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*ध्यान की बात : जानकर भुलाए हुए सच स्वीकार करें*

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     ~ अनामिका, प्रयागराज

आदमी बहुत सी बातें जानकर भुलाए हुए है। कुछ बातों को वह स्मरण ही नहीं करता।  वह स्मरण उसके अहंकार की सारी की सारी अकड़ खींच लेगा, बाहर कर देगा। फिर क्या है हमारा?

    छोड़ें जन्म और मृत्यु को। जीवन में ऐसा भ्रम होता है कि बहुत कुछ हमारा है, लेकिन जितना ही खोजने जाते हैं, पाया जाता है कि नहीं वह भी हमारा नहीं है।

आप कहते हैं, किसी से मेरा प्रेम हो गया, बिना यह सोचे हुए कि प्रेम आपका निर्णय है, योर डिसीजन? नहीं. लेकिन प्रेमी कहते हैं कि हमें पता ही नहीं चला, कब हो गया! इट हैपेन्ड, हो गया, हमने किया नहीं। तो जो हो गया, वह हमारा कैसे हो सकता है? नहीं होता तो नहीं होता। हो गया तो हो गया। बड़े परवश हैं, बड़ी नियति है। सब जैसे कहीं बंधा है।

     लेकिन बंधान कुछ ऐसा है कि जैसे हम एक जानवर को एक रस्सी में बांध दें, एक खूंटी में बांध दें और जानवर रस्सी की खूंटी में चारों तरफ घूमता रहे। घूमने से भ्रम पैदा हो कि मैं स्वतंत्र हूं, क्योंकि घूमता हूं।

    रस्सी को भुला दे, क्योंकि रस्सी दुखद है। वह जो खूंटी से बंधी हुई रस्सी है, वह बड़ी दुखद है, वह परतंत्रता की खबर लाती है। सच तो यह है कि वह स्वयं के न होने की खबर लाती है। परतंत्र होने योग्य भी हम नहीं हैं, स्वतंत्र होने की तो बात बहुत दूर है। परतंत्र होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए, वह भी हम नहीं हैं।

     वह जो खूंटी बंधी है, चारों तरफ घूम लेता है जानवर, चूंकि घूम लेता है, कभी बाएं चला जाता है, कभी दाएं चला जाता है, तो सोचता है, स्वतंत्र हूं। और जब स्वतंत्र हूं, तो मैं हूं। फिर धीरे-धीरे अपने को समझा लेता होगा कि खूंटी से बंधा हूं, यह भी मेरी मर्जी है। जब चाहूं तब तोड़ दूं। राजी हो गया हूं, यह भी मेरे हित के लिए है।

जीवन में हम बहुत सा भ्रम पैदा करते हैं। कहते हैं क्रोध, कहते हैं प्रेम, कहते हैं घृणा, मित्रता, शत्रुता-लेकिन कुछ भी तो हमारा निर्णय नहीं है।

    कभी आपने ऐसा क्रोध किया है, जो आपने किया हो? कभी नहीं किया। जब क्रोध होता है तब आप होते ही नहीं। कभी आपने प्रेम किया है, जो आपने किया हो? अगर आप प्रेम कर सकते तब तो किसी को भी कर सकते थे, लेकिन किसी को कर पाते हैं और किसी को नहीं कर पाते।

    किसी को कर पाते हैं, तो नहीं चाहते तो भी करते हैं। और किसी को नहीं कर पाते हैं, तो चाहें तो भी नहीं कर पाते।

जिंदगी की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं-जहां से जन्म आता है वहीं से। आप नाहक ही बीच में मालिक बन जाते हैं। और आपने क्या किया है? क्या है जो आपका किया हुआ है? भूख लगती है, नींद आती है, सुबह नींद टूट जाती है, सांझ फिर आंखें बंद होने लगती हैं।

    बचपन आता है, फिर कब चला जाता है? फिर कैसे चला जाता है? न पूछता, न विचार-विमर्श लेता, न हम कहें तो क्षणभर ठहरता। फिर जवानी चली आती है, फिर जवानी विदा हो जाती है। फिर बुढ़ापा आ जाता है। आप कहां हैं?  नहीं.

      लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि मैं जवान हूं, मैं बूढ़ा हूं। जैसे कि जवानी कुछ आप पर निर्भर हो। फिर जवानी के अपने-अपने फूल हैं। बुढ़ापे के अपने फूल हैं जो खिलते हैं। वैसे ही खिलते हैं जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं। गुलाब का पौधा नहीं कह सकता कि मैं गुलाब के फूल खिलाता हूं। क्योंकि यह तभी कह सकता था जब चमेली के खिला सकता होता। लेकिन चमेली के तो खिला नहीं पाता। चंपा के तो खिला नहीं पाता। मधुकामिनी तो नहीं लगती उस पर। गुलाब ही लगता है। फिर नाहक ही अकड़ है। गुलाब लगता है। चमेली पर चमेली लगती है।

बचपन में बचपन के फूल खिलते हैं, आप नहीं खिलाते। और अगर बचपन में निर्दोष होते हैं, तो होते हैं। कुछ गुण नहीं। कुछ गौरव नहीं। कुछ यश मत ले लेना उससे। बचपन में सरलता होती है, तो होती है।

     जवानी में अगर काम और वासना पकड़ लेती है, तो वैसे ही पकड़ लेती है जैसे बचपन में निर्दोषता पकड़ लेती है। न उसके आप मालिक होते हैं, न जवानी में कामवासना के आप मालिक होते हैं। और अगर बुढ़ापे में मन ब्रह्मचर्य की तरफ झुकने लगता है, तो कुछ अपना गौरव मत समझ लेना।

      वैसे ही, ठीक वैसे ही, जैसे जवानी में काम पकड़ लेता है, बुढ़ापे में काम से विरक्ति पकड़ लेती है। और जिसको नहीं पकड़ती है, उसका भी कुछ वश नहीं है। और जिसको पकड़ लेती है, वह भी नाहक का गौरव न ले।

मैं को खड़े होने की जगह नहीं है। अगर जीवन को एक-एक कण-कण सोचेंगे, तो पाएंगे, मैं को खड़े होने की जगह नहीं है। लेकिन भ्रम पैदा हम क्यों कर लेते हैं? कैसे यह इलूजन पैदा होता है? यह डिसेप्शन, यह प्रवंचना आती कहां से है? 

     यह आती इसलिए है कि हमें पूरे वक्त ऐसा लगता है कि विकल्प हैं, आल्टरनेटिव हैं। जैसे आपने मुझे गाली दी, तो मेरे सामने दो विकल्प हैं कि चाहूं तो मैं गाली का जवाब दूं और चाहूं तो न दूं-ऐसा मुझे लगता है, है नहीं। ऐसा मुझे लगता है कि चाहूं तो जवाब दूं और चाहूं तो जवाब न दूं! लेकिन क्या सच में ही विकल्प होते हैं? क्या जो आदमी गाली के उत्तर में गाली देता है, वह चाहता तो न देता? आप कहेंगे कि चाहता तो नहीं दे सकता था।

     लेकिन थोड़ा और गहरे जाना पड़ेगा। वह चाह भी आप में होती है कि आप ले आते हैं? गाली देने की चाह, या न देने की चाह, वह भी आपके वश में है?

    नहीं, जो बहुत गहरे खोजते हैं, वे कहते हैं कि कहीं तो हमें पता चलता है कि चीजें हमारे वश के बाहर हो जाती हैं। एक आदमी को खयाल आता है कि गाली दूं, गाली देता है। एक आदमी को खयाल आता है, नहीं दूं, नहीं देता है।

     लेकिन यह खयाल कि दूं या नहीं दूं, यह खयाल कहां से आता है? यह खयाल आपका है? यह वहीं से आता है, जहां से जन्म। यह वहीं से आता है, जहां से प्रेम। यह वहीं से आता है, जहां से प्राण। यह वहीं खो जाता है, जहां मौत। यह वहीं लीन हो जाता है, जहां जाती हुई श्वास।

    धोखा देने की सुविधा हो जाती है कि मेरे हाथ में है। चाहता तो गाली न देता। लेकिन किसने कहा था कि आप दें? नहीं.

   आप कहेंगे, बुद्ध हैं, महावीर हैं, राधा, मीरा, राबिया जैसे किरदार हैं : वे गाली नहीं देते। क्या आप समझते हैं कि वे चाहें तो गाली दे सकते हैं? नहीं.

     जैसे आप गाली देने में बंधा हुआ अनुभव करते हैं, उससे कम बंधा हुआ बुद्ध और महावीर जैसे लोग अनुभव नहीं करते हैं न गाली देने में। चाहें तो भी दे नहीं सकते। नहीं, वह चाह पैदा ही नहीं होती।

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