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अधर्म का नाश हो* (पार्ट-7)

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संजय कनौजिया की कलम”✍️

समाजवादी नेता डॉ० राममनोहर लोहिया अमीरी-गरीबी और जाति के सवाल को बड़े पैमाने पर उठा रहे थे, वह चाहते थे कि डॉ० अंबेडकर और उनके शेड्यूल कास्ट फेडरेशन से सहयोग व संवाद बनाया जाए.. दुर्भाग्यवश, इससे पहले कि उन दोनों की योजना मूर्त रूप ले पाती, डॉ० अंबेडकर का परिनिर्वाण हो गया..”राममनोहर लोहिया रचनावली-3” पेज-224-225 के अनुसार, अंबेडकर-लोहिया के प्रसंग की चर्चा इस पुस्तक में तो है ही..डॉ० लोहिया के पत्र से भी इस प्रसंग का पता चलता है

..1, जुलाई-1957 को मधु लिमय को लिखे एक पत्र में लोहिया, अंबेडकर की मृत्यु पर गहरी वेदना व्यक्त करते हुए और उनका महत्व ऊँचे शब्दों में स्वीकार करते हैं..लोहिया ने लिखा “मेरे लिए डॉ० अंबेडकर भारतीय राजनीति के बहुत बड़े आदमी थे और गांधी को छोड़कर, उतने महान जितना कोई सक्षम सवर्ण हिन्दू हो सकता है..इस तथ्य से मुझे हमेशा ही सांत्वना और विश्वास मिला कि जाति व्यवस्था को एक दिन खत्म किया जा सकता है..पत्र में इसके आगे डॉ० लोहिया ने जगजीवन राम और अंबेडकर की तुलना की है और अंबेडकर को विद्वान, दृढ चरित्र वाला, साहसी एवं स्वतंत्र विचारों वाला बताया है..एक ऐसा व्यक्ति जिसे बाहर की दुनिया के सामने स्वाभिमानी भारत के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है..इसके साथ डॉ० लोहिया ने यह भी लिखा “किन्तु वे कटु और एकात्मिक प्रवर्ति के थे और उन्होंने गैर हरिजनों के नेता बनने से इंकार किया”..में पिछले 5000 सालों की उनकी पीड़ा और हरिजनों पर उनके प्रभाव की कल्पना कर सकता हूँ..!

दिनांक-5-जून, 2020 को, शून्यकाल डॉट कॉम पोर्टल में लिखे एक लेख के लेखक, “गोपेश्वर सिंह” ने दर्शाया कि लोहिया को उम्मीद थी कि एक दिन आएगा जब अंबेडकर जैसा महान नेता भारत की इस स्थिति से ऊपर उठेगा और सम्पूर्ण राष्ट्र का नेतृत्व करेगा..”किन्तु मृत्यु जल्दी आ गई”..पत्र के अंत में अंबेडकर के अनुसूचित जातियों के अनुयायिओं को ध्यान में रखते हुए डॉ० लोहिया लिखते हैं..में चाहता हूँ कि भारत की अनुसूचित जातियों को पिछले 40 वर्षों की भारतीय राजनीति तर्कपूर्ण मुल्यांकन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए..में जानता हूँ कि ये जातियां, डॉ० अंबेडकर को अपनी श्रद्धा और अनुकरण का प्रतीक बनाये रहेंगी, उनकी स्वतंत्रता के साथ “किन्तु कटुता के बिना”..उस अंबेडकर को जो केवल हरिजनों का ही नहीं सम्पूर्ण भारत का नेता बन सकता था..”अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि डॉ० अंबेडकर की मृत्यु से भारतीय राजनीति की एक बड़ी संभावना खत्म हो गई..!
सेंटर ऑफ़ स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़ में, एसोसिएट प्रोफ़ेसर और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय तथा लंदन विश्विद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज से शिक्षा प्राप्त, “डॉ० प्रथमा बैनर्जी” ने फारवर्ड प्रेस डॉट कॉम में, दिनांक-13, मई -2017 के लिखे, लेख के अनुसार..धर्म के प्रश्न पर अंबेडकर का पुनर्विचार एक बहुत विस्तृत विषय है..अंबेडकर, धर्म के कटु आलोचक तो थे ही, इसके साथ-साथ उनको धर्म की गहरी समझ भी थी, यह अनूठा था, क्योकिं उनके समय में सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोग या तो धर्म को बांटने वाला और अतार्किक कहकर उसकी आलोचना करते थे या गांधी की तरह यह मानते थे कि सभी धर्म सच्चे और हमारे सम्मान के पात्र है..आधुनिक भारत में सर्वधर्म- सम्भाव की परिकल्पना, अथार्त राज्य द्वारा सभी धर्मों को एक दृष्टि से देखना, धर्मनिरपेक्ष की कसौटी बन गई थी..यह कसौटी इसी विचार पर आधारित है कि सभी धर्म मूलतः अच्छे हैं..अंबेडकर जहाँ यह मानते थे कि धर्म जीवन के लिए अपरिहार्य है और सार्वजनिक जीवन में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है, वहीँ वह इस बात से सहमत नहीं थे कि सभी धर्म अच्छे हैं..उन्होंने जब हिन्दू धर्म को असमानता का धर्म बताया क्योकिं वह जाति को पवित्र दर्ज़ा देता है..या जब वो बौद्ध बने, तब दरअसल जो वह कह रहे थे, वह यह था कि धर्म की आलोचना की जा सकती है और की जानी चाहिए

..डॉ० अंबेडकर धर्म को ख़ारिज नहीं कर रहे थे, वह एक ज्यादा न्यायपूर्ण और सच्चे धर्म की ओर
बढ़ रहे थे और यह सब उन्होंने लाहौर के जातपात तोड़ो मंडल जैसे अपने अनुयायियों को अपने से दूर करने का ख़तरा मोल लेकर भी किया..जातपात तोड़क मंडल ने उन्हें “एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट” पर उनका भाषण नहीं पढ़ने दिया था..यही कारण है कि अंबेडकर के काल में धर्म की आलोचना करना बहुत कठिन बन गया था..वह इसलिए भी क्योकिं धर्म की आलोचना को राष्ट्रीय संस्कृति की आलोचना के रूप में देखा जाता था..जब जब डॉ० अंबेडकर ने हिन्दू धर्म की आलोचना की तो उससे उनके कई समकालीनों को धक्का लगा..इनमे गांधी शामिल थे, इन लोगों की यह मान्यता थी कि धर्म की आलोचना, दरअसल भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना है..परन्तु डॉ० अंबेडकर अपनी बात से डिगे नहीं..उन्होंने खुलकर कहा कि ऐसा राष्ट्रवाद जो देश के नागरिकों के एक बड़े तबके (अथार्त अछूतों) को अलग-थलग रखता है और उन्हें प्रताड़ित करता है वह राष्ट्रवाद कहलाने लायक नहीं है..रवीन्द्रनाथ टैगौर के अतिरिक्त, डॉ० अंबेडकर उन चंद साहसी लोगों में से थे जिन्होंने उस काल के राष्ट्रवाद की समालोचना की..जब भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन अपने चरम पर था…
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)

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