मनीष सिंह
पावर्टी इज स्टेट ऑफ माइंड यानी, गरीबी एक मानसिक अवस्था है ! आप अपने मानस में गरीबी की क्या परिभाषा तय करते हैं ? अभावग्रस्त भोजन, फटे कपड़े, सिर पर छत का न होना ? बहुतेरे पैरामीटर हो सकते हैं. वो आपके अपने मानदंड हैं. आपके स्टेट ऑफ माइंड पर निर्भऱ है, पर दूसरे के वही मानदंड हों, जरूरी नहीं.
दरवाजे पर भीख मांग रहा भिखारी गरीब है, फाइन. स्वस्थ, हृष्टपुष्ट, भगवा डाले बन्दा, बाल्टी में तेल और शनि की मूर्ति लिए भीख मांग रहा है, क्या गरीब है ? टूटे फूटे मकान में रह रहा बन्दा गरीब है, हिमालय की कंदरा में भागकर बैठा बाबा, गरीब है ? कमजोर हड्डियों का ढांचा बनी मजदूर, गरीब है. रैंप पर कैटवॉक करती हड्डियों के ढांचे पर क्या कहना है ?
आप कहेंगे कि यह उसकी चॉइस है. ठीक, लेकिन अगर न्यूट्रिशन बेस्ड पैरामीटर बनाकर गिनती कराई जाए तो उसमें अपनी चॉइस से बने गरीब भी शामिल होंगे न ?
चॉइस से गरीब ? जी हां, आपके मटेरीयलिस्टिक दौड़ से दूर, सुख से वनवासी जीवन बिता रहा बन्दा भी गरीब है न ! फूस की झोपड़ी में, जंगल के बीच ढोढ़ी का पानी पीता बस्तरिया, क्या गरीब है ?
सभ्य नहीं दिखता, कोट टाई नहीं लगाता. सुबह उठकर खेत जाने वाला, दोपहर जीभर सोने वाला, सांझ को ताश खेलने वाला और आठ बजे सो जाने वाला सीमांत किसान, गरीब है ?
नहीं, ये तय करने वाले आप नहीं हैं. वही तय करेगा. वो सन्तुष्ट है, तो आपसे ज्यादा अमीर है. अगर नहीं है, तो कितनी शिद्दत से अपनी गरीबी को महसूस करता है, वो उतना ज्यादा गरीब है.
महसूस करना, स्टेट ऑफ माइंड. छोटा था, रिक्शे में स्कूल जाता. कुछ बच्चे कार में आते थे. वो अमीर थे, मैं गरीब. इसलिए जब कार खरीदा, लगा, लगा आज से मैं अमीर हो गया. फिर अम्बानी का प्लेन देखता हूं, गरीब हो जाता हूं. उधर बेचारा अम्बानी, बिल गेट्स को देखकर गरीब-गरीब फील करता है. स्टेट ऑफ माइंड !
देश मे 70% बच्चे WHO नार्म्स के अनुसार कुपोषित हैं. उम्र के आधार पर वजन का चार्ट है, गूगल कीजिए, मिल जाएगा. चेक करेंगे तो आपके भी दो में से एक बच्चा कुपोषित मिलेगा.
सीवियर नहीं, तो मॉडरेट मिलेगा. यह भोजन की उपलब्धता पर नहीं, फूड हैबिट पर निर्भऱ करता है. बच्चे को तीन टाइम खिलाइए, आप खुश रहिये लेकिन चार्ट से नापने पर कुपोषित है.
WHO टेस्ट पास करने के लिए आपको उसे हर दो घण्टे में कुछ खिलाना है. इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मैंने जो किया तो मेरा बेटा ओवरवेट हो गया. काहे कि उसे हर दो घण्टे में, कुछ न कुछ खाने की आदत ही हो गयी.
गरीबी इनकम पर भी निर्भऱ नहीं. दस हजार की इनकम में आप बढिया खा पीकर टन्न रह सकते हैं. यह निर्भऱ करता है कि किस इलाके में रहते हैं. मुम्बई में तो पचास हजार कमाने वाला गरीब है.
अब सरकारें एक लाइन खींचती है. इतनी इनकम से कम वाला गरीब, इतनी कैलोरी से कम वाला गरीब, टीन की छत वाला गरीब. अब यह गरीबी की रेखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है. मन की सीमा रेखा, स्टेट ऑफ माइंड, सब निर्धारित करती है.
WHO नॉर्म्स को एक इंच खिसकाइये और एक करोड़ बच्चे कुपोषण से बाहर पाइए. तीन हजार कैलरी खाने वाला गरीब नहीं और देश के किसी कोने में इतने कैलोरी का भोजन यह तीस रुपये में मिल सकता है इसलिए मोंटेक सिंह जैसे होशियार 30 रुपये दैनिक को गरीबी की सीमा बना सकते हैं. और फिर इकॉनमिक टाइम्स उसे ‘आधा डॉलर’ बताकर बढिया मिट्टी पलीद कर सकता है.
समय समय पर गरीबी की सीमा रेखा बदलती रहेगी. इस लाइन के इधर और उधर गिनकर, गरीबी कितनी घटी, वो सरकार बताती है. 1947 में 29 करोड़ में से 26 करोड़ सरकारी गरीब थे, 90% .
2014 तक 125 करोड़ में सिर्फ 24 करोड़ सरकारी गरीब थे, परसेंट आप निकाल लीजिए.
आप कहें कि गिनती में झोल है, तो ठीक है भाई 2-4 करोड़ अपनी-अपनी पार्टीगत श्रध्दा के अनुसार बढ़ा-घटा लीजिये. मैनें आंकड़े 2014 तक के दिए हैं. इधर का नहीं पता क्योंकि अब आंकड़े आते नही और पूछना देशद्रोह है लेकिन जब आएंगे, तो वो भी किसी न किसी के ‘मन की बात’ पर आधारित होगी.
हम 1947 में गरीबी से लड़ रहे थे, 1971 में भी, 2004 में भी, और आज भी लड़ रहे हैं. कांग्रेस भाजपा, नेहरू-इंदिरा-मोदी करते रहिए. पॉलिटिक्स आपके लिए मनोरंजन है, इसलिए पॉलिटिशियंस के लिए आप मनोरंजन.
लेकिन अगर विषय को समझना है तो विषय पकड़िये, पार्टी नहीं. जान लीजिए कि गरीबी से हम 2021 ही नहीं, 3031 में भी लड़ रहे होंगे. उस वक्त भी एक नेता आपके पड़पोती-लकड़पोतों से उस वक्त की डिफाइंड गरीबी से लड़ने के नाम पर वोट मांग रहा होगा या की अम्बाडानी के लकड़पोतों के पेट में संसाधन झोंकने के लिए, आपके लकड़पोतों को गरीब बना रहा होगा.
- मनीष सिंह