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इजराइल और पाकिस्तान में एक विचित्र समानता? 

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विजय शंकर सिंह

विभिन्न कारणों से जन्मे इजराइल और पाकिस्तान में एक विचित्र समानता है। यह समानता है, दोनों ही देशों के निर्माण में केंद्रीय भूमिका धर्म की रही है और दोनों ही देशों के जन्म की पृष्ठभूमि में, ब्रिटिश साम्राज्य की कुटिल नीतियां रही हैं। पर एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी है कि, पाकिस्तान जहां भारत का अंगभंग करके बनाया गया है, वहीं इजराइल एक सर्जरी की तरह फिलिस्तीन के कुछ हिस्सों में इंप्लांट किया गया है।

पाकिस्तान इस भूभाग के लिए विदेशी नहीं है और न ही यह थोपा गया है, बल्कि एक साझी संस्कृति और साझी विरासत का बंटा हुआ रूप है, जैसे किसी परिवार में, जो सदियों से साथ साथ जीते मरते रहते हुए, एक सुबह बंट कर अलग हो जाते हैं, पर पट्टीदारी के सारे झगड़े, फसाद, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा के सामान्य मानवीय भावों के साथ साथ जीते रहते हैं। वहीं, इजराइल, इतिहास के एक बेहद लंबे दौर, जिसे दो हजार साल का गैप भी कहा जा सकता है, के रूप में एक नश्तर की तरह, फिलिस्तीन में धंसा हुआ दिखता है।

पाकिस्तान का गठन और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की कहानी और इतिहास हम सब जानते हैं, पर इजराइल के जन्म के बारे में अधिकतर यही जानते हैं कि, वह भूमि जहां आज इजराइल आबाद है, वह किसी समय, हालांकि यह समय काफी पीछे तक चला जाता है, हजरत मूसा और उन्हें मानने वाले समुदाय यहूदियों, जिनका नामकरण जुडास के नाम पर पड़ा है की, पवित्र भूमि है और सदियों से निर्वासित, निंदित और प्रताड़ित इस समाज को एक ठौर दिलाने का नेक काम ब्रिटिश हुकूमत ने किया है।

ब्रिटिश हुकूमत या साम्राज्य खुद को रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध कविता द व्हाइट मैंस बरडेन के अनुसार दुनियाभर के अश्वेत समूह को सभ्य बनाने के महती कार्य के लिए एक अवतार के समान समझता था। नीली आंखें और सफेद गोरा रंग, आभिजात्य और सभ्यता की एक नई परिभाषा लेकर पूरी दुनिया में फैल गया था। आर्थिक आधिपत्य और शोषण के उद्देश्य से किया गया अंग्रेजी साम्राज्य विस्तार, प्रत्यक्षतः सेक्युलर दिखता हुआ भी, परोक्ष रूप से ईसाई मिशनरियों और  धर्म परिवर्तन के पोशीदा एजेंडे के साथ दुनिया भर में विस्तार पा रहा था।

अरब या सामान्य रूप से जिस इलाके को ब्रिटिश मिडिल ईस्ट के नाम से पुकारते हैं वह इलाका ऑटोमन साम्राज्य का था, जिसका केंद्र तुर्की था और उसका प्रमुख खलीफा तथा उसकी गद्दी को खिलाफत कहा जाता था। मिडिल ईस्ट इसलिए कि, इंगलैंड से यह इलाका पूर्व की ओर तो है, पर बहुत पूर्व की ओर न होकर मध्य पूर्व में अवस्थित है। तब इसी मिडिल ईस्ट में दुनिया के बड़े और महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक ऑटोमन साम्राज्य की हैसियत इस्लाम के लिए एक धार्मिक प्रमुख के रूप में भी थी।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस साम्राज्य का खात्मा हो गया और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इजराइल अस्तित्व में आ गया। 1876 से ओटोमन साम्राज्य पर अब्दुल हमीद द्वितीय ने शासन किया था, लेकिन एक क्रांतिकारी आंदोलन, जिसे यंग तुर्क के नाम से जाना जाता है, अब्दुल हमीद द्वितीय के राजशाही शासन के विरोध में खड़ा हुआ और 1909 तक इस क्रांतिकारी आंदोलन ने सुल्तान को पदच्युत कर दिया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में ओटोमन, जर्मनी की ओर से लड़े थे, तो वे स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन के निशाने पर आ गए। इस महायुद्ध में ओटोमन की हार के कारण तुर्की में राष्ट्रवाद की लहर चली। साल 1920 में हुए युद्धोत्तर समझौते में ओटोमन साम्राज्य का क्षेत्र बहुत कम हो गया, जिसने राष्ट्रवादियों को नाराज कर दिया।

तभी मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में एक नई सरकार, जिसे अतातुर्क के नाम से जाना जाता है, अंकारा, तुर्की में उभरती है और अंतिम तुर्क सुल्तान मेहमेद VI, सल्तनत समाप्त होने के बाद 1922 में तुर्की से भाग गया। इसके बाद, 1923 में तुर्की को एक गणतंत्र घोषित कर दिया गया। अतातुर्क तुर्की के पहले राष्ट्रपति बने और तुर्की का आधुनिकीकरण उन्हीं के समय शुरू हुआ। 

साल 1917 में अरब के इलाके विशेषकर बगदाद पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया और प्राचीन मेसोपोटामिया में एक नया देश अस्तित्व में आया, इराक। पर इसी साल 1917 में एक ऐसी घोषणा होती है जिसने इजराइल के जन्म की पृष्ठभूमि के रूप में समझा और माना जा सकता है। यह घोषणा थी, बाल्फोर घोषणा। 2 नवंबर, 1917 को हुईं बाल्फोर घोषणा, “फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर की स्थापना” हेतु ब्रिटिश समर्थन के प्रथम संकेत के रूप में देखी जाती है।

यह वादा ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बाल्फोर द्वारा एंग्लो-यहूदी समुदाय के नेता रोथ्सचाइल्ड को लिखे एक पत्र में किया गया था। हालांकि पत्राचार का सटीक अर्थ विवादित रहा है, लेकिन इसके बयान आम तौर पर साइक्स-पिकोट समझौते (ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक गुप्त सम्मेलन) और औसैन-मैकमोहन पत्राचार (मिस्र में ब्रिटिश उच्चायुक्त के बीच पत्रों के आदान-प्रदान) दोनों के विरोधाभासी थे।

बाल्फोर घोषणा के अनुसार, “यहूदी आबादी के लिए मातृभूमि या देश” की स्थापना का समर्थन किया गया था। हालांकि यह घोषणा एक सदी पुरानी है, लेकिन इसके झटके आज भी महसूस किए जाते हैं।

पत्र इस प्रकार था-

मुझे आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है। सम्राट की सरकार ओर से यहूदी ज़ायोनी आकांक्षाओं के साथ सहानुभूति की निम्नलिखित घोषणा को मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया गया है, और अनुमोदित भी किया गया है।

सम्राट की सरकार, यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर के रूप में फिलिस्तीन में स्थापना के पक्ष में है, और इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बनाने के लिए, अपने सर्वोत्तम प्रयासों का उपयोग करेगी। यह स्पष्ट रूप से समझा जा रहा है कि, ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों या किसी अन्य देश में यहूदियों द्वारा प्राप्त अधिकार और राजनीतिक स्थिति, नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।

यदि आप इस घोषणा को ज़ायोनी फेडरेशन के ज्ञान में लाएंगे तो मुझे आपका आभारी होना चाहिए।

लंदन में ज़ायोनी नेताओं चैम वीज़मैन और नहूम सोकोलो के निरंतर प्रयासों से जारी बाल्फोर घोषणा, ज़ायोनीवादियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, जिन्होंने फ़िलिस्तीन को “यहूदी राष्ट्रीय घर” के रूप में पुनर्गठित करने के लिए कहा था। घोषणा में विशेष रूप से कहा गया है कि “ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।” 

हालांकि, दस्तावेज़ में इन समुदायों के राजनीतिक या राष्ट्रीय अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा गया और न ही उनका नाम बताया गया। फिर भी, इस घोषणा से ज़ायोनीवादियों में उत्साहपूर्ण आशाएं जगीं और ऐसा लगा कि यह विश्व ज़ायोनी संगठन के उद्देश्यों को पूरा कर रहा है।

ब्रिटिश सरकार को उम्मीद थी कि यह घोषणा प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान केंद्रीय शक्तियों के खिलाफ मित्र देशों की शक्तियों के पक्ष में, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में, यहूदी जनमत को उनके पक्ष में लाएगी। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश समर्थक यहूदी आबादी के फिलिस्तीन में बस जाने से पड़ोसी मिस्र में स्वेज नहर जल मार्ग की रक्षा करने में भी मदद मिल सकती है और इस तरह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण और निरापद सागर मार्ग सुनिश्चित हो सकता है।

बाल्फोर घोषणा को ब्रिटेन की प्रमुख सहयोगी शक्तियों का समर्थन प्राप्त था और इसे फ़िलिस्तीन पर लागू करने के लिए ब्रिटिश शासनादेश में शामिल किया गया था, जिसे औपचारिक रूप से 24 जुलाई, 1922 को नव निर्मित लीग ऑफ नेशंस द्वारा अनुमोदित किया गया था।

यद्यपि कि, बाल्फोर घोषणा कई वर्षों की सावधानीपूर्वक बातचीत का परिणाम थी, इस घोषणा के ऐतिहासिक कारकों को सरल शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-

फ्रांस में 1894 के ड्रेफस मामले ने सदियों से प्रवासी रूप में रहने के बाद यहूदियों को यह महसूस होने लगा कि, जब तक उनका अपना देश नहीं होगा, वे मनमाने विरोधीवाद से सुरक्षित नहीं होंगे। इसके फलस्वरूप यहूदियों ने ज़ियोनिज़्म की अवधारणा को सुदृढ़ करने के लिए सक्रिय राजनीतिक पैंतरेबाज़ी को बढ़ावा दिया, और इन माध्यमों से यहूदी मातृभूमि के निर्माण की संभावना को जमीन पर उतारने का प्रयास शुरू किया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान ज़ायोनीवाद की अवधारणा तब अधिक लोकप्रिय हो गई, जब ब्रिटेन ने इसे आधिकारिक रूप से स्वीकार कर अपना समर्थन दे दिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर का एंग्लो-यहूदी नेता लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड को संबोधित उपरोक्त पत्र को, इस विषय में ब्रिटेन की पहली सार्वजनिक स्वीकारोक्ति माना जाता है। इस लिखित सार्वजनिक पत्र में तुर्क साम्राज्य के विघटन के बाद फिलिस्तीन के लिए ब्रिटिश जनादेश की शर्तें भी शामिल थीं।

यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस के बीच, इटली और रूसी साम्राज्य की सहमति से, तुर्क साम्राज्य के अंतिम विभाजन में प्रभाव और नियंत्रण के उनके पारस्परिक रूप से सहमत क्षेत्रों को परिभाषित करते हुए, 1916 में द साइक्स-पिकोट समझौता हुआ। इस समझौते में अरब देशों के लिए असंभव और अवास्तविक वादे किए गए, जिसका एक परिणाम बाद में इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष के रूप में भी हुआ।

इसके साथ ही इसमें अन्य शर्तें भी थीं, जैसे कि, यह नियम कि ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मन, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य जैसे युद्ध में पराजित शक्तियों को पहले नियंत्रित क्षेत्रों से स्थानांतरित और विभाजित किया जाना था। इस प्रकार जनादेश प्रणाली घोषित करने का मुख्य उद्देश्य युद्ध के विजेताओं को नए उभरते राज्यों को स्वतंत्र होने तक प्रशासन करने की अनुमति देना था।

हालांकि, इस्लामी दुनिया में इसे मित्र देशों की शक्तियों द्वारा स्थापित उस समय की तथाकथित जनादेश प्रणाली को, व्यवसाय और उपनिवेशवाद के रूप में देखा जाता है। बाल्फोर घोषणा पत्र जारी हुए लगभग 105 वर्ष बीत चुके हैं। इज़राइल के नए राज्य की घोषणा- एक घटना थी, जिसे आज भी अरबी में नकबा (आपदा तबाही) के रूप में जाना जाता है।

बाल्फोर घोषणा पत्र क्यों जारी किया गया था, यह सवाल अभी भी वैश्विक राजनीतिक बहस का विषय है। हालांकि, विश्व के राजनेता और इतिहासकार विभिन्न स्रोतों का उपयोग करके अलग-अलग कारण बताते हैं। हालांकि, मुख्य रूप से ऐसे कई कारण हैं, जिन पर आम तौर पर सहमति होती है। जैसे,

यह पहल वैश्विक राजनीति में पहली थी, जब विश्व की प्रमुख शक्तियों में से एक ने आधिकारिक तौर पर यहूदी कारणों के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया था। बाल्फोर घोषणा पत्र ने फिलिस्तीन के निर्माण को अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा इसने इरेट्ज़ इज़राइल में यहूदी उपस्थिति को बहुत बढ़ावा दिया। घोषणा के अनुसार- ब्रिटेन और उसके डोमिनियन, संवैधानिक रूप से समान थे। यद्यपि, कई इस्लामी देशों ने इसे अंग्रेजों द्वारा विश्वासघात के रूप में देखा गया था। अंत में, रिपोर्ट के निष्कर्षों को ब्रिटिश संसद द्वारा 1931 में वेस्टमिंस्टर के कानून में एक कानूनी रूप भी दे दिया गया।

दरअसल, ज़ायोनीवाद साल 1800 के दशक के अंत में एक यहूदी राष्ट्रवादी आंदोलन था, जो यहूदी लोगों की प्राचीन मातृभूमि फिलिस्तीन में एक यहूदी राष्ट्रीय राज्य के निर्माण और समर्थन पर निर्देशित था। इसकी स्थापना थियोडोर हर्ज़ल के लेखन पर हुई थी। इस प्रकार, यहूदियों और यहूदी धर्म के प्राचीन लगाव की निरंतरता को कई मायनों में फिलिस्तीन के ऐतिहासिक क्षेत्रों के रूप में देखा जाता है।

यहूदी धर्म की मान्यता के अनुसार, जहां प्राचीन यरुशलम की पहाड़ियों में से एक को सिय्योन कहा जाता था। कई स्व-घोषित ज़ायोनीवादी मौलिक सिद्धांतों और राजनीतिक विचारों के संदर्भ में एक-दूसरे से भिन्न हैं, जिसमें कुछ ज़ायोनी अनुयायी धार्मिक रूप से कट्टर हैं जबकि अन्य अधिक धर्मनिरपेक्ष हैं।

इस विवादास्पद आंदोलन ने आलोचना और कई चुनौतियों को जन्म दिया है।

हालांकि ज़ायोनीवाद ने इज़राइल में यहूदी आबादी को बढ़ाने में सफलता पाई है। चैम वीज़मैन वर्ष 1949 में इज़राइल के पहले राष्ट्रपति चुने गए, जो ज़ायोनी संगठन के अध्यक्ष थे।

इस प्रकार बाल्फोर घोषणा ने इज़राइल राज्य का निर्माण किया। क्योंकि ब्रिटिश, बाल्फोर घोषणा की शर्तों के अनुसार, एक यहूदी मातृभूमि के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध थे।

अमेरिकियों ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन किया, लेकिन कुछ बिंदुओं पर वे विरोध में थे। ब्रिटिश सरकार के कई लोगों का मानना ​​था कि बाल्फोर घोषणा एक गलती थी और इससे केवल अस्थिरता और संघर्ष ही पैदा होगा, जो अब दिख भी रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अरब देशों ने इस घोषणा का विरोध किया था, लेकिन ब्रिटेन के विजयी सहयोगियों ने इसका समर्थन किया, और तब यह आधिकारिक ब्रिटिश नीति बन गई थी। हालांकि, इसका अंतरराष्ट्रीय कानून में कोई आधार नहीं था, इसलिए यह भी तर्क दिया था कि ब्रिटेन ने अपने अरब सहयोगियों को धोखा दिया था जिन्होंने महान अरब विद्रोह (1916-1918) में भाग लिया था।

अरब देशों के अनुसार, बाल्फोर घोषणा ने न केवल अरब-इजरायल संघर्ष को जन्म दिया है बल्कि मध्य पूर्व और व्यापक दुनिया को भी अस्थिर कर दिया है। रोचक तथ्य यह भी है कि, 1939 में ग्रेट ब्रिटेन ने एक श्वेत पत्र जारी करके अपनी बाल्फोर घोषणा को वापस ले लिया, जिसमें कहा गया था कि यहूदी राज्य का निर्माण अब ब्रिटिश नीति नहीं रही। यह फिलिस्तीन के प्रति ग्रेट ब्रिटेन की नीति में भी बदलाव था, विशेष रूप से श्वेत पत्र, जिसने लाखों यूरोपीय यहूदियों को होलोकॉस्ट से पहले और उसके दौरान नाजी-कब्जे वाले यूरोप से फिलिस्तीन में जाने से रोक दिया था।

फ़िलिस्तीन ने बाल्फ़ोर घोषणा को यह कहते हुए स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि इस घोषणा के कारण कई दशकों से फ़िलिस्तीनी लोगों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

क्योंकि इस घोषणा से गैर-यहूदी समुदायों के हितों को दरकिनार कर दिया गया था। इस प्रकार, घोषणा ने न केवल फिलिस्तीन में तनाव बढ़ा दिया, और कई स्थानीय ईसाइयों और मुसलमानों ने यहूदियों का विरोध भी किया। लगभग तुरंत ही साम्प्रदायिक हिंसा के फैलने की एक श्रृंखला छिड़ गई। कई फ़िलिस्तीनी कस्बों और शहरों में यहूदी-विरोधी दंगे भड़क उठे। इसके अलावा, 1930 के मध्य में यरूशलेम में दंगों के बाद, 1936 और 1939 के बीच पूर्ण पैमाने पर अरब विद्रोह हुए।

बाल्फोर घोषणा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लिया गया एक निर्णय था और यह इस धारणा पर आधारित था कि पश्चिमी शक्तियां युद्ध जीतेंगी और ओटोमन साम्राज्य को अपनी इच्छानुसार व्यवस्थित करेंगी। इसके अलावा यह निश्चित रूप से ज़ायोनी समर्थक था, जिसे एक यहूदी मातृभूमि बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया था जिसे मध्य पूर्व में ब्रिटिश हितों को आगे बढ़ाने की उम्मीद थी और स्थानीय फिलिस्तीनियों की इच्छाओं का सम्मान करने का दावा किया था।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, भारत में जैसे मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की नीति आगे चल कर द्विराष्ट्रवाद की नीति बनी, और भारत विभाजन की पीठिका तैयार हुई, उसी प्रकार बाल्फ़ोर घोषणा एक दूसरे धर्म आधारित राष्ट्र के निर्माण की भूमिका थी।

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