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चिंता का विषय:रोज औसतन 7 एससी, एसटी और ओबीसी छात्र छोड़ रहे हैं उच्च शिक्षा

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स्वदेश कुमार सिन्हा

पिछले पांच वर्षों में 13,626 एससी, एसटी और ओबीसी छात्र-छात्राओं ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी है। यह स्वीकारोक्ति केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने गत 4 दिसंबर, 2023 को लोकसभा में अपने लिखित जवाब में की। केंद्र सरकार के इस आंकड़े को देखें तो हम पाते हैं कि हर साल औसतन 2725 छात्र और रोजाना औसतन 7 छात्र पढ़ाई छोड़ देते हैं।

दरअसल, सरकार से यह पूछा गया था कि क्या सरकार ने इन उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी, एससी और एसटी छात्रों के बीच उच्च ड्रॉपआउट दर के पीछे के कारणों को समझने के लिए कोई अध्ययन कराया है।

हालांकि केंद्र सरकार ने यह नहीं बताया कि दलित-बहुजन समाज के छात्र-छात्राओं को पढ़ाई क्यों छोड़नी पड़ी है। जाहिर तौर पर इतनी बड़ी संख्या में एससी, एसटी और ओबीसी छात्रों का इन संस्थानों से पढ़ाई छोड़ना सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। 

बताते चलें कि पिछले कई वर्षों से उच्च शिक्षण संस्थानों में लगातार दलित-बहुजन छात्रों के उत्पीड़न के समाचार प्रकाश में आते रहे हैं। खासकर आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कॉलेजों में इन वर्गों से आनेवाले अनेक छात्र-छात्राओं ने उत्पीड़न से त्रस्त होकर खुदकुशी तक कर ली। सामान्य तौर पर इन सबकी वजह जातिगत भेदभाव, परीक्षाओं में कम अंक देना, मौखिक परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण कर देना और मानसिक उत्पीड़न आदि है। संस्थानों द्वारा ऐसी घटनाओं को रोकने के दावे ज़रूर किए जाते हैं लेकिन ज़मीन पर ऐसी कोई कार्यवाही दिखाई नहीं पड़ती।

केंद्र सरकार के मुताबिक पिछले पांच वर्षों में एससी, एसटी व ओबीसी समुदायों के 13,626 ने छोड़ दी पढ़ाई

खैर केंद्र सरकार ने लोकसभा में कहा कि “उच्च शिक्षा क्षेत्र में, छात्रों के लिए कई विकल्प होते हैं और वे अलग-अलग संस्थानों में और एक ही संस्थान में एक पाठ्यक्रम/कार्यक्रम से दूसरे में स्थानांतरित होने का विकल्प चुनते हैं। प्रवासन/वापसी, यदि कोई हो, मुख्य रूप से छात्रों की ओर से अपनी पसंद के दूसरे विभागों या संस्थानों में सीट सुरक्षित करना या किसी व्यक्तिगत आधार पर है।”

साथ ही केंद्रीय राज्य मंत्री ने यह भी स्वीकार किया कि “पिछले पांच वर्षों में 4,596 ओबीसी उम्मीदवार, 2,424 एससी और 2,622 एसटी छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बाहर हो गए हैं। इसी दौरान 2,066 ओबीसी उम्मीदवार, 1,068 एससी और 408 एसटी छात्र आईआईटी से बाहर हो गए और 163 ओबीसी, 188 एससी और 91 एसटी उम्मीदवार आईआईएम से बाहर हो गए हैं।”

हालांकि केंद्रीय राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने कहा, “सरकार ने गरीब छात्रों को उनकी शिक्षा को आगे बढ़ाने में सहायता करने के लिए शुल्क में कमी, अधिक संस्थानों की स्थापना, छात्रवृत्ति, राष्ट्रीय स्तर की छात्रवृत्ति जैसे कई कदम उठाए हैं।” 

केंद्रीय राज्य मंत्री ने कहा कि, “एससी/एसटी छात्रों के किसी भी मुद्दे को सक्रिय रूप से संबोधित करने के लिए संस्थानों ने एससी/एसटी छात्र प्रकोष्ठ, समान अवसर प्रकोष्ठ, छात्र शिकायत प्रकोष्ठ, छात्र शिकायत समिति, छात्र सामाजिक क्लब, संपर्क अधिकारी, संपर्क समिति आदि जैसे तंत्र स्थापित किए हैं। इसके अलावा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने छात्रों के बीच बराबरी और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर निर्देश जारी किए हैं।”

दलित-बहुजनों द्वारा पढ़ाई बीच में छोड़ने के बारे में गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. जनार्दन का कहना है कि “विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में दलित-पिछड़े और जनजाति समाज के छात्रों के उत्पीड़न की घटनाएं आम हो गई हैं। अनेकानेक छात्र प्रतिवर्ष अनुत्तीर्ण किए जाते हैं या फ़िर उन्हें संस्थान छोड़ने पर मजबूर किया जाता है। यह सब बहुत वर्षों से चल रहा है। अब जाकर लोकसभा में केंद्र सरकार द्वारा इसे स्वीकार किया गया है।”

गोरखपुर विश्वविद्यालय के ही अर्थशास्त्र के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. विनीत यादव बताते हैं कि जब वे स्वयं छात्र थे तो उस समय पिछड़े वर्गों के लिए कोई आरक्षण नहीं था। वे अकेले ही ऐसे छात्र थे, जोकि पिछड़े वर्ग से आते थे। उन्हें छात्र जीवन से लेकर नौकरी पाने तक काफ़ी उत्पीड़न झेलना पड़ा था। दुखद यह कि ऐसी घटनाएं आज भी जारी हैं।

संत विनोबा महाविद्यालय, देवरिया के सैन्य अध्ययन विभाग से जुड़े डॉ. असीम सचदेव ने बताया कि तकनीकि शिक्षण संस्थानों में दलित-बहुजन समाज से आए हुए छात्रों का उत्पीड़न आम है। लंबे समय से विश्वविद्यालय तथा कॉलेजों में अध्यापन कर रहे दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले शिक्षकों के स्थायीकरण में दिक्कतें पैदा की जाती हैं। इस समय तो केवल आरएसएस से जुड़े शिक्षकों को ही स्थायी किया जा रहा है। 

बहरहाल, यह सर्वविदित है कि दलित-बहुजन समाज अब भी उच्च शिक्षा के मामले में अत्यंत ही पिछड़ा है। इन समुदायों के छात्र बड़ी मुश्किल से उच्च शिक्षण संस्थानों में अपनी पहुंच बना पाते हैं। यदि वे भी अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहे हैं तो निश्चित रूप से इस बहुसंख्यक समाज की उच्च शिक्षा से दूरी बढ़ती ही जाएगी।

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