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अग्निवीर यानी जनता पर जुल्म ढ़ाने के लिए तैयार होता गिरोह

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भारत में आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने सैन्य प्रशिक्षित गिरोह के निर्माण का ऐजेंडा अपने हाथ में लिया है. इस सैन्य प्रशिक्षित गिरोह का नामकरण ‘अग्निवीर’ दिया गया है. इस अग्निवीर गिरोह का इस्तेमाल आरएसएस ठीक उसी तरह करने जा रहा है, जिस तरह जर्मनी में हिटलर ने एसएस (स्वयं सेवक) का किया था, यानी बड़े पैमाने पर अपने विरोधियों को खत्म करना. यह एसएस ही था, जिसने लाखों यहूदियों को गैस चैम्बर में डालकर मार डाला था.

भारत में एसएस के निर्माण की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पड़ाव यह ‘अग्निवीर’ है, जो चार साल की सैन्य ट्रेनिंग हासिल करने के बाद समाज में लौटेगा और भाड़े का सैनिक बनकर समाज पर कहर बनकर टूट पड़ेगा. यह लाखों की तादाद में समाज में लौटने वाला वह गिरोह होगा जो आरएसएस के इशारे पर ब्राह्मणवादी मनुस्मृति पर आधारित समाज के निर्माण में योगदान देगा और विरोधियों को खत्म करेगा. ये भाड़े के सैनिक आरएसएस के लिए बेहल ही सस्ते दामों पर सदैव उपलब्ध रहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे आज सोशल मीडिया पर संघी ट्रोल गालीगलौज करने के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं.

इन भाड़े के सैनिक अग्निवीर और सोशल मीडिया पर उपलब्ध संघी गालीबाज ट्रोलरों में अंतर यही होगा कि सोशल मीडिया पर उपलब्ध संघी गालीबाज ट्रोलर केवर गालीगलौज तक ही सीमित रहता है, जबकि यह भाड़े का ‘अग्निवीर’ सीधे घर पर पहुंच कर हत्या और बलात्कार तक में सक्षम होगा. चूंकि यह भाड़े का ‘अग्निवीर’ के लिए सरकार जवाबदेह नहीं होगा, इसलिए उसके हर कुकृत्यों के प्रति भी सरकार उत्तरदायी नहीं होगी.

देश वाईमर रिपब्लिक बनने की दहलीज़ पर

डरबन सिंह लिखते हैं न्यूरेम्बर्ग रैली की यह मशहूर तस्वीर आपने देखी होगी और सोचा होगा कि सामने यह जर्मनी की फौज है. कतई नहीं. ये रेगुलर फौजी नहीं, एसएस है. आप शाखा के स्वयंसेवक कह सकते हैं. जर्मनी में फ़ौज, रोजगार का एक प्रमुख साधन था. इसके बूते फ्रेडरिक, बिस्मार्क और कैसर ने दुनिया जीतने के ख्वाब संजोए इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वर्साई की ट्रीटी जर्मनी की फौज पर पाबंदियां लगा दी गयी.

हर दस में से आठ फौजी को जबरन रिटायर किया गया. 1919 से 1930 के दौर में लाखों प्रशिक्षित फौजी सड़कों पर बेकार घूम रहे थे, मजदूरी कर रहे थे. उनका आत्मसम्मान चकनाचूर था. हिटलर ने उन्हें प्राइड दिया. नाजी पार्टी ने एक स्वयंसेवक मंडल बनाया. सारे वेटरन फौजी पकड़े और उन्हें पार्टी की विचारधारा में प्रशिक्षित किया. जाहिर है, इसमें शुद्ध जर्मन नस्ल के लोग ही प्रवेश पा सकते थे. उन्हें यहूदियों पर जुल्म ढाने के लिए खुली छूट मिली. पुलिस और सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ थी.

एसएस के गुंडों का एक प्रमुख काम खुद की रैली एफिशिएंटली ऑर्गनाइज करना, दूसरों की बिगाड़ना था. मार पीट, गुंडागर्दी की छूट थी. एकदम सैनिक अनुशासन और फौजी रैंकिंग थी जिसे अवैध कमाई की छूट थी. हारे हताश जर्मनी में पुराने दौर के फौजी जो समाज में अब भी सम्मानित, पूज्य थे, उनका नाजियों को समर्थन जनता में पार्टी की स्वीकृति बढ़ाता था. रिटायर्ड फ़ौजियों के प्रति जनता के सम्मान ने हिटलर की चुनावी राह आसान की.

सत्ता में आने पर एसएस का विस्तार हुआ. हिटलर को देश की सेना और पुलिस का भरोसा नहीं था क्योंकि वे संविधान के लिए प्रतिबद्ध होते थे, जबकि एसएस में हिटलर के प्रति वफादारी की कसम खायी जाती.

आने वाले दौर में सेना, पुलिस, गेस्टापो और तमाम सरकारी संगठनों में एसएस मेम्बर्स को कंट्रक्चुअल नियुक्त किया जाने लगा. इस तरह ब्यूरोक्रेसी के हर सिस्टम में नाजी घुस गए. एक वक्त एसएस के मेंबर्स की तादाद सेना की दस गुनी हो गयी थी. जर्मनी हिटलर की मुट्ठी में था.

यही वह ‘शानदार’ मॉडल था, जिसे पढ़ने मुंजे यूरोप गए थे. इसके बाद भारत मे भी शाखाएं शुरू हुई. स्वयंसेवकों को सैनिक प्रशिक्षण देना शुरू हुआ. सावरकर ने भी हिन्दुओं के सैन्यकरण पर जोर दिया. इस कारण से हिन्दू महासभा और संघ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारतीयों को सेना में अस्थायी प्रवेश लेने वकालत करते रहे. इन्होंने भर्ती रैलियों को फैसिलिटेट किया. ठीक तब, जब गांधी ‘भारत छोड़ो’ की हुंकार भर रहे थे. गांधी हत्या में सजा पाने वाले दो किरदार, ब्रिटिश सेना में अस्थायी कैडर बनकर सैन्य प्रशिक्षित हुए थे- गोपाल गोडसे, और नारायण आप्टे.

मुंजे ने यूरोप से वापस आने के बाद पुणे में ‘भोसले मिलिट्री स्कूल’ खोला था. वह स्कूल आज भी है. अब साधारण सीबीएसई क्युरिकुलम पढ़ाता है क्योकि नव नाजियों को प्रशिक्षित कर, एसएस में बदलने काम अब भारतीय सेना को आउटसोर्स किया जा चुका है. हमारी आंखों के सामने इंडियन आर्मी अब विशाल शाखा में तब्दील होने जा रही है. आपके बच्चे, षड्यंत्र के इस अग्निपथ पर ढकेले जा चुके हैं.

भाड़े के सैनिक बने फायदे का व्यापार

सेना में भाड़े के सैनिक रखने का यह ट्रेंड पिछले दशक में ही सामने आया है. पहले गल्फ वॉर (1990) में जहां ऐसे सैनिक कुल अमेरिकी सेना का सिर्फ एक फीसदी थे, वहीं इराक में तैनात कुल 1,30,000 अमेरिकी सैनिकों में 20,000 (करीब 15 फीसदी) सैनिक भाड़े के थे. ‘बिजनेस ऑफ वॉर’ कहा जाने वाला यह नया बिजनेस इतना फल फूल रहा है कि इसके जरिए हर साल 100 अरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार होता है. यही नहीं, किराए के सैनिक मुहैया कराने वाली कंपनियों ने बीते साल अमेरिकी बजट में एक तिहाई हिस्सेदारी निभाई.

पीटर सिंगर नेअपनी किताब ‘कॉरपोरेट वॉरियर्स-राइज ऑफ द प्राइवेटाइज्ड मिलिट्री इंडस्ट्री’ में सबसे पहले वॉर के व्यवसायीकरण पर सवाल उठाए और अमेरिकी सेना में बढ़ते भाड़े के सैनिकों का जिक्र किया. आखिर अमेरिका को इस तरह किराए पर सैनिक लेने की जरूरत क्यों आन पड़ी ? दरअसल, अमेरिका ने एक साथ कई देशों में मोर्चे खोल रखे हैं, जिनकी वजह से सैनिकों की कमी पड़ रही है. वैसे पेंटागन की इस बारे में कोई स्पष्ट पॉलिसी भी नहीं है.

प्राइवेट सैनिकों में सिविलियनों से लेकर मिलिट्री के रिटायर्ड जवान होते हैं. इनका काम ज्यादा जोखिम भरा नहीं है. ये लोग आमतौर पर संदेश भेजने, खुफिया सेवाएं मुहैया कराने, रेग्युलर सैनिकों के रहने और खाने का इंतजाम करने, एयरपोर्ट व दूसरे महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा करने, ऐडमिनिस्ट्रेशन की मदद करने से लेकर इराक की नई फौजों को ट्रेनिंग देने जैसे काम ही ज्यादा करते हैं. इन सैनिकों को खतरा कम होने के बावजूद रेग्युलर सैनिकों से ज्यादा पगार मिलती है. इन्हें एक दिन में 500 से लेकर 1,500 डॉलर तक सैलेरी मिल जाती है.

‘भाड़े के सैनिकों’ का ट्रेंड बढ़ने के पीछे सत्ता में बैठे लोगों का स्वार्थ है. अभियान के दौरान इनमें से अगर कोई दुश्मन का शिकार हो जाए तो उसकी गिनती सैनिकों में नहीं होती. इससे एक तो घोषित हताहतों की संख्या कम रहती है, दूसरे जनमत के सरकार के खिलाफ होने की संभावना भी कम हो जाती है. इनके हताहत होने पर सेना को भारी मुआवजा नहीं देना पड़ता. भाड़े के सैनिक अगर गलती करें तो इन्हें रेग्युलर सैनिकों की तरह सजा नहीं दी जा सकती. वैसे ये भी जिनेवा संधि और मानवाधिकार नियमों के घेरे में आते हैं.

सिंगर के मुताबिक अबूगरीब जेल में इराकी कैदियों पर अत्याचार करने वालों में दो प्राइवेट सैनिक भी थे, लेकिन उनके खिलाफ मिलिट्री कोड के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकी और वे छूट गए. अब जहां इराक में कानून व्यवस्था बुरी तरहलड़खड़ाई हुई है, वहां इन्हें सजा मिलने की उम्मीद करना बेमानी है. बहरहाल, इतना तो तय है कि अमेरिका फिलहाल जिन नीतियों के तहत काम कर रहा है, उससे आने-वाले वक्त में ‘भाड़े के सैनिकों’ का ट्रेंड और फलेगा-फूलेगा.

नागरिकों पर अत्याचार के मामलों में कुख्यात है ये भाड़े के सैनिक

UN की रिपोर्ट में बड़ा खुलासा हुआ है कि भाड़े पर सैनिक देने वाली अमेरिकी कंपनी के पूर्व प्रमुख ने लीबिया में सरकार गिराने के लिए 600 करोड़ में डील की थी. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सहयोगी और भाड़े के सैनिक उपलब्ध कराने वाली अमेरिकी कंपनी ब्लैकवाटर के पूर्व प्रमुख प्रिंस एरिक ने लीबिया में सरकार को गिराने का प्रयास किया. एरिक ने एक लीबियाई कमांडर को हथियार देने का प्रस्ताव दिया था, यह संयुक्त राष्ट्र के नियमों का खुला उल्लघंन है.

यूएन की एक गोपनीय जांच रिपोर्ट में यह बात कही गई है. इराक युद्ध में अमेरिका प्राइवेट मिलिट्री या सेना के निजीकरण का कॉन्सेप्ट लेकर आया. इसके तहत ब्लैकवाटर जैसी सिक्योरिटी कॉन्ट्रैक्टर कंपनियों ने युद्ध में अमेरिका को ठेके पर सैनिक और अन्य युद्ध सहायता मुहैया कराई. इन सैनिकों द्वारा आम नागरिकों की हत्या और अत्याचार के बाद इस प्रयोग पर सवाल उठे. इराक में 17 आम नागरिकों की हत्या का मामला अमेरिकी कोर्ट में चला, इसमें ब्लैकवाटर दोषी पाई गई थी.

अब यूएन की इस जांच रिपोर्ट के बाद फिर से सेना के निजीकरण के दुष्परिणाम पर चर्चा होने लगी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि एरिक 2019 में लीबिया के एक सैन्य कमांडर को भाड़े के विदेशी सैनिक, अटैक एयरक्राफ्ट, गनबोट और साइबर युद्ध की क्षमता देने की डील कर रहा था. यह सौदा करीब 600 करोड़ रुपए में हो रहा था. इसमें चुनिंदा लीबियाई कमांडरों को मारने और उन पर नजर रखने की योजना थी ताकि लीबिया की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार को गिराया जा सके.

अमेरिकी कोर्ट द्वारा ब्लैकवाटर को प्रतिबंधित करने के बाद कंपनी ने अपना नाम बदल लिया. एरिक ने पिछले दशक में खुद को हमलों का सौदा करने वाले एग्जिक्यूटिवी के रूप में रिलॉन्च कर लिया. यह सौदे कभी-कभी खनिजों के लिए तो कभी मिलिट्री फोर्स के लिए होते थे लेकिन ज्यादातर सौदे संसाधनों से धनी और अफ्रिकी देशों में होते थे.

इराक युद्ध के बाद एरिक प्रिंस प्राइवेट अमेरिकी मिलिट्री का पोस्टर ब्वॉय बन गया. यहां प्रिंस की कंपनी ने 17 आम नागरिकों की हत्या की और आम लोगों पर अत्याचार किए, युद्ध नियम तोड़े. एरिक प्रिंस एक पूर्व नेवी सील है. एरिक का भाई डेवोस ट्रम्प का एजुकेशन सेक्रेटरी था. साथ ही, ट्रम्प के रूस कनेक्शन की जांच में भी एरिक शामिल है.

‘अग्निवीर’ यानी भाड़े के सैनिक योजना

अब भारत इतना मोदी निर्भर है कि पूरावक्ति सैनिकों की भर्ती नहीं कर पा रहा है लेकिन भाजपा के लिए पेड पूरावक्ती सम्मानजनक पगार पर लाखों जमीनी लठैत और साइबर लठैत भर्ती कर लिए हैं. सैनिकों की भर्ती से अधिक जरुरी है आरएसएस-भाजपा में लठैत भर्ती. यह एकदम अफगानिस्तान मॉडल है.

ठेके पर सैनिक भर्ती की प्रणाली कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चलाती हैं और वे अमेरिका के तमाम सैन्य अभियानों के लिए लैटिन अमेरिका से लेकर अफगानिस्तान तक भाड़े के सैनिक मुहैय्या कराते रहे हैं. मोदी सरकार तुरंत संविदा सैनिक भर्ती की योजना पर रोक लगाए और सीधे सैनिक भर्ती करे. सेना के लिए फुलटाइम सैनिक चाहिए, पार्ट टाइम या ठेके पर सैनिक नहीं चाहिए.

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