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*अ संग ठित “संग” ठन*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी बहुत ही अलग मुद्दे पर अपने विचार लिख रहे थे।
जब मै उनसे मिलने गया तब उन्होंने मुझे अपना आलेख पढ़ कर सुनाया।
सीतारामजी ने स-खेद आश्चर्य प्रकट करते हुए अपना लेख पढ़ना शुरू किया।
एक ओर राजनैतिक संगठन और राजनीति में गठजोड़ की खबरों को समाचार माध्यमों में अहमियत दी जा रही है।
दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या में वृद्धि चिंता का विषय है?
असंगठित होने से श्रमिकों का भरपूर शोषण हो रहा है।
एक ओर अर्हनिश बाजार को खुला रखकर मादक पदार्थों की उपलब्धता को Night culture अर्थात रात्रि संस्कृति कहा जाता है। यह संस्कृति जैसे पवित्र शब्द का अपमान है। कारण मादक पदार्थों के सेवन के पश्चात संस्कारहीन कृत्य की ही अपेक्षा की जा सकती है।
इसीतराह Work from home के नाम पर स्वयं के घर में ही बैठ कर कार्य करवा ने नाम पर अर्हनिश संगणक के समक्ष आंखें गड़ाए बैठने की सजा मिल रही है। यह देश की उस पीढ़ी का अप्रत्यक्ष शारीरिक,मानसिक और आर्थिक शोषण है जो पीढ़ी देश का भविष्य है।
क्या उच्चशिक्षा प्राप्त होने पर भी अपने उदरनिर्वाह के लिए और अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए,यह शिक्षित पीढ़ी शोषण करवा ने के लिए अभिशप्त है?
यह सब देखकर साहित्यकार होने के नाते जेहन में यह प्रश्न भी सहज उपस्थित होता है कि,अपने देश में धार्मिक स्थानों में दर्शनार्थियों की बढ़ती संख्या और कथा प्रवचन सुनने वालों की बढ़ती तादाद क्या संदेश देती है?
सच में अपना देश धार्मिक देश है,श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या इस बात के लिए आश्वस्त करती है कि, सच में भगवान पर श्रद्धा रखने से सारे दुःख और कष्ट अवश्य ही दूर होंगे।
धार्मिक आयोजनों के व्यय पर कभी भी प्रश्न पैदा नहीं करना चाहिए,यह शुद्ध, श्रद्धा का विषय है। यदि कोई विघ्न संतोषी प्रश्न उपस्थित करता है,तो समझ लेना लोगों की आस्था आहत होती है और आस्था आहत होने का परिणाम मात्र काही स्मरण दिल दहला देता है?
मैने इतना सुनने के बाद सीतारामजी से कहा मेरी आपसे नम्र विनंती है कि, अपने लेख को यहीं पूर्ण विराम दो।
छोटे मुंह बड़ी बात कह रहा हूं।अकारण मधुमक्खियों के छत्ते पर कंकर नहीं मारना चाहिए।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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