अग्नि आलोक

अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है अकाली दल और ताकतवर हो रही रैडिकल सिख सियासत 

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“हमारा परिवार कट्टर अकाली था. गांव में लोग जानते थे कि हम पंथ (धर्म को) को ही वोट डालेंगे. मेरी सास ने कई अकाली मोर्चों में शिरकत की और इमरजेंसी के विरुद्ध मोर्चे में जेल काटी है. लेकिन धीरे-धीरे अकाली दल में कुर्बानी वाले नेता खत्म हो गए, परिवार भारी हो गया. बादल के राज में वह सब हुआ जिसके बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते थे. अब यह लोग पंथ और पंजाब के दिल से उतर चुके है.” लुधियाना ज़िले के हलवारा गांव के निवासी जगतार सिंह की ठेठ पंजाबी में दुःख व गुस्से में कही यह बात देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी शिरोमणी अकाली दल के लगातार सिमटने और अप्रासंगिक हो जाने का इशारा करती है. 

1920 में ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ से निकला अकाली दल आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. एक तरफ उसे चुनावों में लगातार हार मिल रही है, दूसरी तरफ पार्टी के भीतर बगावत के सुर तेज हो रहे हैं. पार्टी के बड़े नेताओं ने अध्यक्ष सुखबीर बादल के इस्तीफे की मांग की है. इनमें सुखदेव सिंह ढींडसा, प्रेम सिंह चंदूमाजरा, बीबी जागीर कौर, सुच्चा सिंह छोटेपुर जैसे वरिष्ठ अकाली नेता शामिल हैं. इन बागी नेताओं ने गत एक जुलाई को सिखों की सबसे बड़ी धार्मिक संस्था अकाल तख्त पर जाकर अकाली राज में हुई गलतियों की माफी मांगी. उनका कहना है कि सत्ता में रहते हुए जो गलतियां हुईं उनका खामियाज़ा अकाली दल भुगत रहा है. 

दिलचस्प बात यह रही कि उसी दिन इन बागी नेताओं ने अलगाववादी नेता अमृतपाल सिंह के परिवार के साथ भी मुलाकात की. इस लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और सरबजीत खालसा की जीत ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या पंजाब की राजनीति में उदारवादी हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाला अकाली दल हाशिए पर पहुंच गया है? क्या उग्र सिख नेता अब अकाली दल का विकल्प बन गए हैं? 

2017 से लगातार मिल रही हार ने पार्टी को इस हालत में पहुंचा दिया है कि  इस लोकसभा चुनाव में अकाली दल को पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से सिर्फ एक (बठिंडा से हरसिमरत कौर) सीट मिली है. सिर्फ दो सीटों (फिरोजपुर और अमृतसर) पर वह अपनी जमानत बचा पाया है. अकाली दल का वोट प्रतिशत 18 फीसद (विधानसभा चुनाव 2022) से घट कर 13.42 प्रतिशत रह गया है. 

2017 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल को पहली बार इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़ा. उसको महज़ 15 सीटें आईं. 2022 के विधानसभा चुनाव में यह हार और बड़ी हो गई. अकाली दल को सिर्फ तीन सीटें मिलीं. पार्टी के दिग्गज नेता प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर बादल और बिक्रम सिंह मजीठिया तक को हार का मुंह देखना पड़ा. 

प्रकाश सिंह बादल की राजनीतिक सफ़र में यह दूसरी हार थी. पहली बार वो 1967 के विधानसभा चुनाव में 100 से भी कम मतों से हारे थे लेकिन इस बार हार का अंतर 12 हज़ार से ऊपर था. यह सदमा उनके जीते जी खत्म नहीं हुआ.

इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 13 में से 7 सीटें जीती हैं और उसका वोट फीसद 26.30 रहा. 2022 के विधानसभा चुनाव में 44 फीसद वोट के साथ 92 सीट जीत कर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी ने इस बार लोकसभा चुनाव में सिर्फ 3 सीटें जीती है और उसका वोट भी कम हो कर 26.02 फीसद रह गया. भाजपा इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही थी, वह कोई सीट तो नहीं जीत सकी पर उसने अपना वोट बढ़ा कर 9 से 18 फीसद कर लिया.

पंजाब की सियासत में चिंता और बदलाव की आहट दो सीटों से आ रही है. खडूर साहिब से ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन के मुखिया और एनएसए के तहत असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद अमृतपाल सिंह और फरीदकोट से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कातिल बेअंत सिंह के पुत्र सरबजीत सिंह खालसा लोकसभा का चुनाव जीत गए हैं. अमृतपाल सिंह 1.97 लाख और सरबजीत सिंह खालसा 70,000 मतों के अंतर से जीते हैं. 

पंजाब की पंथक राजनीति को समझने वाले प्रोफेसर हरजेश्वर पाल सिंह एसएडी के मौजूदा संकट पर कहते हैं, “अकाली दल चुनावी राजनीति में लगातार कमज़ोर होता जा रहा है. जब से इस पार्टी पर बादल परिवार काबिज़ हुआ है यह एक व्यक्ति और परिवार केंद्रित पार्टी बन गई है. इसने अपने सभी ऊसूल त्याग दिए हैं. इस तरह की पार्टियों के साथ नेता तब तक ही जुड़े रहते हैं जब तक उस पार्टी के पास सत्ता रहती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में अकाली दल की हालत और कमज़ोर हो गई है इसलिए इसके नेता इधर-उधर भटकने लगे हैं.”

प्रोफेसर हरजेश्वर कहते हैं, “पंजाब में पहली बार भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ना और कई सालों बाद दो उग्र सिख विचारों वाले उम्मीदवारों का जीतना पंजाब की राजनीति में नया संकेत है. दोनों तरफ की साम्प्रदायिकता एक दूसरे को मजबूत करती है. भाजपा हिन्दू वोटों को खालिस्तान का डर दिखा कर डराने का काम कर सकती है. पंजाब में कुछ समय से शातिर सियासी चालें चली जा रही हैं. रवनीत बिट्टू को केंद्र में मंत्री बनाना भी भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा है.” 

गौरतलब है कि बिंट्टू कांग्रेस से भाजपा में आए, चुनाव हार गए फिर भी भाजपा ने उन्हें केंद्र में राज्यमंत्री बनाया. बिट्टू पंजाब के दिग्गज कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते हैं. 

गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर जगरूप सिंह सेखों कहते हैं, “अब लोग सिर्फ ‘पंथ खतरे में है’ के नाम पर वोट नहीं देते. अकालियों की मौजूदा लीडरशिप भी समय से तालमेल नहीं बिठा पायी. नेताओं की कथनी और करनी में बहुत फर्क आ चुका है. पहले अकाली दल में सत्ता का विकेंद्रीकरण होता था. पार्टी का अध्यक्ष कोई और होता था, मुख्यमंत्री कोई और होता था. शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष और अकाल तख्त के जत्थेदार की अपनी स्वतंत्र पहचान और इज्जत होती थी. जब प्रकाश सिंह बादल पार्टी अध्यक्ष बने तो वह पार्टी और सरकार दोनों पर काबिज़ हो गए. शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष और अकाल तख्त के जत्थेदार भी उनके इशारे पर नियुक्त होने लगे. 2007-2017 के अकाली-भाजपा राज में लोग सरकार से इतना तंग आ गये थे कि अकाली लोगों के दिलों से उतर गए.” 

हालांकि रेडिकल सिख नेताओं के उभार को प्रोफेसर सेखों बड़ा खतरा नहीं मानते. वो कहते हैं, “उग्र सिख नेताओं के पास गम्भीर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट से जूझ रहे पंजाब को देने के लिए कुछ नहीं है. पंजाब के लोगों की सभी पार्टियों के प्रति निराशा के चलते ही इन्हें दो सीटें मिली हैं. पंजाब का सामाजिक, राजनैतिक, और सांस्कृतिक स्वभाव ऐसा है कि यहां साम्प्रदायिक राजनीति ज्यादा नहीं चल सकती. जब कहीं राजनैतिक खालीपन होता है तब इस तरह की ताकतों का दांव लग जाता है.” गौरतलब है कि इस चुनाव में उग्र विचारों वाले उम्मीदवार आठ जगहों से  खड़े थे.

अकाली दल का इतिहास 

पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ के राजनीति विभाग के मुखिया प्रो. आशुतोष कुमार बताते हैं, “अकाली दल ‘होम ग्राउंड मूवमेंट’ से निकली पार्टी है जैसे कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस, तमिलनाडु में डीएमके आदि. इन पार्टियों ने नेशनल पार्टियों के मुकाबले क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और भौगोलिक पहचान के साथ-साथ राज्यों के अधिकारों के मुद्दे पर अपनी राजनीति खड़ा की है. इसका शुरुआती उद्देश्य अंग्रेजों की शह पर गुरुद्वारों में काबिज़ महंतों से गुरूद्वारों को आज़ाद करवाना था.”

कुमार बताते हैं, “अंग्रेजी राज में इसका मकसद हिन्दुओं और मुसलमानों की तरह अलग सिख प्रतिनिधित्व हासिल करना था. अकाली दल ने पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था. आजादी के बाद अकाली दल ने भाषा के आधार पर ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’, ‘धर्म युद्ध मोर्चा’ और पानी के मुद्दे पर कई संघर्ष किया. इमरजेंसी के खिलाफ आवाज़ उठाई. संत फ़तेह सिंह के अकाली दल का अध्यक्ष बनने के बाद सिखों की इस पार्टी पर जट्ट सिखों का कब्जा हो गया. नतीजतन भापा सिख (खत्री सिख, जो ज्यादातर शहरों में रहते थे) कांग्रेस की तरफ चले गए. 80 और 90 का दशक अकाली गुटों के आपसी टकराव का समय रहा.” 

प्रकाश सिंह बादल के काबिज होने के बाद अकाली दल अपने को पंथक पार्टी के साथ बतौर ‘पंजाबी पार्टी’ भी पेश करने लगी. 1997 में अकाली-भाजपा गठबंधन को शानदार जीत हासिल हुई. 23 साल चले इस गठबंधन के दौरान अकाली दल की मूवमेंट वाली पार्टी की छवि खत्म हो गई. यह एक परिवार की पार्टी बनकर रह गयी. आज इसके संकट का सबसे अहम कारण यही है.

1920 की अकाली दल की तस्वीर.

अकाली दल का गठन 14 दिसम्बर, 1920 को अकाल तख्त साहिब, अमृतसर में हुआ था. यह सिखों के पांच सबसे बड़े तख्तों में से सबसे ऊँचा स्थान रखता है. तख्त वो संस्थान हैं जो सिखों के आंतरिक मसलों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगुवाई करते हैं. तख्तों की गतिविधियों का संचालन शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी द्वारा नामज़द जत्थेदार करते हैं. धार्मिक या राजनैतिक संकट के दौरान अकाल तख्त सभी सिखों की अगुवाई करता है. 

अकाली दल के मौजूदा संकट के समय भी बागी धड़ा अकाल तख्त पहुंचा. लगे हाथ सुखबीर बादल को भी अकाल तख्त ने तलब किया. अकाल तख्त द्वारा जारी ‘हुक्मनामा’ समूचे पंथ के नाम जारी किया जाता है जो सभी सिखों के लिए मानना ज़रूरी होता है.

अकाली दल के पहले अध्यक्ष सुरमुख सिंह झब्बल थे. 1920 से 25 के बीच चली गुरुद्वारा सुधार लहर से इस पार्टी का जन्म हुआ. इस लहर का उद्देश्य ऐतिहासिक गुरुद्वारों को अंग्रेजों के सहायता प्राप्त महंतों से आज़ाद कराकर इनका प्रबंधन आम सिख संगत के हाथों में देना था. महात्मा गांधी ने भी इस लहर की सराहना की थी. इसी लहर से शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी और अकाली दल का विचार अस्तित्व में आया. 

पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के पूर्व संपादक स्वराजबीर ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ में छपे अपने लेख ‘शिरोमणी अकाली दल दा महा-संकट’ में लिखते हैं, “अकाली नाम के संगठन बनने से सिख भाईचारे की जुझारू विरासत को नई शक्ल मिली. इस सियासी पार्टी ने औपनिवेशिक राज के विरुद्ध शांतिपूर्ण संघर्ष शुरू कर अपनी विरासत के पुनर्सृजन का काम किया. इस पार्टी के बनने में ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ (भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा अंग्रेजों विरुद्ध चलाई लहर) और ग़दर पार्टी के आंदोलनों के साथ-साथ पंजाब के सियासी और सामाजिक जीवन में रॉलेट एक्ट के विरुद्ध उठी लहर का (जिस दौरान जलियांवाला बाग़ का दुखांत हुआ) असर भी था. अकाली दल उस समय अस्तित्व में आया जब सिखों की नुमाइन्दगी करने का दावा करने वाली संस्थाएं, संगठन और राजे-रजवाड़े अंग्रेजों के पक्ष में खड़े थे. उस समय अकाली दल लगातार उपनिवेशवाद का विरोध करने वाली पार्टी बन कर उभरा.”  

1928 में अकाली दल ने साइमन कमिशन का विरोध किया और कांग्रेस के साथ मिल कर साइमन कमिशन के विरुद्ध प्रदर्शन किया. 1929 में जब कांग्रेस ने पूर्ण आज़ादी का प्रस्ताव पास किया तो अकाली दल ने उसका समर्थन किया. 26 जनवरी, 1930 को मनाए गये ‘स्वतंत्रता दिवस’ में अकाली दल के कार्यकर्त्ता बड़ी संख्या में शामिल हुए थे. इसी साल अकाली दल कांग्रेस की अगुवाई वाले ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ में भी शामिल हुआ. 

स्वराजबीर उसी लेख में लिखते हैं, “आज़ादी से पहले 1937 और 1945-46 के चुनाव में अकाली दल पंजाब की महत्त्वपूर्ण राजनैतिक पार्टी के तौर पर उभरा क्योंकि वह कांग्रेस या मुस्लिम लीग की तरह किसी कौमी पार्टी के अधीन नहीं था. यह अकाली पार्टी के लिए बड़ी कशमकश का समय था क्योंकि मुस्लिम लीग देश को धर्म के आधार पर बांटने के लिए ज़ोर लगा रही थी. आखिर में अकालियों ने कांग्रेस का समर्थन करने और भारत में रहने का फैसला किया.” 

आज़ादी से नब्बे के दशक तक

आज़ादी के बाद अकाली दल ने पंजाबी भाषा और संस्कृति के आधार पर पंजाबी सूबा बनाने के लिए आंदोलन किया, जिसका हिन्दू महासभा और जनसंघ ने विरोध किया. कई संघर्षों के बाद यह बात मानी गई और एक नवंबर, 1966 को भाषा के आधार पर नया पंजाबी राज्य अस्तित्व में आया. 1967 में अकाली दल की अगुवाई में साझा मोर्चे की सरकार बनी जिसमें मुख्यमंत्री जस्टिस गुरनाम सिंह बने. 1966 में भाषा के आधार पर बने राज्य के बाद अकाली दल ने पंजाब में सबसे ज्यादा समय सत्ता पर राज किया. 

अकाली दल ने 1975 में इमरजेंसी के विरुद्ध भी आन्दोलन किया. सीनियर पत्रकार सतनाम सिंह माणक बताते हैं, “उस समय पंजाब में कांग्रेस की ज्ञानी ज़ैल सिंह सरकार ने पहले पहल किसी भी अकाली नेता को गिरफ्तार नहीं किया. हालांकि जेपी आन्दोलन में अकाली दल पूरी तरह सक्रिय था. अकाली दल ने जेपी को लुधियाना बुलाकर एक बड़ी रैली भी की थी. उस समय इंदिरा गांधी अकालियों की कुछ मांगे मानकर उन्हें इमरजेंसी के विरुद्ध चल रहे आंदोलन से दूर रहने का सन्देश दे रही थी. लेकिन अकाली दल के उस समय के नेता गुरचरन सिंह टोहरा, मोहन सिंह तुर और प्रकाश सिंह बादल ने देश में लोकतंत्र और संविधान को पैदा हुए खतरे के मद्देनज़र इसका विरोध करने का फैसला किया.” 

अकाली दल ने अकाल तख्त से लोकतंत्र को बचाने के लिए इमरजेंसी के विरुद्ध आंदोलन का बिगुल बजाया. इसके बाद हज़ारों अकाली कार्यकर्ताओं और नेताओं ने गिरफ्तारियां दी.  

पंजाब में उग्रवाद के दौर में अकाली दल की भूमिका पर कई सवाल उठे. उस समय अकाली दल के गई धड़े बन गए थे और उनमें वर्चस्व की अंदरूनी जंग चल रही थी. प्रकाश सिंह बादल, गुरचरन सिंह टोहरा, जगदेव सिंह तलवंडी और हरचंद सिंह लोंगोवाल आदि अकाली दल के प्रमुख नेताओं में शुमार थे. यह वही समय था जब निरंकारी कांड, भिंडरावाले का उभार, धर्म युद्ध मोर्चा, ऑपरेशन ब्लू स्टार, दिल्ली में सिखों का कत्लेआम और राजीव गांधी- लोंगोवाल समझौता भी हुआ.  

सुरजीत सिंह बरनाला

1985 में हुए विधानसभा चुनाव में अकाली दल सत्ता में आया और सुरजीत सिंह बरनाला मुख्यमंत्री बने जिनके काल ही में ‘ऑपरेशन ब्लैक थंडर” हुआ था . यह सरकार करीब दो साल ही चली इसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. 

1989 से लेकर 1994-95 तक सिख राजनीति में कई तरह के मोड़ आते हैं. 1994 में ‘अमृतसर डिक्लेरेशन’ सामने आया. इसमें सिखों को ‘आत्मनिर्णय’ का अधिकार देने की बात की गई. इस पर दस्तखत करने वालों में कैप्टन अमरिंदर सिंह का भी नाम था. इसी ‘अमृतसर डिक्लेरेशन’ के आधार पर खालिस्तानी विचारधारा वाले अकाली दल (अमृतसर) की नींव रखी गई. जिसके अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान हैं. 1995 में अकाली राजनीति पर प्रकाश सिंह बादल की पकड़ और मज़बूत हो गई जब वे अकाली दल के अध्यक्ष बने. 

भाजपा से गठबंधन और बादल की अकाली

1997 के विधानसभा चुनाव में अकाली-भाजपा गठबंधन ने 117 में से 93 सीटें जीतीं (अकाली दल 75, भाजपा 18). बादल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. यह पहली अकाली सरकार थी जिसने पूरे पांच साल राज किया. किसानों को मुफ्त बिजली की सहूलियत दी. लेकिन लगे हाथ उसने कुछ राजनीतिक भूलें भी की. मसलन चुनाव के समय किया गया फर्जी पुलिस मुठभेड़ों की जांच का वायदा अकाली दल ने सत्ता मिलते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया. पंजाब के पानी का मसला, पंजाबी भाषी इलाकों का मसला और चंडीगढ़ का मसला भी इसी तरह ठंडे बस्ते में चला गया. 

उसी समय गुरचरन सिंह टोहरा प्रकाश सिंह बादल से अलग हो गए. अकालिओं के सत्ता से बाहर होने के बाद दोनों 2003 में फिर हाथ मिलाते हैं. 2002 में कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने सरकार बनाई. 

 2007 में अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार में बादल चौथी बार मुख्यमंत्री बने. 10 साल के इस राज में अकाली-भाजपा सरकार ने औद्योगीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीति को आगे बढ़ाया गया. बाजारीकरण के दबाव में खेती और किसानी सरकार के एजेंडे से दूर हो गई. बादल परिवार और उनके रिश्तेदारों के कारोबार फलने-फूलने की खबरें हर दिन आने लगीं. 

2008 में ही सुखबीर बादल अकाली दल के अध्यक्ष बने. इसके बाद उप-मुख्यमंत्री बन गए. 2009 में हरसिमरत कौर बादल लोकसभा पहुंच गई. 2014 में मोदी सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया. इस तरह अकाली दल अन्य परिवारवादी पार्टियों जैसी बन गई. पंथक मुद्दे अकाली दल के एजेंडे से दूर हो गए. बादल सरकार द्वारा शुरू की गई मुफ्त आटा-दाल स्कीम और शगुन स्कीम में बड़े पैमाने पर धांधलियां सामने आने लगी. 

आम जनता के बड़े हिस्से से अकाली सरकार कट गई. लिहाजा पंजाब के हर वर्ग में गुस्सा पैदा होने लगा. पंजाब में नशे की समस्या ने विकराल रूप ले लिया और इसी दौर में बड़े पैमाने पर नौजवानों का विदेश पलायन भी शुरू हो गया. इसी 10 साल में डेरा सिरसा विवाद भी हुआ. 2015 में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला भी सामने आया जिसने अकाली दल को नुकसान पहुंचाया. 2014 और 2017 का चुनाव जीतने के लिए अकाली दल ने शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी से डेरा सिरसा मुखी गुरमीत राम रहीम को माफी दिलाई यह मामला अभी भी बादल परिवार का पीछा नहीं छोड़ रहा. 

गुरमीत राम रहीम सिंह

गौरतलब है कि गुरमीत राम रहीम ने अकाली सरकार के समय गुरु गोबिंद सिंह जैसी पोशाक पहन कर एक कार्यक्रम किया था जिसमें उसने अपना एक ‘इंसा’ धर्म चलाने का दावा किया था. इसके बाद अकाल तख़्त से डेरा सिरसा के बहिष्कार का ऐलान किया गया था. उसके बाद डेरा प्रेमियों के साथ यह टकराव बढ़ता गया. 

2017 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल की करारी हार हुई. प्रकाश सिंह बादल ने, सुखबीर बादल और अन्य पार्टी नेताओं के साथ बेअदबी मसले पर अकाल तख्त पर पेश हो कर माफी मांगी. पर जनता का भरोसा नहीं जीत पाए. जब कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब से किसान संघर्ष उठने लगा तब अकाली दल ने शुरुआत में मोदी सरकार का समर्थन किया और कानूनों के पक्ष में प्रकाश सिंह बादल ने बयान दिया. जब पंजाब के लोगों ने कानूनों के विरोध में भाजपा के साथ-साथ अकाली दल को भी घेरा तब मजबूरी में अकाली दल ने भाजपा से अपना नाता तोड़ा और हरसिमरत कौर बादल ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया. लेकिन यह सब अकाली दल के काम नहीं आया. 2022 के विधानसभा चुनाव में अकाली और कांग्रेस दोनों से निराश पंजाब की जनता ने बड़े बहुमत से आम आदमी पार्टी को जिताया. 

पंजाब की राजनीति के जानकार प्रो. बावा सिंह कहते हैं, “अकाली दल के समय बादल परिवार ने सत्ता माफिया की तरह चलाई. गैर-कानूनी माइनिंग, केबल माफिया, ट्रांसपोर्ट सिंडिकेट ने अपना पैर पसारा, नशा महामारी बन गया. अकाली नेताओं पर नशे के कारोबार के आरोप लगे. मोदी सरकार में मुसलमानों और दलितों पर हुए हमलों पर अकाली दल ने खामोशी ओढ़ ली. अनुच्छेद 370 के खात्मे पर भी ये चुप रहे.”

पंजाब में वामपंथी धारा की पत्रिका ‘सुर्ख लीह’ के संपादक पावेल कुस्सा कहते हैं, “अकाली दल के जिस संघर्ष को याद किया जाता है वो एक सदी पुरानी बात हो चुकी है. उस विरासत और आज के समय में बहुत फासला है. आज़ादी के बाद उस विरासत के नाम पर पंजाब के सामंती वर्ग ने सत्ता का आनंद लिया. अकाली दल का शुरुआती चरित्र साम्राज्यवाद विरोधी और जनवादी था.”

अकाली दल का बागी धड़ा और उसकी सियासत 

अकाली दल में गुटबंदी कोई नई बात नहीं है. पुराने अकाली नेताओं मास्टर तारा सिंह और संत फतेह सिंह की आपसी खींचतान रहती थी. प्रकाश सिंह बादल, गुरचरन सिंह टोहरा, जगदेव सिंह तलवंडी, सुरजीत सिंह बरनाला के अपने-अपने गुट थे. लेकिन प्रकाश सिंह बादल को बढ़त इसलिए थी क्योंकि शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर उनकी पकड़ मज़बूत थी. प्रोफेसर आशुतोष का कहना है, “अकाली दल में गुटबाजी कोई नई बात नहीं. लेकिन कामयाब वही गुट होगा जिसका एसजीपीसी पर कंट्रोल है.” 

इस बार अकाली दल में उस समय बगावत हो रही है जब वह लगातार चुनावी हारों से जूझ रही है. बागी धड़े ने अकाल तख्त में दिए अपने पत्र में गलतियों का जिक्र करते हुए क्षमा की अरदास लगाई है. इसमें पहला मामला डेरा सिरसा का है जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है. 

दूसरा मामला 2015 में हुई गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी की घटनाओं से जुड़ा है. आरोप है कि इसमें सुखबीर बादल के गृह मंत्री होने के बावजूद आरोपियों को सज़ा नहीं दिलाई गई. 

तीसरा मामला डेरा सिरसा के मुखिया को बिना मांगे माफी देने का है. सुखबीर सिंह बादल की मुसीबतें तब और बढ़ गई जब बेअदबी मामले के मुख्य मुल्ज़िम और डेरा सिरसा के समर्थक प्रदीप कलेर ने कुछ दिन पहले एक निजी चैनल को इंटरव्यू में सुखबीर बादल और राम रहीम की मुलाकात का आरोप लगाया.

चौथा मामला अकाली सरकार के समय आतंकवाद के दौर के बदनाम पुलिस अफ़सर सुमेध सैनी को पंजाब पुलिस का मुखिया बनाने व पंजाब में आतंकवाद के समय झूठी पुलिस मुठभेड़ों की जांच के लिए कमीशन नहीं बनाने का है. 

लहरागागा में एक रैली के दौरान सुखबीर सिंह बादल.

अकाल तख्त द्वारा सुखबीर बादल को तलब किये जाने के बाद वो 24 जुलाई को अकाल तख्त के सामने पेश हुए और एक बंद लिफाफे में अपना पक्ष अकाल तख्त के सामने रखा. पांच अगस्त को अकाल तख्त द्वारा सुखबीर बादल और शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण को सार्वजनिक किया गया. इस मामले में फैसला पांचों तख्तों के जत्थेदारों की अगली मीटिंग में होगा. सुखबीर की तरफ से दिए गए माफीनामें में कहा गया है कि वह श्री अकाल तख्त को समर्पित हैं. उसके खिलाफ जो भी लिख कर दिया गया है वह उस के वास्ते गुरु ग्रन्थ साहिब और गुरु पंथ से बिना शर्त क्षमा याचना करते हैं. परिवार का मुखी होने के नाते (अकाली दल का अध्यक्ष होने के नाते) वह सभी भूलों को अपनी झोली में डालते हैं. 

सिख राजनीति को बारीकी से समझने वाले कई विश्लेषक मानते हैं कि सुखबीर की भाषा माफी वाली नहीं थी. अकाली दल का सुखबीर से बागी हुआ धड़ा उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने पर अड़ा हुआ है. बागी गुट ने ‘शिरोमणी अकाली दल सुधार लहर’ शुरू की है जिसका कन्वीनर गुरप्रताप सिंह वडाला को बनाया गया है. इसका काम गांव-गांव जा कर लोगों को अपने साथ जोड़ना है. ‘शिरोमणी अकाली दल सुधार लहर’ के ऐलान के तुरंत बाद शिरोमणी अकाली दल की अनुशासन कमेटी ने गुरप्रताप सिंह वडाला समेत 8 बागी नेताओं को पार्टी से निकाल दिया.  

बागी धड़े का आरोप है कि वह अकाली दल से अलग नहीं होना चाहते उनकी मांग सिर्फ यही है कि सुखबीर पार्टी की अध्यक्षता छोड़ दें क्योंकि उन्हीं की नीतियों के कारण अकाली दल इस हालत में पहुंचा है. 

बागी गुट के नेता प्रेम सिंह चंदूमाजरा फेडरल हितों का दावा करने वाली पार्टी के कमज़ोर होने बारे हमें बताते हैं कि उनकी पार्टी इस बार राष्ट्रीय स्तर बने किसी भी खेमे में नहीं थी. न ही पार्टी नई उठ रही पंथक राजनीतिक लहर को अपना सकी.     

चंदूमाजरा बीबीसी पंजाबी को दिए एक इंटरव्यू में कहते हैं कि अमृतपाल के मामले में पार्टी का स्टैंड गलत था. पार्टी को उसके विरुद्ध  उम्मीदवार नहीं खड़ा करना चाहिए था.

पूर्व मंत्री और सुखबीर बादल के नज़दीकी दलजीत सिंह चीमा अकाली दल की कमज़ोर होती हालत, उग्र सिख राजनीति और बगावत को लेकर कहते हैं, “23 सालों बाद पहली बार अकाली दल ने भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ा था. जिन सीटों पर पहले गठबंधन के समय भाजपा चुनाव लड़ती थी, अकाली दल वहां अपना आधार नहीं बना पाया. पार्टी में अभी भी तमाम पहलूओं पर मंथन चल रहा हैं. हमने झूंदां कमेटी की कई सिफारिशों को भी मान लिया है, कुछ को धीरे-धीरे मान लिया जायेगा.” 

गौरतलब है कि ये शिरोमणि अकाली दल की चुनाव समीक्षा कमेटी है, इसे झूंदा कमेटी भी कहा जाता है.

एक कार्यक्रम के दौरान दलजीत सिंह चीमा

लोकसभा में उग्रपंथी विचारों वाले दो उम्मीदवारों के जीतने पर चीमा कहते हैं, “ऑपरेशन ब्लू स्टार और दिल्ली के सिख कत्लेआम मामलों में अभी तक इन्साफ नहीं मिला है. सिखों की यह टीस किसी न किसी रूप में प्रगट हो जाती है. लंबे समय से सज़ा पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई का मुद्दा भी लटक रहा है.” 

प्रोफेसर बावा सिंह बताते हैं, “सुखबीर बादल किसी भी तरह अकाली दल पर कब्जा नहीं छोड़ना चाहते. 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह से हुई हार के बाद पूर्व विधायक इकबाल सिंह झूंदां की अगुवाई में बनी 13 सदस्यीय कमेटी की सिफारिशों को पार्टी अध्यक्ष लागू करने से भाग रहे हैं. कमेटी की एक सिफारिश यह भी थी कि पार्टी में ऐसे नेताओं को लीडरशिप में आगे लाया जाए जो सबको स्वीकार्य हों. दूसरी तरफ पंजाब के लोग बागी अकाली नेताओं पर भी यकीन नहीं कर पा रहे. जब पार्टी बिलकुल कमज़ोर हुई तब ये बागी बन गए. उससे पहले सत्ता भोग रहे थे.” 

पंथक राजनीति के खालीपन को उग्रपंथी नेता भरेंगे? 

पंजाब की राजनीति में तुलनात्मक रूप से उदार माने जाने वाले शिरोमणी अकाली के कमज़ोर पड़ने से जो जगह पैदा हुई है, क्या उसे उग्रपंथी विचारधारा वाले नेता भरेंगे? लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत ने इस सोच को बल दिया है. जेल में बंद अमृतपाल के परिवार और उनके समर्थकों ने लोकसभा चुनाव में खालिस्तान के मुद्दे का ज़िक्र तक नहीं किया. उन्होंने यह चुनाव नशे, अमृतपाल की रिहाई और बंदी सिखों की रिहाई जैसे मुद्दों पर लड़ा. जीत के बाद उसकी मां ने कहा कि उसका बेटा कोई खालिस्तानी विचारधारा वाला नहीं है, उसे बदनाम किया जा रहा है. उसने भारतीय संविधान की शपथ भी ले ली है.

इस बयान के बाद अमृतपाल के नाम से बने एक X खाते से ट्वीट आता है जिसमें उसकी मां के बयान की आलोचना की गई करते कहा गया कि ‘खालसा राज’ का सपना देखना कोई गुनाह नहीं है. अमृतपाल सिंह के पिता तरसेम सिंह ने मीडिया से कहा कि अमृतपाल ने उन्हें शिरोमणी गुरुद्वारे प्रबन्धक कमेटी के चुनाव की तैयारी करने को कहा है. 

सरबजीत सिंह खालसा की तस्वीर.

फेसबुक प्रोफाइल

फरीदकोट लोकसभा के सांसद सरबजीत खालसा का कहना है कि उन्होंने कभी भी खालिस्तान की मांग नहीं की. आने वाले समय में वह अमृतपाल सिंह से मिल कर नई राजनीतिक पार्टी बनाने की योजना बना रहे हैं. उनका कहना है कि अमृतपाल के जेल से रिहा होने के बाद नई पार्टी की स्थापना की जाएगी. 

जिस थोड़े समय के दौरान अमृतपाल दुबई से पंजाब आया और दीप सिद्धू के संगठन‘वारिस पंजाब दे’ का मुखिया बन गया, वह हमेशा शक के घेरे में रहा है. लोकसभा चुनाव में पंजाब में सबसे ज्यादा मार्जिन से जीतने वाला अमृतपाल सिंह अमृतसर जिले से ताल्लुक रखते हैं. 2022 में किसान आंदोलन खत्म होने के बाद अमृतपाल अपना ट्रांसपोर्ट का धंधा छोड़ दुबई से भारत आए.

अमृतपाल से अलग हुए एक गुट का आरोप है कि उसने दीप सिद्धू के संगठन पर जबरी कब्जा किया है. जरनैल सिंह भिंडरावाले की नक़ल करता हुआ अमृतपाल भड़काऊ भाषण देता है, खालिस्तान की मांग करते हुए कहता है कि उसे हिन्दू राष्ट्र से कोई दिक्कत नहीं. हिंदुस्तान की सरकार सिखों को खालिस्तान दे दे. 

वह पंजाब के ईसाइयों पर उकसाऊ बयानबाजी करता है और उसके समर्थक ईसाईयों की सभाओं में जाकर हुडदंग मचाते हैं. अमृतपाल ईसाई पादरियों द्वारा दलित सिखों को ईसाई बनाये जाने का मुद्दा उछालता है. उसके समर्थक गुरुद्वारों से मेज कुर्सियों को यह तर्क देकर बाहर निकालते हैं कि ये गुरु ग्रन्थ साहिब की तौहीन है. 

जब अमृतपाल ने गुरुग्रन्थ साहिब की आड़ लेकर अजनाला थाने का घेराव किया तब सिख समुदाय में उसका बड़े स्तर पर विरोध हुआ. कई सिख विद्वान दबी आवाज़ में कहने लगे कि वह गुरुबाणी की गलत व्याख्या कर रहा है. एक-दो बार तो उसने खुद भी यह स्वीकार करते हुए माफ़ी मांगी और कहा कि उसने गुरुबाणी पढ़ी नहीं बल्कि यू-ट्यूब व पॉडकास्ट से सुनी है. इसके साथ ही अमृतपाल नशे के खिलाफ भी अभियान चलाता है. अमृतपाल की लंबे समय तक पुलिस से लुकाछिपी और ‘गिरफ्तारी’ किसी फिल्मी नाटक से कम नहीं थी.  

प्रकाश सिंह बादल, गुरचरन सिंह टोहरा, कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू जैसे बड़े नेताओं के सलाहकार रहे मालविंदर सिंह माली अकाली दल की मौजूदा स्थिति पर कहते हैं,“1996 से शुरू हुई परिवारवाद की सियासत ने अकाली दल में टूट पैदा की. सत्ता का सुख भोगने के लिए केंद्र सरकार के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया. ज़रुरत है इस ‘आत्मसमर्पण’ की नीति को बदलने की. मुझे नहीं लगता अमृतपाल या सरबजीत खालसा का कोई सियासी भविष्य है. इनके पास कोई सियासी विज़न और संगठनात्मक क्षमता नहीं है.”     

पंजाब में की चुनावी राजनीति में थोड़े-थोड़े समय के लिए उग्र नेता पैदा होते रहते हैं. 1989 के लोकसभा चुनाव में जज्बाती लहर में सिमरनजीत सिंह मान और उनके साथियों ने सात सीटें जीती थी. उसके बाद ये लगातार अप्रासंगिक होते गए. सिमरनजीत मान 2022 में भी संगरूर लोकसभा सीट के उपचुनाव में बहुत कम मतों से जीते थे.सिद्धू मूसेवाला के कत्ल से पैदा हुए भावनात्मक माहौल में लोगों ने सिमरनजीत मान को जीता कर भगवंत मान सरकार को सबक सिखाया. इस लोकसभा चुनाव में वह फिर हार गए. 

प्रोफेसर हरजेश्वर पाल सिंह पंजाब में रेडिकल सिख राजनीति के भविष्य के बारे में कहते हैं, “पंथक सियासत केंद्र शिरोमणी अकाली दल ही रहा है. इस समय पंथक सियासत का स्पेस काफी कम हो गया है और वो कई गुटों में बंट गई है. उग्र सिख ग्रुप भी कई टुकड़ों में बंटे हैं. इनके आपस में बड़े मतभेद हैं. इस तरह के बिखराव में जब चुनाव आता है तब वो पार्टियां आगे बढ़ जाती हैं जिनका परंपरागत संगठन और ढांचा होता है.” 

पंजाब की राजनीति में भाजपा की भूमिका बारे प्रोफेसर हरजेश्वर कहते हैं, “भाजपा चाहती है कि अकाली दल और कमज़ोर हो ताकि अकाली दल के साथ गठबंधन करने की स्थिति में वो जूनियर पार्टनर न रहे.पंजाब में भाजपा का अपने दम पर सत्ता में आना मुश्किल है.आप देखिए कि अकालियों से बागी हुए नेताओं का झुकाव भी भाजपा की तरफ ज्यादा नज़र आ रहा है.” 

दूसरी तरफ खालिस्तान समर्थक नेताओं को लेकर लोगों के अंदर यह भावना भी है कि ये लोग जब मुख्य धारा में आने लगते हैं तब समझौते करने लगते हैं. सिमरनजीत सिंह मान इसकी एक मिसाल हैं. वोट लेने के लिए वो हिन्दू धार्मिक समागमों और डेरों से जुड़े लोगों के यहां पहुंच जाते हैं. इससे रैडिकल सिखों में अविश्वास पैदा होता है. 

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