डॉ. विकास मानव
असत्य और अनाचार के सामाजिक एवं शासकीय दंड से बचा जा सकता है। चतुरता के ऐसे अनेक तरीके निकाल लिए जाते हैं; जिनसे अपराधी- दुराचरण करने वाले का पता ही न चले। पता चल भी जाए तो पुलिस, कानून, अदालत को बहका देने और बच निकलने के भी हजार रास्ते बना लिए जाते हैं।
अपराधियों में से दस प्रतिशत भी नहीं पकड़े जाते, जो पकड़े जाते हैं, उनमें से दस प्रतिशत भी समुचित दंड नहीं भुगतते। जिन्हें दंड मिलता है, वे और भी अधिक ढीठ निर्लज्ज बनकर पूरी निर्भयता निश्चितता के साथ वैसे ही कुकर्म करते हैं।
ऐसा अंधेर चल पड़ने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पाप के दंड से पूर्णतया बचाव हो गया। भगवान के घर एक दिन जाना ही होगा और वहाँ न्याय की तुला पर तौला ही जाएगा। वहाँ चतुरता काम नहीं आती और कुकर्मी को कराहते हुए अपने कुकृत्यों का फल भोगना ही पड़ता है।
कुकृत्यों का लेखा-जोखा हमारा अचेतन मस्तिष्क भी नोट करता रहता है। वहाँ ऐसी स्वसंचालित प्रक्रिया स्थापित है, जो उन पाप-अंकनों के आधार पर दुःख दंड की व्यवस्थाएँ यथावत बनाती रहती हैं। शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में, स्वभाव की विकृति के कारण स्वजनों से मनोमालिन्य के रूप में, अपने ही मनोविकारों से उत्पन्न विक्षेपों के रूप में अंतः संस्थान बेतरह खिन्न उद्विग्न रहता है। बाहर के लोगों को प्रतीत भले ही न हो, पर वह स्वयं अशांत और बेचैन ही बना रहता है। नींद न आने से लेकर घबराहट भरी मनः स्थिति किसी नारकीय दंड से कम नहीं।
जेलखानों में भी उतना शारीरिक कष्ट नहीं होता, जितना मानसिक विक्षोभ से होता है। परंतु अपराधी प्रवृत्तियाँ अपने ही अचेतन मन के माध्यम से शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों से घेर देती है और कुकर्मी उस स्वसंचालित विधि-विधान के आधार पर स्वयं ही दंड का भागी बनता रहता है।
क्रोध, आवेश, चिंता, भय, हर्षातिरेक, कामोत्तेजना आदि के अवसर पर नाड़ी संस्थान उत्तेजित हो उठता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। श्वास की गति तीव्र हो जाती है। त्वचा की उष्णता में बढ़ोत्तरी होती है। यह सर्वविदित है।
ठीक इससे मिलता-जुलता एक अदृश्य आवेश उस समय होता है; जब मनुष्य छिपाने का, ठगने का, झूठ बोलने व छल करने का प्रयत्न करता है। जानकारी को- मनःस्थिति को यथावत प्रकट कर देने की प्रक्रिया सरल और सुगम है। उसमें किसी प्रकार का अतिरिक्त तनाव उत्पन्न नहीं होता। पर छिपाने में अपने सही व्यक्तित्व को दबाना पड़ता है।
वास्तविकता को छिपाकर अन्य प्रकार की स्थिति प्रकट करने पर भीतर ही अंतः संघर्ष शुरू हो जाता है। स्वाभाविकता असली रूप में प्रकट होने के लिए प्रस्तुत रहती है। पर छल या दुराव के अवसर पर उस वास्तविकता को पूरी तरह दबाना पड़ता है और एक कल्पित स्थिति गढ़कर प्रकट करनी पड़ती है। इस गढ़ंत में बहुत मानसिक शक्ति खरच होती है। उससे भी ज्यादा दबाव तब पड़ता है, जब अवास्तविकता को वास्तविकता जैसे ढंग से प्रकट करने का हाव-भाव, उच्चारण, कथन उपक्रम एवं क्रम प्रवाह, इस तरह ढालना पड़ता है कि अभिनय खरा उतरे, पकड़ में न आए।
इस सारे क्रिया-कलाप में अंतश्चेतना को एक भारी सघन आंतरिक संघर्ष में उलझना पड़ता है और इस उलझने का निश्चित रूप से चिंतन केंद्र पर भारी दबाव पड़ता है।
सच और झूठ का अंतरंग स्थिति में इतना भारी अंतर रहता है कि उसे पहचाना और पकड़ा जा सकता है। विज्ञान ने इस प्रकार के मानसिक तनाव को अंकित करने के लिए एक अति संवेदनशील यंत्र बनाया है। नाम है उसका ‘लाई डिक्टेटर’, ब्लड प्रेशर हृदयगति नापने के यंत्रों जैसा ही यह दीखता है, मस्तिष्क पर टोपी की तरह इसके बाह्य उपकरण लगा दिए जाते हैं और विचार-प्रवाह की तरंगों का अंकन उस पर आरंभ हो जाता है।
झूठ बोलने और न बोलने के बीच का अंतर इन अंकनों के आधार पर स्पष्ट अंकित होता चलता है। फलतः यह जान लिया जाता है कि उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिए वह गलत थे या सही।
अंतर्द्वंद्व और शारीरिक उत्तेजना से अथवा किसी मानसिक उत्तेजना से उत्पन्न तनाव में भौतिक अंतर रहता है। अपराधी प्रश्नोत्तर के समय अथवा इस मशीन के आतंक से घबरा भी सकता है और उसका मानसिक तनाव बढ़ सकता है, पर वह बिलकुल दूसरी तरह का होगा। झूठ जैसा अंतर्द्वंद्व उसमें नहीं होता।
इसलिए वह यंत्र शारीरिक या मानसिक तनावों को भी अंकित तो करता है, पर उनका स्वरूप झूठ वाली स्थिति से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है।
झूठ बोलने में चतुर व्यक्ति भी इस परीक्षण को झुठलाने में समर्थ नहीं हो सकता है; क्योंकि मस्तिष्क की बनावट के अनुसार सही जानकारी ही स्वाभाविक रीति से प्रकट हो सकती है। स्मृति-केंद्र यथावत स्थिति में तभी काम कर सकते हैं, जब जो कुछ जैसा है, उसी रूप में कह दिया जाए। यथार्थता को तोड़ने-मरोड़ने में मस्तिष्क को अतिरिक्त श्रम न करना पड़े, यह हो ही नहीं सकता। उपरोक्त यंत्र इतना संवेदनशील है कि उस मानसिक यथार्थता को पकड़े बिना रह ही नहीं सकता।
इस माध्यम से मिथ्या साक्षी देने वाले अथवा छल-कपट का जाल रचने वालों की कलई खुल जाना अब अधिक सरल हो सकेगा।
दूसरों को धोखा दे सकना सरल है, पर अपने आप को धोखा कैसे दिया जा सकता है? अपने को तो अपनी वास्तविकता विदित होती है। अनुचित और अवांछनीय कार्यों को छिपाना ही पड़ता है। छिपाया न जाए तो सामाजिक तिरस्कार और राज्य दंड का भागीदार बनना पड़ता है। वस्तुस्थिति से भिन्न तरह की बात प्रकट करने में दोहरा व्यक्तित्व बनता है।
एक असली एक नकली, दो आदमी एक ही शरीर, मन में घुस बैठते हैं और एक म्यान में दो तलवार दूँसने पर म्यान की जो दुर्गति होती है, वही उस कुकर्मी की भी होती है।
सच्चा व्यक्ति दुष्टता की सारी गतिविधियों को जानता है यदि उसे काम करने दिया जाए तो सही बातें ही बाहर प्रकट करेगा। पर वैसा करने से तो सारा खेल बिगड़ता है। बाहर वालों को तो ऐसी जानकारी देनी है, जिससे अपनी प्रामाणिकता और भलमनसाहत पर आँच न आती हो, उसके लिए एक झूठा आदमी अपने अंदर गढ़ना-बनाना पड़ता है। वह झूठे विवरण सोचता है और उस पर रंग चढ़ाकर सचाई की तरह प्रकट करता है।
इतना होते हुए भी अचेतन मन वस्तुस्थिति से अवगत तो रहता ही है; इस दुराव, छल, पाखंड, प्रपंच की प्रतिक्रिया से स्वयं प्रभावित होता है, वह प्रतिक्रिया जब स्वसंचालित क्रम के अनुसार बीज से अंकुर की तरह फलित होती है तो वे शारीरिक, मानसिक विक्षोभ सामने आ खड़े होते हैं, जिन्हें अनायास आगत माना जाता है।
वस्तुतः अनायास, संयोगवश, भाग्य से, ईश्वर की इच्छानुसार यहाँ कुछ भी नहीं होता। जो भी होता है, उसमें एक कर्मविधान ही जुड़ा रहता है।
छल और दुराव के साथ किए गए कुकृत्य अपने अंतःकरण को कलुषित करते हैं और उसकी प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रहती इस सचाई को वैज्ञानिक उपकरणों ने सिद्ध कर दिया है। प्रत्येक कुकर्म अपने निर्धारित विधान के अनुसार कर्ता को दंड दिए बिना नहीं छोड़ता। वह सब किस क्रिया- प्रक्रिया द्वारा संपन्न होता है, आज इतना और सिद्ध करना बाकी है।