डॉ. प्रिया मानवी
भौतिक दृष्टि से वैज्ञानिकों का यह दावा है कि जीवों के जन्म के पूर्व सृष्टि क्रमशः ऐसे विकासोन्मुखी देखी जाती है जिससे कि यह जीव के रहने के योग्य बन जाए।
अध्यात्म जगत् मे हम जिस परिकल्पना का विचार करते हैं : तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोsसृजत. (छा०/६/२/३).
यानी उस,,सत्,,ने बहुत होने की इच्छा से सर्वप्रथम तेज को बनाया। पाश्चात्य दर्शन कहता है कि हमारा भूमण्डल पहले एक आग का गोला था, इस गर्म तपती आग के गोले मे जीवन का अस्तित्व संभव हो नही सकता है तो कयी वर्षों तक वर्षा होने से जब यह भूमण्डल अनेक स्थानों पर सिकुड़ गया तो हमारी पृथिवी अस्तित्व मे आई।
कही विशाल गड्ढ़े किसी ऊँचे पर्वत कही समतल क्षेत्र तो अब पानी नीचे की ओर जाने से बड़ी-बड़ी नदियाँ और इस जल के ठहर जाने से महासागर बन गये।
अध्यात्मवादियों का यह मत कि, “ता आप ऐक्षन्त बह्वय:” (छा०/६/२/४).
यानी प्रकृति जो यहाँ जलवाची है इच्छा करती है कि हम जल बनकर बरसें। क्यों बरसें कि यहाँ जीवजगत का सृजन करना है। तार्किक दृष्टि से चिन्तन करने पर समझ मे आता है कि न यहाँ न कोई जल ईक्षण करता न तेज। क्योंकि जड़ पदार्थों मे ईक्षणशक्ति नही होती, इसलिए यहाँ लक्षणा है जिससे यह ज्ञान हुआ कि सृष्टि का निर्माण कैसे और क्यों हुआ।
यही प्रयोजन है जिसे प्राचीन और आधुनिक विज्ञान एक होकर मनुष्य की ज्ञान-पीपासा को शांत करने के प्रयास मे है।
(आपः) यानी जल के लाखों वर्षों तक बरसते रहने से पृथिवी पर सर्वप्रक्षम,ऊद्भिज जीवों की उत्त्पत्ति हुई ऐसे अध्ययनों से पता चला है कि उद्भिज्ज यानी धरती को फाड़कर अपने आप पैदा होने की प्रक्रिया (छा०/६/३/१) से पेड़-पौधे पैदा हुए, उनमे आण्डज (छा० तथैव) यानी सूक्ष्म अण्डे से जीव पैदा होने लगे, क्योंकि अब उनके अस्तित्व रक्षा के लिए भोजन और पानी की व्यवस्था हो चुकी थी। यही सृष्टि के पैदा होने का प्रयोजन है।
पृथिवी के वाह्य सतह पर एक ओर जीवों का शनैः-शनैः विकास हो रहा था तो गर्भ मे एक प्रतिक्रिया हो रही थी। वहाँ चट्टानों का विकास हो रहा था. मृतिका जो अविनाशी बीज था वहाँ अंदर ही अंदर कोयला, हीरा, सोना, अभ्रक, ताबाँ, चाँदी आदि बना रहा था, क्योंकि आगे चलकर मनुष्य को इनकी भी आवश्यकता पड़ेगी.
यह उस सत् (तेज)-(विज्ञाता) को पहले से ज्ञात था कि मनुष्य को औषधियो की भी आवश्यकता होगी, सो इस विकास के क्रम मे (तैत्तीरियोपनिषद्/२/१) अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योsन्नम्। अन्नात्पुरुषः,,अर्थात् जल से पृथिवी, पृथिवी पर ओषधि (वृक्षलतादि) ओषधि से अन्न (अन्न से आशय यहाँ आहार है) और अन्न से मनुष्य बना।
क्या यह प्रयोजन नही है और पाश्चात्य जगत् ने ऐसा क्या नया खोज लिया जो हमारे पास नही था। लेकिन उन्होने एक Systematic व्याख्या शुरू किया और हमे मंदिर बनाने और राम-राम जपने मे लगा दिया।
आज अध्यात्म का विषय हमारे लिए उपेक्षित क्योंकि हम आ गये पुराणों की कल्पित कथा की दुनिया मे, और दुनिया अंतरिक्ष मे रूसी शिमला मिर्च पैदा कर रही है,कल बस्तियाँ बसेंगी, खेती होगी और हमारी पीढ़ियाँ हमपर थूकेंगी।
(शेष अगली बार)d