोई मामूली बात नही थी |  हरे रंग की वो पुस्तिका बहुत सालों तक सहेज कर रखी थी – गले मे स्कार्फ लगाए फिल शार्प की तस्वीर हीरो से कम नही थी ! फिर कुश्ती, कब्बड़ी , खो खो  इत्यादि  के लिए अलग से छोटा स्टेडियम बना – पर ज़्यादा कुश्तीयाँ नही देख पाया ये स्टेडियम , आस पास की कार स्कूटर रिपेर दुकाने ज़्यादा चल पड़ी, आपस मे कुश्ती करते हुए  – शिवाजी स्टॅच्यू के नज़दीक |
       पातालपानी जाना हो तो सुबह सात दस का महू या मऊ अद्धहा पकड़ना पड़ेगा या साइकल से महू तक पहुँच कर फिर टीम – टाम  उठा कर रेलवे लाइन के साथ – साथ चलना पड़ेगा, हां अगर खंडवा जानेवाली अजमेर – खंडवा रेल मिल गयी तो बहुत ही बढ़िया .. टाटिया भील को सलामी देने के लिए पातालपानी स्टेशन से पहले एक मिनिट सभी ट्रेन यहाँ रुकती थी | टाटिया  भील अंग्रेज़ो के समय का रॉबिन हुड था मालवा के इस छोर पर |  पातालपानी का मज़ा कुछ और ही था बरसात के मौसम मे .. काले वाले गुलाब जामुन और कलाकंद खाना और साथ ले कर  दोस्तों के साथ वापस इंदौर आना  टेढ़ी खीर थी – बच गये तभी घर गये |  अच्छी बारिश के बाद यशवंत सागर डॅम के साइफन गेट के दर्शन सालाना एक बार ज़रूरी थे ! नर्मदा तो बहुत बाद मे इंदौर आयी , ई न पा नि ( आई डी ए के पितामह ) सिर्फ़ यशवंत सागर, सिरपुर और बिलावली से शहर की प्यास बुझा देते थे !!
               २६ जनवरी की परेड जो कभी पुलिस मैदान मल्हारआश्रम मे होती थी अब बड़े स्टेडियम मे होना शुरू हुई | बड़े स्टेडियम मे रुस्तमे हिंद दारा सिंग की कुश्ती किंग कॉंग नकाबपोश के साथ लाइव्ह देखने का सौभाग्य बहुत कम इंदौर वासियों को मिला था |
               १९७१ मे वेस्ट इंडीस के विरुद्ध विजय के पश्चात क्रिकेट का सबसे बड़ा बल्ला इंदौर मे ही लगाया गया – पहले नौलखा और अब स्टेडियम के बाहर ! दुनिया भर मे ये तस्वीर इंदौर का नाम रोशन कर गयी | होलकर कॉलेज तक साइकल पर चले गये मतलब बहुत वर्ज़िश हो गयी … टू व्हीलेर मे वेस्पा, लॅंब्रेटा, विक्की मोपेड , फेंटाब्युलस, यसदि  इत्यादि शहर मे गिनती के थे | ६० और ७० के दशक मे बस साइकल ही थी युवाओं की सवारी | इंदौर की ज़हरीली शराब पीने से मौत की वारदाते एक फिल्म बनकर “शायद” के रूप मे विजेंद्र घाटगे, जयप्रकाश चौकसे के प्रयत्नो से बड़े अस्पताल मे फ़िल्माई गयी |
             फास्ट फूड घर मे ही बनता था | रास्ते मे फेरी वाले, खोम्चे वाले बहुत कम थे | होम  डिलीवरी – ना भोजन की थी, ना राशन की | कृष्णपूरा पुल के पास रामबाग कॉर्नेर की बेकरी मे अपना आटा – मैदा और घी देकर बिस्कुट बनवाने का आनंद कुछ और ही था | रीगल के वोल्गा के छोले भटुरे, छावनी के मथुरावाले के पेढ़े, सराफ़ा की मावा बाटी,  रामपुरवाला बिल्डिंग के सामने एवरफ्रेश के पॅटीस और केक, जेल रोड के प्रशांत की साबूदाना खिचड़ी – पोहे, यशवंत के पास  उज्जैन बस स्टॅंड की झूम बराबर झूम शराबी की कव्वाली : कचोरी – समोसे, चाय को अलग ही मज़ा देती थी | गर्मियों मे घमंडी की लस्सी नही पी तो क्या किया ?  हमारे फास्ट फुड जॉइंट यही थे | शादियों मे धर्मशालाओं में पत्तल – दोनों मे पूरी  बारात जीम के सिमट जाती थी !
            पोस्टमन के आने का समय तय था और होली दीवाली पर सिर्फ़ वो ही बक्षिश लेने आता था | मोबाइल, टी वी, इंटरनेट  किसी ने सोचा भी नही था | मनीऑर्डर, तार, ट्रंक कॉल – तीन मिनिट की कॉल और काले डायल वाले टेलिफोन ही ~ दुख – सुख की खबरों के प्रणेता थे | एस एम एस और व्हाट्सअप के बिना भी काम पूरे होते थे ! टेलिफोन डायरी रखने का प्रचलन ज़रूर था – कॉल नोट करने के लिए !!
          ख़ान नदी की गंदगी मे इसे नदी कहना इसके नाम को दूषित करने के बराबर था | बाद मे  होलकर राज्य की छतरियों के उद्धार के साथ ख़ान नदी / नाले को कुछ बेहतर स्वरूप प्रदान हुआ …. मेरा शहर नये कलेवर मे सिमट रहा है, नया हवाई अड्डा, नये मॉल, नये अस्पताल, नई सड़के, नई कॉलोनियाँ, नया स्टेडियम, नये शिक्षा संस्थान, नये आलीशान होटल  और बिल्कुल नया  बी आर टी एस ….
           बहुत  कुछ बदल गया है मेरे शहर मे … बस यादें पुरानी रह गयी है …  मेरा शहर उम्र के ढलते  – नया हो गया है | 

             परंतु हमारी मानसिकता मे बदलाव नज़र नही आता | इसे भी बदलना होगा … भीया ! 

*सौजन्य से:::बिल्लू इंदौरी:::*दिनेश अग्रवाल 

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