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फिर न्यूनतम वेतन-वृद्धि के नाम पर सरकारी नौटंकी 

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         पुष्पा गुप्ता 

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है.

 मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है.

     कवि अदम गोंडवी ने एक अन्य सन्दर्भ में सरकारी झूठ का भण्डाफोड़ करते हुए इन पंक्तियों को लिखा था। उनकी कविता की इन पंक्तियों को अभी हालिया दिनों में न्यूनतम वेतन बढ़ाने की सरकारी नौटंकी के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। अभी केन्द्र सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोतरी की घोषणा है। इस बढ़ोतरी को 1 अक्टूबर 2024 से लागू करने की बात की गयी है।

       केन्द्र सरकार की नयी दरों के अनुसार, अकुशल श्रमिकों को अब प्रति माह 20,358 रुपये, जबकि अर्ध-कुशल, कुशल और अत्यधिक कुशल श्रमिकों के लिए यह राशि क्रमशः 22,568 रुपये, 24,804 रुपये और 26,910 रुपये होगी। एक तरफ़ यह घोषणा है और दूसरी तरफ़ “ग़रीब के बेटे” प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के मेहनतकश-विरोधी काले कारनामे। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों को मज़दूरों की एक-एक नस से ख़ून निचोड़ लेने में समर्थ बनाने के लिए वाक़ई बहुत कड़ी मेहनत की है। इसके लिए बस मोदी सरकार द्वारा श्रम-क़ानूनों में किये गये बदलाव और 2023-24 के बजट पर एक नज़र डालना काफ़ी होगा।

भारत में बने श्रम क़ानून शुरू से ही नाकाफ़ी थे। जो क़ानून थे भी वे असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की विशाल आबादी के लिए शायद ही कभी अमल में आते थे। उनको भी समय-समय पर पूँजीपतियों के पक्ष में बदला जाता रहा है। लेकिन अब मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को रहे-सहे श्रम क़ानूनों की अड़चन से मुक्त कर मज़दूरों का बेहिसाब शोषण करने के लिए 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों की जगह चार कोड या संहिताएँ बनायी गयी हैं- मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता।

पहले कोड या संहिता के तहत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित किया जायेगा। सरकार का कहना है कि एक त्रिपक्षीय समिति इस तल-स्तर का निर्धारण करेगी, मगर इस सरकार के श्रम मन्त्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, मासिक आमदनी होगी महज़ 4,628 रुपये! यह राशि आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में सुझाये गये तथा सातवें वेतन आयोग द्वारा तय किये गये न्यूनतम मासिक वेतन 18,000 रुपये का एक-चौथाई मात्र है। यही नहीं पन्द्रहवें राष्ट्रीय श्रम सम्मलेन (1957) की सिफ़ारिशों (जिसके अनुसार न्यूनतम मज़दूरी, खाना-कपड़ा-मकान आदि बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए) और सुप्रीम कोर्ट के 1992 के एक निर्णय की अनदेखी करते हुए कैलोरी की ज़रूरी खपत को 2700 की बजाय 2400 पर रखा गया है और तमाम बुनियादी चीज़ों की लागत भी 2012 की क़ीमतों के आधार पर तय की गयी है। इस कोड में ‘रोज़गार सूची’ को हटा दिया गया है जो श्रमिकों को कुशल, अर्द्धकुशल और अकुशल की श्रेणी में बाँटती थी। कुल मिलाकर कहें, तो अगर ये श्रम संहिताएँ लागू होती हैं तो मज़दूर वर्ग को ग़ुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू ही नहीं किये जाते, जिसके कारण इन मज़दूरों को जो मामूली क़ानूनी सुरक्षा मिल सकती थी, वह भी बिरले ही मिलती है। लेकिन अभी तक अगर कहीं पर अनौपचारिक व औपचारिक, संगठित व असंगठित दोनों ही प्रकार के मज़दूर, संगठित होते थे, तो वे लेबर कोर्ट का रुख़ कर सकते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ है मालिकों और कारपोरेट घरानों, यानी बड़े पूँजीपति वर्ग, को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही मज़दूरों का भयंकर शोषण करने की इजाज़त ओर मौक़ा देना। यह हमसे मानवीयता की बाक़ी शर्तों को भी छीन लेगा। यह हमें पाशविकता की ओर धकेल देगा। यह बात हर मज़दूर को समझ लेना चाहिए कि मोदी सरकार मज़दूरों की सबसे बड़ी दुश्मन है और इसलिए “मज़दूर नम्बर-1” नरेन्द्र मोदी की वेतन बढ़ाने की घोषणा का वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है बल्कि अमित शाह की भाषा में कहें तो यह एक जुमला है!

वहीं पिछले दिनों दिल्ली सरकार की मुख्यमन्त्री आतिशी द्वारा भी घोषणा की गयी कि दिल्ली में अब अकुशल मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन 18,066 रुपये, अर्ध-कुशल मज़दूर के लिए 19,929 रुपये और कुशल मज़दूरों के लिए 21,917 रुपये होगा। दिल्ली सरकार की ओर से वेतन बढ़ोतरी की घोषणा करते हुए मुख्यमन्त्री आतिशी ने कहा कि दिल्ली में अन्य राज्यों के मुक़ाबले अधिक न्यूनतम वेतन मिलता है। दिल्ली का “काग़ज़ी न्यूनतम वेतन” भी काफ़ी कम है, आज जिस हिसाब से महँगाई है न्यूनतम वेतन 30,000 रुपये मासिक होना चाहिए। उनका दावा है कि ग़रीब लोगों का शोषण रोकने के लिए दिल्ली सरकार न्यूनतम वेतन को एक ऐतिहासिक स्तर पर लेकर गयी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने पहले भी मज़दूरों के पक्ष में कई दावे किये थे जैसे कि ठेका प्रथा को ख़त्म किया जायेगा। सरकार बनने के बाद से इस पर अरविन्द केजरीवाल ने चुप्पी साध ली और अब तो इसके बारे में बात करना भी बन्द कर दिया है। आइए थोड़ा विस्तार में समझते हैं!

न्यूनतम वेतन बढ़ाने की घोषणा दरअसल दिल्ली सरकार द्वारा आगामी विधान सभा चुनाव के मद्देनज़र फेंका गया एक जुमला ही है, क्योंकि असल में सरकार की मज़दूरों को न्यूनतम वेतन देने की कोई मंशा नहीं है। आम आदमी पार्टी को चुनाव में चन्दा देने वाली एक बड़ी आबादी दिल्ली के छोटे-बड़े दुकानदारों, फ़ैक्टरी मालिकों और ठेकेदारों की है, वह इन्हें निराश कर मज़दूरों के जीवन स्तर को नहीं सुधार सकती है। ‘आप’ ने दिल्ली की मज़दूर आबादी के बीच इस बढ़ोत्तरी का महज़ जुमला उछाला है, क्योंकि ‘आप’ सरकार भी जानती है कि न्यूनतम वेतन क़ानून लागू करवाने की मशीनरी के अभाव में बेहद छोटी-सी आबादी के बीच इस बढ़ोत्तरी का प्रभाव होगा और इक्का-दुक्का फैक्ट्री मालिक ही इसके तहत नापे जायेंगे। इसके ज़रिये उसे मज़दूरों के बीच भी वाह-वाह सुनाने को मिलेगी और मालिकों के मुनाफ़़े को भी आँच नहीं आयेगी। दिल्ली में काम करने वाली मेहनतकश आबादी के बीच न तो इस क़दम की कोई सुगबुगाहट है और न ही कोई आशा है, क्योंकि वे अपने अनुभव से जानते हैं कि यह क़ानून भी लागू नहीं होने वाला है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाली आबादी के पास यह साबित करने का कोई भी तरीक़़ा नहीं है कि वे किस फैक्ट्री में काम करते हैं, अगर यह साबित हो भी जाये तो मालिक अपनी फैक्ट्री का नाम बदल देता है और बताता है कि पुरानी फैक्ट्री में तो वह मालिक ही नहीं था और इसके बाद श्रम विभाग मज़दूर पर यह जि़म्मेदारी डाल देता है कि वह साबित करे कि मालिक कौन है। न्यूनतम वेतन में बढ़ोत्तरी के इस क़दम की घोषणा को ख़ुद विधायक और निगम पार्षद दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में प्रचारित नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे या तो ख़ुद फैक्ट्री मालिक हैं या फिर फैक्ट्री मालिकों के चन्दे पर चुनाव लड़ते और जीतते हैं। आम आदमी पार्टी के पचास प्रतिशत से अधिक विधायक करोड़पति हैं यानी बड़े दुकानदार, व्यापारी या फैक्ट्री मालिक हैं। साफ़़ है कि मज़दूरों के लिए आम आदमी पार्टी व कांग्रेस-भाजपा में कोई अन्तर नहीं है।

अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के लिए बने क़ानूनों को तो मालिक और ठेकेदार मानते ही नहीं हैं। ख़ुद सरकारी विभागों में इसका खुलेआम उल्लंघन होता है। पूरे देश में सरकारी विभागों तक में 70 प्रतिशत के क़रीब मज़दूर व कर्मचारी ठेके पर, आउटसोर्सिंग, प्रोजेक्ट आदि के तहत आरज़ी तौर पर काम कर रहे हैं। सरकारी विभागों में क्लर्क, अध्यापक, टेक्निशियन आदि से हस्ताक्षर किसी राशि पर करवाये जाते हैं और दिया कुछ और जाता है। बेरोज़गारी के आलम की वजह से मजबूरी में हस्ताक्षर कर भी दिये जाते हैं। फैक्ट्रियों में मालिक मज़दूर से पहले ही ख़ाली काग़ज़ पर अँगूठा लगवाकर रख लेता है। ईएसआई कार्ड बनवाता है तो उसे हर दूसरे-तीसरे महीने रद्द करवा देता है और पुनः नया कार्ड बनवाता है, जिससे कि अगर वह किसी केस में फँसे तो दिखा सके कि फलाँ मज़दूर तो उसके यहाँ हाल में ही काम करने आया है। यह सब आम आदमी पार्टी के फैक्ट्री मालिक, व्यापारी और करोड़पति विधायकों या उनके करोड़पति समर्थकों को पता है।

दिल्ली के 27 अधिकृत औद्योगिक क्षेत्रों की फैक्ट्रियों और इसके अलावा रिहायशी क्षेत्रों में गैरक़ानूनी तरीक़े से चलने वाली फैक्ट्रियों में अपवाद को छोड़कर कहीं भी न्यूनतम वेतन का क़ानून लागू नहीं होता। सामान्यतः दिल्ली की फैक्ट्रियों में महिलाओं को 6000 से 7000 रुपये और पुरुषों को 8000 से 10000 रुपये वेतन मिलता है। क्या यह बात दिल्ली सरकार को नहीं पता है कि उनके आदेश का पालन नहीं हो रहा है? उन्हें सब पता है लेकिन लुटेरे मालिकों के वर्ग और आम आदमी पार्टी में मिलीभगत है। मज़दूरों के पक्ष में होनी वाली घोषणाओं की ही केवल यह दशा है; मालिकों के पक्ष में होने वाली घोषणाओं को सभी चुनावबाज़ पार्टियों की सरकारें पूरी तत्परता से लागू करती हैं। इसका एक हालिया उदाहरण यह है कि बवाना औद्योगिक क्षेत्र में उत्पाद को बाहर ले जाने वाले भारी वाहनों पर टैक्स लगाया गया था। इस क्षेत्र के मालिकों के एसोसिएशन की माँग पर दिल्ली सरकार ने इसे फ़ौरन वापस ले लिया और दिल्ली के उपराज्यपाल ने तुरन्त इसका अनुमोदन कर दिया। पूरे इलाक़े में आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों की ओर से पोस्टर लगा दिये गये और दोनों तरफ़ से इस काम का श्रेय लेने की होड़ मच गयी।

अगर सरकार की सही मायने में यह मंशा होती कि न्यूनतम वेतन में हालिया बढ़ोत्तरी वास्तविक तौर पर लागू की जाये तो सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि दिल्ली की ‘आप’ सरकार ने पुराने क़ानूनों और घोषणाओं को ही कितना लागू किया है? अगर सही मायने में सरकार की यह मंशा होती तो वह सबसे पहले हर फ़ैक्टरी में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 (Factories Act, 1948) का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। निश्चित ही इस क़ानून से जिसको थोड़ा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, लेकिन यह हिस्सा भी लगातार सिकुड़ रहा है। दिल्ली की 65 लाख मज़दूर आबादी में क्या न्यूनतम मज़दूरी की बढ़ोत्तरी की घोषणा घरेलू कामगारों, ड्राइवरों, प्राइवेट सफ़ाईकर्मियों आदि पर लागू हो पायेगी? 90 प्रतिशत मज़दूर आबादी जो दिहाड़ी, कैजुअल, पीस रेट, ठेके पर काम कर रही है, उसे न्यूनतम मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ मज़दूरी मिल पा रही है या नहीं इसकी कोई भी जानकारी दिल्ली सरकार के पास नहीं है। श्रम विभाग की स्थिति की अगर बात करें तो उसके पास इतने कर्मचारी हैं ही नहीं कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों व अन्य मज़दूरों की जाँच-पड़ताल की जा सके।

न्यूनतम वेतन का सवाल बाज़ार से और अन्ततः इस पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ता है। इस व्यवस्था में मज़दूरों का वेतन असल में मालिक का मुनाफ़़े और मज़दूर की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए संघर्ष का सवाल है। वेतन बढ़ोतरी के लिए मज़दूरों को यूनियन में संगठित होकर लड़ना ही होगा। फैक्ट्री में मज़दूर को बस उसके जीवनयापन हेतु वेतन भत्ता दिया जाता है और बाक़ी जो भी मज़दूर पैदा करता है, उसे मालिक अधिशेष के रूप में लूट लेता है। अधिक से अधिक अधिशेष हासिल करने के लिए मालिक वेतन कम करने, काम के घण्टे बढ़ाने या श्रम को ज़्यादा सघन बनाने का प्रयास करते हैं और इसके खि़लाफ़ मज़दूर संगठित होकर ही संघर्ष कर सकता है। हमें यह बात समझनी होगी कि न्यूनतम वेतन के क़ानून को भी अपनी एकता के दम पर लड़कर ही लागू कराया जा सकता है। दिल्ली में आँगनवाड़ी कर्मियों, वज़ीरपुर के स्टील मज़दूर, करावल नगर के बादाम मज़दूर हमारे सामने उदाहरण भी है जिन्होंने एकजुट होकर हड़ताल के दम पर अपना न्यूनतम वेतन बढ़वाया है। लेकिन इस माँग को उठाते हुए यह भी समझना चाहिए कि महज़ इतना ही करते रहेंगे तो चरखा कातते रह जायेंगे और वेतन-भत्ते की लड़ाई के गोल-गोल चक्कर में घूमते रह जायेंगे। महँगाई बढ़ेगी तो बढ़ी मज़दूरी फिर कम होने लगती है। इसलिए तो हर पाँच साल में दोबारा न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाने के लिए न्यूनतम मज़दूरी आयोग को दोबारा बनाना पड़ता है (चार लेबर कोड आने के बाद यह आयोग भी बन्द हो जायेगा) और नये सर्वे के ज़रिये नये बढ़े हुए वेतनमान की माँग को लागू करके तात्कालिक तौर पर मेहनतकशों का गुस्सा शान्त हो जाता है। क्या हमारी लड़ाई महज़ न्यूनतम वेतन लागू करवाने तक सीमित है? क़तई नहीं, दूरगामी तौर पर जनता के अगुआ हिस्सों को राजनीतिक रूप से शिक्षित करके उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों के बारे में बताना होगा और उन्हें पूँजीवादी व्यवस्था की ‘शोषण की व्यवस्था का नाश करने’ की माँग के बारे में शिक्षित करते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। जब तक हम यह नहीं करते हम शोषित और उत्पीड़ित रहेंगे और हमारे हिस्से में झुग्गियाँ, गन्दी नालियाँ, बीमारियाँ और बेरोज़गारी जैसी समस्याएँ हमेशा मुहँ बाये खड़ी रहेंगी।

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