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90 फीसदी बड़े मीडिया समूह पर अडानी अंबानी और कॉर्पोरेट का कब्जा

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रामस्वरूप मंत्री

शने: शने: देश के सारे बड़े मीडिया घरानों पर कॉर्पोरेट  या बड़े पूंजी पतियों का कब्जा होता जा रहा है जो अत्यंत चिंताजनक है। मेरा ऐसा मानना है कि मोदी या बीजेपी से छुटकारा पाना ज्यादा आसान है बजाए अडानी या अंबानी जैसे पूंजी पत्तियों का मीडिया पर हो रहे कब्जे से छुटकारा पाने से ।राजनीति के माध्यम से सत्ता पर कब्जा तो वोट की ताकत से हटाया जा सकता है लेकिन मीडिया पर कॉर्पोरेट के कब्जे को कोशिश करने पर भी हटाना मुश्किल है ।इसका कारण यह है कि

राजनीति की तुलना में मीडिया में मालिकाना का पैटर्न लंबे समय तक कायम रहता है. हिंदुस्तान टाइम्स समूह में बिरला का मालिकाना 90 साल से ऊपर तक कायम रहा है. इन 90 सालों में अंग्रेज भारत से चले गए, कांग्रेस कमजोर हुई और भारतीय जनता पार्टी का उत्थान हुआ. अतः मेरी ऐसी मान्यता है कि मोदी या बीजेपी का देश पर जो नियंत्रण है उससे छुटकारा पाना अडानी या किसी अंबानी का हमारी सूचना पर हो रहे कब्जे से छुटकारा पाने से ज्यादा सरल होगा.

आज देश के 90 फीसदी बड़े मीडिया समूह पर अडानी अंबानी और उनके जैसे पूंजीपतियों का कब्जा हो गया है। वैकल्पिक मीडिया की राह आसान नहीं बची है ।सरकारी विज्ञापनों पर इन बड़े मीडिया घरानों  का ही कब्जा है ऐसे में माना जाना चाहिए कि मीडिया पर एक बड़े संकट की चेतावनी कॉर्पोरेट का मीडिया घरानों की तरफ मुड़ना भी है । 2014 के बाद से चाहे न्यूज़ चैनल हो चाहे बड़े समाचार पत्र सभी  पर अडानी अंबानी जैसे उद्योगपतियों की नजर है ।

एनडीटीवी कुछ वर्षों पूर्व तक एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चैनल माना जाता था और लोगों का उस पर भरोसा भी था ,लेकिन इसका अधिग्रहण सत्ता के सहयोग से अदानी ने कर लिया । अधिग्रहण होते ही रवीश कुमार सहित उन तमाम पत्रकारों को एनडीटीवी से विदाई लेना पड़ी है जो देश में निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता के झंडा बरदार समझ जाते थे। इसी के साथ ऐसी कुछ समाचार एजेंसिंयों पर भी अदानी का कब्जा हो गया है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार प्रसारित करने के लिए जानी जाती थी ।तो एक-एक करके बड़े पूंजी पतियों के कब्जे में मीडिया घरानों के जाने से स्वास्थ्य निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता पर भी संकट आया है ।आज पत्रकार की लेखनी में वह दम नहीं बचा जो कभी महात्मा गांधी ,गणेश शंकर विद्यार्थी ,मामा बालेश्वर दयाल और कन्हैया लाल  वैद्ध जी जैसे पत्रकारों में रहा होगा ।आज अपनी नौकरी बचाने के लिए पत्रकार को मीडिया घराने के मालिक की बात मानना पड़ती है। एक तरह से कहा जाए तो लिखता भले ही पत्रकार है लेकिन उसके पेन की स्याही मालिक की होती है और मालिक जो चाहता है वही उसे लिखना पड़ता है इस तरह से माना जाए तो पत्रकारिता आज गुलामी की ओर बढ़ रही है ।

पत्रकारिता का मतलब है समाचार इकट्ठा करने और विश्लेषण करने वाली गतिविधियां. इसके साथ कुछ जरूरी मान्यताएं और मूल्य जुड़े होते हैं. भारतीय मीडिया संस्थानों में आजकल ये मूल्य बहुत सीमित रूप से पालन किए जाते हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ये मूल्य अस्तित्व में नहीं हैं या इनकी जरूरत नहीं है. पत्रकारिता के विपरीत मीडिया एक मूल्य तटस्थ  शब्द है जो सिर्फ सूचना के कंटेंट और माध्यम तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें इनको चलाने वाली उपसंरचनाएं भी शामिल हैं. मीडिया एक विशेष शब्द है जिसमें समाचार पत्र, टेलीविजन चैनल, बॉलीवुड स्टूडियो, नेटवर्क प्रदाता, मनोरंजन, स्ट्रीमिंग शो और आईपीएल मैच आते हैं. सच है कि मीडिया का अर्थ एक इतनी बड़ी इंडस्ट्री है जिसने पत्रकारिता के विचार को ही डुबो दिया है जबकि इस शब्द को अक्सर पत्रकारिता के पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

इस बीच बड़े परिदृश्य में उन मूल्यों को देखने की जरूरत है जिनके बीच पत्रकारों का काम शुरू से ही पर्याप्त पहचान नहीं पा सका. शुरुआती दिनों में बिरला, जैन, गोयनका जैसे  उद्योगपतियों की मिल्कियत वाले प्राइवेट मीडिया की भूमिका पर संवैधानिक पड़ताल नहीं हुई. आज इस पर अंबानी और अडानी का कब्जा तेजी से होता जा रहा है. आज यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि किस तरह मीडिया को व्यवस्थित किया जाना चाहिए इस बारे में ठीक उसी तरह सोचा जाना चाहिए था जैसे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यकारी के बारे में सोचा जाता है.

उद्योगपतियों के हाथों में मीडिया का संकेंद्रीकरण न केवल विचारों की विविधता पर अंकुश लगाता है बल्कि यह मीडिया की प्राथमिकता भी तय कर देता है जिसमें उद्योगपतियों के आर्थिक हितों की सुरक्षा सुनिश्चित होना जरूरी हो जाता है. वास्तव में मीडिया का काम उसके अपने घाटे या फायदे तक सीमित नहीं रह जाता बल्कि उसे मालिक के अन्य कारोबारों में फायदे और घाटे के बारे में सजग रहना पड़ता है. एक ऐसे देश में जहां उदारीकरण के बाद भी सरकार के हाथों में उद्योगपतियों का भविष्य जकड़ा हुआ है. ऐसी स्थिति में ऐसा मीडिया संस्थान जो सरकार की आलोचना करे उसके ऊपर उसके अन्य कारोबारी हितों में सरकार के हस्तक्षेप का खतरा, कानून ला कर, हमेशा मंडराता रहेगा.

यथार्थ यह है कि भारत में पत्रकारिता का तथाकथित स्वर्णिम युग कभी था ही नहीं. सत्ता और मीडिया के दोस्ताना संबंध का लंबा इतिहास रहा है और सरकार की आलोचना अक्सर मीडिया मालिक के सरकार के साथ बनते-बिगड़ते संबंधों से निर्धारित होती रही. सरकारी मीडिया और यथास्थितिवादी निजी प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता में एकरूपता बनी रही. हां अगर ऐसा लगता रहा कि देश में स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व है तो वह सिर्फ इसलिए कि पिछली सरकारों ने भारतीय मीडिया की उन ढांचागत कमजोरियों का लाभ मोदी की तरह नहीं उठाया.

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