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नरोदा :आरोपियों का बरी होना जांच पर सवाल

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वर्ष 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद के नरोदा गाम इलाके में हुए दंगों से जुड़े तमाम सवाल दो दशक के बाद भी अनुत्तरित ही हैं। इस रक्तरंजित हत्याकांड में ग्यारह लोगों की मौत हुई थी। हाल ही में अहमदाबाद की विशेष अदालत ने सभी शेष 67 आरोपियों को बरी कर दिया। इस दंगे के मामले में सवालों के घेरे में गुजरात की पूर्व मंत्री माया कोडनानी व बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी भी शामिल रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इस मामले में कुल 86 आरोपियों में से 18 की मुकदमे के दौरान ही मौत हो गई थी। निश्चित रूप से यह फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि इस मामले में जांच का स्तर नीचा रहा, आधी-अधूरी चार्जशीट दाखिल की गई और कमजोर तर्कों से केस आगे बढ़ाया गया। निस्संदेह इन आरोपियों को अपर्याप्त साक्ष्य के चलते अदालत ने आरोप मुक्त किया है। उल्लेखनीय है कि नरोदा गाम संहार वर्ष 2002 के नौ प्रमुख सांप्रदायिक दंगों में से एक था। जिसकी जांच सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एक एसआईटी ने की थी। कालांतर इस मामले की सुनवाई एक विशेष अदालत ने की थी। दरअसल, 27 फरवरी, 2002 को गोधरा में ट्रेन में आगजनी हुई थी। उसके उपरांत पूरे राज्य में दंगे भड़क उठे थे। वास्तव में ट्रेन में जलकर मरने वालों में 58 यात्री थे, जिनमें अधिकांश अयोध्या से लौट रहे तीर्थयात्री थे।

उल्लेखनीय है कि इसी साल जनवरी में भी गुजरात की एक अदालत ने सभी 22 अभियुक्तों को बरी कर दिया था। दरअसल, सुनवाई के दौरान आठ आरोपियों की मौत हो गई थी। यहां भी सबूतों के अभाव में आरोपियों के बरी होने की बात कही गई। कहा जाता है कि वर्ष 2002 में हुए दंगों को स्वतंत्र भारत में हुए सबसे भीषण दंगों के रूप में देखा जाता है। लेकिन हाल के फैसलों में अभियुक्तों का बरी होना दशकों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे लोगों के लिये झटका जैसा ही रहा। पीड़ित पक्ष के लोग आरोपियों को दी गई राहत पर सवाल उठाते रहे हैं। इससे पहले भी नरोदा पाटिया दंगे मामलों में गुजरात सरकार की पूर्व मंत्री माया कोडनानी को बड़ी सजा सुनाई गई थी। कालांतर गुजरात उच्च न्यायालय से उन्हें राहत मिल गयी थी। वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में बिलकिस बानो केस में जेल में सजा काट रहे अभियुक्तों की जल्दी रिहाई को लेकर भी आक्रोश देखा गया। पीड़ित पक्ष के लोग न्याय की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। विडंबना ही है कि हमेशा से ही सांप्रदायिक दंगों में ऐसे लोगों को सब कुछ गंवाना पड़ता है, जिनका ऐसे मामलों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं होता। इस अन्याय से मुक्ति की आस में वे न्याय व्यवस्था की ओर उम्मीद से देखते हैं। लेकिन जब उन्हें वहां से भी न्याय नहीं मिलता तो निश्चित रूप से दुख व आक्रोश उन्हें निराशा व अवसाद के दलदल में धकेल देता है। नीति-नियंताओं को जनाक्रोश को देखते हुए न्याय के तकाजे को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।

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