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मरने के बाद 

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          पुष्पा गुप्ता 

आज दोपहर एक अजीब सपना देखा
जैसा पहले कभी नहीं देखा।
देखा कि मरी पड़ी हूँ बिस्तर पर
और आसपास बैठे लोग चाय पीते
चेहरों पर मातम और सरोकार लिए हुए
अंतिम संस्कार की तैयारियों पर
गुफ़्तगू में मशग़ूल हैं।
जाहिर है कि कोई भी धार्मिक रवायत का
हामी नहीं था वहाँ।
ज़ेरेबहस मसअला यह था कि
किसी मेडिकल कॉलेज को दे दिया जाये
पार्थिव शरीर
या विद्युतशवदाहगृह ले जाया जाये।
ताज्जुब की बात यह थी कि
मैं भी शामिल थी इस बहस में
जो दूर पहाड़ों में कहीं किसी बर्फ़ानी दरिया के पास
दफ़ना दिया जाना चाहती थी
तक़ल्लुफ़-बरतरफ़,
बिना किसी शोरगुल के।
और शोकसभा जैसी कोई रस्मी चीज़ तो क़तई नहीं।

लेकिन सपने में भी जो सवाल मेरे दिलो-दिमाग़ को लगातार
मथ रहा था वह यह कि जब मैं मर चुकी हूँ
तो फिर भला कैसे इस बातचीत में शामिल हूँ!
सपने का यह अंतरविरोध अजीबोग़रीब था।
सपने में मुझे अपने मरने का पता था
और इस बात पर बेहद हैरानी भी थी कि
मरकर भी मैं ख़ुद ही अपने अंतिम संस्कार के
इन्तज़ामात की बातों और बहसों में
भला कैसे शामिल हूँ!
फिर सपने में ही मैं यह सोचकर मन ही मन
हँस भी रही थी कि
मरने के बाद जब कुछ भी बचा नहीं रह जाता
तो फिर लोग क्या-क्या और कैसे-कैसे करेंगे,
इसको लेकर इतनी फ़िक्रमंद भला क्यों हूँ मैं!

इल्म-ए-नफ़सियात से तो वाक़िफ़ नहीं मैं,
मगर जागकर सोचा तो अपने तईं
बस इतनी सी बात समझ आई कि
ज़िन्दा रहते जिन्हें बहुत ज़ियादा ज़िन्दा
रहने की आदत सी पड़ जाती है
वो अपने सपनों में कई बार
मरने के बाद भी ज़िन्दा महसूस करते हैं
और अपने बाद के वक़्तों और लोगों और
छूटे हुए कामों के बारे में ही नहीं,
बेहद छोटी-छोटी चीज़ों के बारे में भी
फ़िक्रमंद रहा करते हैं।
फिर मैं बेसाख़्ता सोचने लगी
उन तमाम सुखी-संतुष्ट लोगों के बारे में
जिन्होंने मरने के बाद के दिनों के लिए
सारे इन्तज़ामात कर रखे हैं।
वे अक्सर मरने के बाद के दिनों के बारे में
सोचते रहते हैं
और मरने से डरते हुए जीते रहते हैं।
मेरे ख़याल से उन्हें ऐसे सपने आते होंगे
जिनमें वो ज़िन्दा होते होंगे
लेकिन उनके आसपास बैठे उनके बालबच्चे,
रिश्तेदार और दोस्त
उनके अंतिम संस्कार की तैयारियों पर
बात कर रहे होते होंगे
और ज़ुबान तो दूर, एक उँगली तक हिलाकर
वे उन सबको यक़ीन नहीं दिला पाते होंगे
कि वो ज़िन्दा हैं अभी।
फिर इंतिहाई ख़ौफ़ और घुटन से हड़बड़ाये,
पसीने से तरबतर जागकर वे उठ बैठते होंगे
और अपने सपने के बारे में
किसी से कुछ कह न पाते होंगे।
(तक़ल्लुफ़-बरतरफ़ : बिना किसी औपचारिकता के. इल्म-ए-नफ़सियात : मनोविज्ञान)

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