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*जातिगत जनगणना पर एक तटस्थ विश्लेषण*

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         ~ पुष्पा गुप्ता 

     पाँच विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही तमाम सेक्युलर बुद्धिजीवियों (लिबरल्स) का एक तबका कांग्रेस से फिर ख़फ़ा हो गया। उसके निशाने पर एक बार फिर राहुल गाँधी रहे जिनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से उपजे माहौल ने इन बुद्धिजीवियों को पुनर्विचार के लिए मजबूर किया था. कर्नाटक और हिमाचल में कांग्रेस की जीत ने राहुल या गाँधी परिवार की उनकी तमाम आलोचनाओं पर ताला लगा दिया था।

   छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की हार ने उन्हें फिर मौक़ा दे दिया है। इस बार उनकी आलोचना में एक नया अस्त्र है। यह अस्त्र है सामाजिक न्याय को लेकर बनी कांग्रेस की स्पष्ट लाइन जो उनके मुताबिक़ ‘कांग्रेस के डीएनए’ के ख़िलाफ़ है।

     ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का राहुल गाँधी का नारा उन्हें बुरी तरह बेचैन कर रहा है। इस वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर रामचंद्र गुहा को देखा जा सकता है जिन्होंने प्रख्यात पत्रकार करण थापर को दिये अपने यूट्यूब इंटरव्यू मे साफ़ कहा कि जाति जनगणना एक प्रतिगामी विचार है। यह भविष्य को लेकर कोई उम्मीद नहीं जगाता।

     यानी इस देश की लगभग 85 फ़ीसदी आबादी को शासन-प्रशासन में भागीदारी का सवाल उनकी नज़र में नाउम्मीदी की ख़बर है। बात-बात में नेहरू को कोट करने वाले ऐसे बुद्धिजीवी शायद भूल गये हैं कि नेहरू ने जनता को ही ‘भारत माता’ बताया था।

अर्थात देश का मतलब देश के लोग। अगर ये बात सच है तो देश की बहुसंख्यक आबादी के भविष्य को संवारने वाली योजनाएँ, नाउम्मीदी कैसे जगा सकती हैं या प्रतिगामी विचार कैसे हैं?

     कहीं ऐसा तो नहीं कि राम गुह की ज़बान से इस देश का (सवर्ण) प्रभुवर्ग ही बोल रहा है जो शासन-प्रशासन में अपनी इजारेदारी को सहज-स्वाभाविक मानते हुए यथास्थिति में किसी परिवर्तन से बैचैन हो जाता है। सामाजिक न्याय के ‘राहुल-पथ’ पर बढ़ती कांग्रेस ने उनकी बेचैनी को कई गुना बढ़ा दिया है।

जो लोग ‘जाति जनगणना’ या ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ के नारे को  कांग्रेस के डीएनए के ख़िलाफ़ बता रहे हैं न कांग्रेस के इतिहास से वाक़िफ़ हैं और न आज़ादी की लड़ाई के संकल्पों से। कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गयी आज़ादी की लड़ाई ने इस महादेश के हज़ारों साल के इतिहास में पहली बार प्रजा को ‘नागरिक’ होने का हक़ दिया।

      इस प्रजा में अधिकतर वही लोग थे जिन्हें आज दलित, पिछड़ा या आदिवासी कहा जाता है। इतिहास के रथ ने कुछ महीनों के अंदर कई सदियों की छलांग लगायी थी और देश को एक ऐसा संविधान मिला था जिसने असमानता और शोषण को ईश्वरीय विधान मानने वाले ग्रंथों को लाइब्रेरी के दीमकों के हवाले कर दिया था। राहुल गाँधी इतिहास के उसी रथ को नये क्षितिज की ओर ले जा रहे हैं जो संविधान सभा के अंतिम भाषण में जतायी गयी डॉ.आंबेडकर की इस चिंता को दूर कर सकता है कि भारत की राजनीतिक आज़ादी अगर सामाजिक और आर्थिक समानता की ओर नहीं बढ़ी तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जायेगा।

      सामाजिक न्याय अगर कांग्रेस के डीएनए में नहीं होता तो भारत के संविधान का ऐसा रूप न होता जैसा है। न अस्पृश्यता कौ ग़ैरक़ानूनी घोषित किया जाता, न महिलाओ को बराबरी का अधिकार मिलता और न ही ज़मींदारी उन्मूलन होता। न आजादी के साथ ही दलितों और आदिवासियों को आरक्षण मिलता और न ओबीसी वर्ग के आरक्षण के उपाय के लिए आयोगों का गठन होता।

      इस काम में निश्चित ही देर हुई लेकिन मंडल कमीशन ने किस कदर देश के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को बदला है, यह किसी से छिपा नहीं है। भोजन और शिक्षा के अधिकार सहित मनरेगा जैसे रोज़गार गारंटी कानून कांग्रेस के उसी संकल्प की देन हैं।

ज़ाहिर है, कांग्रेस के ‘राहुल-पथ’ ने सामाजिक स्तर पर प्रभुत्वशाली वर्ग को नाराज़ कर दिया है। कुछ इसी तरह की नाराज़गी इस देश के कारपोरेट वर्ग ने भी दिखायी थी जब राहुल गाँधी ने भट्टा परसौल जाकर भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध किया था। राहुल की राजनीतिक लाइन से घबरायी कॉरपोरेट लॉबी ने उसी समय नरेंद्र मोदी में अपना भविष्य देख लिया था और समय के साथ यह गठबंधन पुख्ता होता गया। कॉरपोरेट वर्ग किस तरह बीजेपी के साथ खड़ा है इसका ताज़ा सबूत वित्तीय वर्ष 2022-23 में गैर इलेक्टोरल बांड से मिला चंदा है।       

       बीजेपी को लगभग 720 करोड़ और कांग्रेस को महज़ 80 करोड़ प्राप्त हुए हैं। इलेक्टोरल बांड की कहानी अलग है जहाँ बीजेपी अकेले 57 फीसदी चंदा पाती है। इस चंदे ने बीजेपी को किस कदर संसाधनो से लैस किया यह विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान साफ महसूस हो रहा था।  

      बहरहाल, क्या राहुल गाँधी की सामाजिक न्याय की राजनीतिक लाइन सचमुच पिट गयी है?  सच्चाई इसके उलट है। लोकतंत्र में हर आदमी का वोट बराबर मायने रखता है। अगर राहुल गाँधी के सामाजिक न्याय का मुद्दा कांग्रेस पर भारी पड़ा होता तो राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस को बीजेपी से ज़्यादा वोट नहीं मिले होते।

      इन राज्यों में कांग्रेस को 4,90,77,907 और बीजेपी को 4,81,33,463 वोट मिले हैं। यानी कांग्रेस को करीब साढ़े नौ लाख वोट ज़्यादा मिले हैं। इसे आप कांग्रेस की नीति पर हुआ रिफ्रेंडम भी मान सकते हैं हालाँकि ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ सिस्टम के तहत सरकार बनाने के लिए सीटों का गणित अहम होता है जिसमें निश्चित ही कांग्रेस पीछे रह गयी। मिजोरम में भी कांग्रेस को 20 फीसदी वोट मिला है जबकि सीट महज़ एक मिली है।

      अगर बात सिर्फ हिंदी प्रदेश की करें तो वहाँ भी कांग्रेस अपना जनाधार बचाने में कामयाब रही। उसे इस बार भी लगभग उतने ही वोट मिले हैं जो पिछली बार मिले थे जब उसने तीनों राज्य जीते थे। ज़ाहिर है, बीजेपी ज़्यादा चतुर साबित हुई। उसने छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सरकारों को बदनाम करने के लिए झूठ और फरेब का दुश्चक्र रचा।

      प्रधानमंत्री मोदी ने खुद कन्हैयालाल की हत्या को राजस्थान में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मुद्दा बनाया। बीजेपी ने प्रचारित किया कि कन्हैयालाल के परिजनों को सिर्फ़ पाँच लाख रुपये दिये गये थे जबकि ऐसे ही एक मामले में मुस्लिम पीड़ित परिवार को पचास लाख दिये गये थे। ये सरासर झूठ था। कोई और समय होता तो मीडिया इसकी सच्चाई जनता को बताता, लेकिन उसने आँख मूँद लीं।

      ऐसा ही आरोप महादेव ऐप को लेकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ़ भी लगाया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘महादेव’ को एक धार्मिक रंग दिया। अब पता चला है कि भूपेश बघेल को पाँच सौ करोड़ देने का आरोप लगाने वाला अपनी बात से मुकर गया है। यानी ये सारा फरेब सिर्फ़ चुनाव के लिए रचा गया था।

विपक्ष की सुपारी लेकर बैठे मीडिया की ओर से स्वाभाविक ही कांग्रेस की पराजय को प्रधानमंत्री बतौर मोदी की हैटट्रिक का स्पष्ट संकेत बताया जा रहा है।

     लेकिन क्या ये इतना सीधा मामला है” चुनाव नतीजों के विश्लेषण के काम से लंबे समय तक जुड़े रहे योगेंद्र यादव ने बताया है कि मौजूदा मतदान और समर्थन को मानक मानें तो बीजेपी को लोकसभा की 19 सीटों का नुकसान हुआ है जबकि कांग्रेस को 22 सीटों का फायदा हुआ है।

     बीजेपी के सिर जीत का सेहरा बाँधने वाले तीनों हिंदी भाषी राज्यों का चुनावी इतिहास बताता है कि विधानसभा और लोकसभा में जीत एक ही पार्टी को मिले, ऐसा कम होता है। इसलिए अभी से मोदी की हैट्रिक का ढोल बजाना और 2024 की चुनावी लड़ाई को औपचारिकता बताना एक व्यापक षड़यंत्र का हिस्सा है।

      कांग्रेस जनसमर्थन के बावजूद धनबल और छलबल का सामना नहीं कर पायी और हार गयी। लेकिन रास्ता तो सामाजिक न्याय का ‘राहुल-पथ’ ही है। ये संयोग नहीं कि जिस मध्यप्रदेश में कांग्रेस की बड़ी हार हुई है, वहाँ कांग्रेस के प्रचार में सामाजिक न्याय का रंग सर्वाधिक फ़ीका था। कांग्रेस जन अगर इस बात को समझ ले तो 2024 में इंडिया नया इतिहास रच सकता है।

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