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आखिर पास मुहैया कराने वाले बीजेपी सांसद प्रताप सिम्हा की जांच क्यों नहीं हो रही?

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अखिलेश अखिल 

अगर वाकई में इस देश में डेमोक्रेसी है तो जनता की आवाज को क्यों नहीं सुनी जा रही है? जनता तो यही कह रही है कि संसद की सुरक्षा की सेंधमारी में जिन 6 लोगों की अभी तक गिरफ्तारी हुई है उसको सरकार चाहे जो भी सजा दे लेकिन जिस सांसद ने इन युवाओं को संसद के दर्शक दीर्घा का पास मुहैया कराया था आखिर उसकी जांच क्यों नहीं की जा रही है?

उस सांसद का नाम प्रताप सिम्हा है। दक्षिण भारत से आते हैं और बीजेपी के ख़ास सांसद है। इसी सांसद महोदय ने दो युवाओं के लिए पास मुहैया कराये थे। बड़ी बात तो यह है कि सांसद महोदय ने खुद ही इस बात को स्वीकार किया है कि वे उस युवक के परिवार को जानते हैं। युवक के पिता के साथ उनके सरोकार भी रहे हैं। लेकिन बीजेपी की केंद्र सरकार उस सांसद के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं कर सकी है। संभव है आगे भी कुछ नहीं होगा।

इसका मतलब ये है कि जनता की आवाज को सरकार नहीं सुन रही है। कर्नाटक की कांग्रेस इकाई लगातार उस सांसद से पूछताछ की मांग कर रही है। कर्नाटक के कांग्रेस नेता यह भी कह रहे हैं कि जो युवक पकड़ा गया है वह बीजेपी आईटी सेल में काम कर चुका है और इसके सबूत भी उसके पास हैं लेकिन सरकार इस पर न तो कोई प्रतिक्रिया दे रही है और न ही प्रताप सिम्हा से कोई ख़ास जानकारी ही इकठ्ठा कर रही है। आखिर क्यों?

क्या बीजेपी के लोग गलत नहीं हो सकते? क्या बीजेपी के सांसद और विधायक कोई गलत आदमी को पास नहीं दे सकते? क्या बीजेपी के सांसद का इरादा गलत नहीं हो सकता? ऐसे बहुतेरे सवाल पैदा हो सकते हैं।

जिन 6 युवाओं की अब तक गिरफ्तारी हुई है या यह कहिये जिन युवाओं ने अभी तक सरेंडर किया है, उसके बारे में जांच दलों को यह तो पता चल गया होगा कि शायद वे सब आतंकी नहीं हैं। उनका इरादा भले ही जो भी हो लेकिन उनका रिकॉर्ड खराब नहीं है। वे सब पढ़े लिखे हैं और डिग्रीधारी हैं। देश और समाज के साथ ही कानून की जानकारी भी रखते ही होंगे।

वे यह भी जानते हैं कि उन्होंने जो भी किया है उसका बड़ा दंड उन्हें मिल सकता है। बड़ी बात ये भी है कि ये सब किसी एक जगह के नहीं है। पांच से छह राज्यों के ये युवा हैं। वे क्या चाहते थे, जांच एजेंसियां सब उगलवा लेंगी। दंड भी देंगी लेकिन उस संसद महोदय का क्या होगा जिन्होंने पास मुहैया कराया था? क्या उनकी कोई गलती नहीं है?

अभी हाल में ही टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से बर्खास्त किया गया। महुआ पर इल्जाम है कि उन्होंने एक कारोबारी से पैसे लेकर संसद में दर्जनों सवाल उसके हित के लिए पूछे थे। महुआ पर घूस लेने का इल्जाम भी है। महुआ चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि उसने सवाल जरूर पूछे, अपना आईडी पासवर्ड भी जरूर शेयर किया लेकिन घूस नहीं लिया। लेकिन क्या सरकार और संसदीय कमेटी ने उसकी आवाज पर भरोसा किया? नहीं किया।

बड़ी बात तो यह है कि महुआ पर जो इल्जाम लगे है उसके खिलाफ कोई भी सबूत पेश नहीं किये गए। कारोबारी ने कहा और महुआ के एक खास मित्र ने इसकी शिकायत की और महुआ दोषी करार दे दी गईं। संसद से बर्खास्त हो गईं। क्या लोकतंत्र में किसी को अपनी बात रखने की भी मनाही है? और है तो फिर इसे लोकतंत्र कैसे कहा जा सकता है?

बीजेपी के जिस निशिकांत दुबे ने इस मामले की शिकायत लोकसभा स्पीकर के पास की थी और महुआ के खिलाफ एक्शन लेने की मांग की थी, क्या उसी निशिकांत दुबे पर आज तक कोई कार्रवाई या फिर कोई जांच बैठाई गई? नहीं ना! निशिकांत दुबे पर भी तो नकली सर्टिफिकेट रखने के आरोभप भी उसी संसद में लगे थे। महुआ ने ही तो दुबे पर आरोप लगाया था और प्रमाण भी पेश किया था। संसद में इसकी जांच की बात हुई थी। लेकिन यह सब हुआ?

इसी संसद में बसपा के सांसद दानिश अली के खिलाफ भरी सभा में बीजेपी के सांसद गाली गलौज करते रहे। क्या-क्या नहीं कहा गया। बाकी सांसद मुस्कुराते रहे। हंगामा हुआ तो उस बीजेपी सांसद के खिलाफ भी जांच की बात की गई। क्या अभी तक कुछ हुआ? भरी सभा में किसी को जातिगत और धर्मगत शब्दों से अपमानित करना क्या इस देश की परंपरा है और क्या संसद की यही गरिमा है? इसे तो इतिहास भी नहीं भुला सकता।

बीजेपी के ही एक सांसद पर देश की नामी खिलाड़ियों ने यौन शोषण के आरोप लगाये। महीनों तक दिल्ली से लेकर देश और दुनिया के लोगों ने वह सब देखा। क्या उस बीजेपी सांसद पर कोई एक्शन हुआ? और नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ? अभी साल भर पहले की बात है।

गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे ने कई किसानों पर गाड़ियां चढ़ा दी थी। टेनी खुद भी कई बार गलत सलत बोलते रहे। विपक्ष ने उसको मंत्रिमंडल से हटाने की मांग की। लेकिन क्या टेनी हटाए गए? ऐसे में साफ़ है कि बीजेपी को लगता है कि उसके लोग कभी गलत करते ही नहीं। और गलत करते भी है तो उन्हें दण्डित नहीं करना है। फिर लोकतंत्र की कहानी गढ़ने से क्या लाभ? ऐसे में तो लगता है कि यह लोकतंत्र रहे या न रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। जब जनता की मांग ही सरकार न सुने तो फिर लोकतंत्र की बात बेमानी ही तो है।

मजे की बात तो यह है कि इसी संसद में जब विपक्ष के नेता सुरक्षा में सेंध के मामले में प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह से बयान देने की मांग करते हैं तो उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। 14 सांसदों को सिर्फ इसलिए सस्पेंड कर दिया गया कि हंगामे के साथ प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का बयान सदन में चाह रहे थे।

बयान तो नहीं आया लेकिन सांसद लोग सस्पेंड हो गए। तो क्या संसद में सवाल करना भी जुर्म है? हो सकता है सवाल करने और पूछने की अपनी मर्यादा भी है और संसदीय परंपरा भी लेकिन यह भी सच है कि दमन की आवाज तेज ही तो होती है। 

संसद में सुरक्षा की चौकसी कितनी है यह भी अब खुलासा हो ही गया। पकड़े गए युवाओं के साथ क्या होगा यह तो कोई नहीं जानता। उनपर कार्रवाई जरूर होनी चाहिए क्योंकि उन्होंने देश के साथ एक बड़ा भद्दा खेल किया है। लेकिन क्या उन पर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए जिन्होंने इन युवाओं को संसद तक पहुंचाने का काम किया था? कम से कम जांच और पूछताछ तो होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो देश और लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास कमजोर ही तो होगा।

अभी जानकारी मिल रही है कि लोकसभा के स्पीकर ओम बिड़ला ने सांसदों के नाम एक पत्र लिखकर कहा है कि संसद की सुरक्षा में हुई चूक की जांच एक उच्च स्तरीय कमेटी द्वारा कराई जाएगी। यह अच्छी बात हो सकती है। इसकी बेहतर जांच होनी ही चाहिए ताकि लोकतंत्र के इस मंदिर को अक्षुण्ण रखा जा सके।

लेकिन फिर सवाल वही है कि जब संसद के परिसर में या बहार सबको एक ही अधिकार और कर्तव्य का पालन करना है तो बीजेपी के सांसदों से पूछताछ क्यों नहीं? देश की जनता क्या चाहती है यह सरकार न समझ सकती है और न ही समझने की कोशिश करती है।

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