ज़ाहिद ख़ान
अख़्तर-उल-ईमान अपने दौर के संज़ीदा शायर और बेहतरीन डायलॉग राइटर थे। अक्सर लोग उन्हें फ़िल्मी लेखक के तौर पर याद करते हैं, मगर यह भूल जाते हैं कि फ़िल्मों में आने से पहले वो एक नामचीन शायर थे, और ताउम्र बेहद संज़ीदगी से शायरी करते रहे। उन्होंने शायरी की, नज़्में लिखीं, मगर फ़िल्मों के लिए कोई गाना नहीं लिखा। नग़मा निगारी से उन्होंने एक दूरी बनाए रखी। जबकि उनके सभी साथी शायर साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, जांनिसार अख़्तर वगैरह फ़िल्मों के लिए गीत लिख रहे थे।
अख़्तर-उल-ईमान का तरक़्क़ीपसंद तहरीक से भी वास्ता रहा और आख़िर तक ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ में सरगर्म रहे। वे एक आला नज़्म निगार थे। उर्दू अदब में जदीद नज़्मों की इब्तिदा उन्होंने ही की। उनकी नज़्मों में सीधी-सादी शायरी नहीं, बल्कि उनमें एक मुकम्मिल कहानी होती है, जो ख़त्म होते-होते पाठकों के जे़हन में अनगिनत सवाल छोड़ जाती हैं। वे एक यथार्थवादी और आधुनिक शायर थे। उनकी नज़्मों में सिर्फ़ इश्क-मुहब्बत ही नहीं, आम आदमी की ज़िंदगी की जद्दोजहद भी साफ दिखलाई देती है।
12 नवंबर, 1915 को पश्चिमी उतर प्रदेश के ज़िला बिजनौर की एक छोटी सी बस्ती क़िला पत्थरगढ़ में एक ग़रीब परिवार में जन्मे अख़्तर-उल-ईमान का बचपन बेहद गु़र्बत में बीता। उनकी शुरुआती तालीम अनाथालय के एक स्कूल में हुई। मैट्रिक के बाद उनका ग्रेजुएशन नई दिल्ली के ऐंगलो अरबिक कॉलेज में हुआ।
अख़्तर-उल-ईमान एक जज़्बाती इंसान थे। सत्रह-अठारह साल की उम्र में ही उन्होंने शायरी का आग़ाज़ कर दिया था। थोड़े से ही अरसे में अपनी रूमानी नज़्मों की बदौलत वे कॉलेज में अलग से पहचाने जाने लगे। उनके ख़ास दोस्त उन्हें ब्लैक जापान अख़्तर-उल-ईमान कह कर पुकारते। पढ़ाई और शायरी के अलावा उनकी दिलचस्पी सियासत में भी थी। स्टूडेंट पॉलिटिक्स में वे खुलकर हिस्सा लेते थे। आगे चलकर उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फारसी में एमए किया।
अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में ही पढ़ाई के दौरान अख़्तर-उल-ईमान, तरक़्क़ीपसंद शायरों के संपर्क में आए और उनकी शायरी में एक अलग रुजहान पैदा हुआ। पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद, एक बार फिर उनके सामने रोज़ी-रोटी का सवाल था। उन्होंने मेरठ और दिल्ली में छोटी-छोटी नौकरियां कीं। कुछ दिन दिल्ली रेडियो स्टेशन में भी रहे, मगर कहीं भी उनका स्थायी ठिकाना नहीं रहा। आखि़रकार, अख़्तर-उल-ईमान का लेखन ही काम आया।
दोस्तों की मदद से उन्हें पूना के ‘शालीमार पिक्चर्स’ में बतौर कहानीकार और संवाद लेखक की नौकरी मिल गई। शालीमार पिक्चर्स में उस वक़्त जोश मलीहाबादी, सागर निज़ामी, कृश्न चंदर और भरत व्यास जैसे आला दर्जे के अदीब पहले ही इकट्ठा थे, अख़्तर-उल-ईमान भी उस ग़िरोह का हिस्सा हो गए। ‘शालीमार पिक्चर्स’ के जब सितारे ग़र्दिश में आए, तो वे मुंबई चले आए।
अख़्तर-उल-ईमान ने बचपन से ही ख़ूब ग़रीबी झेली थी, करियर बनाने के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी। कुछ ही दिनों में उन्होंने डायलॉग राइटर के तौर पर अपनी पहचान बना ली। एक ज़माना था, जब हिंदी सिनेमा के बड़े बैनर की फ़िल्में उन्हें ही मिलती थीं। और इन फ़िल्मों की कामयाबी में भी अख़्तर-उल-ईमान के धारदार डायलॉग का हाथ होता था। फ़िल्मों में लिखे उनके डायलॉग, थिएटर से निकलकर दर्शकों के घर तक जाते थे।
अख़्तर-उल-ईमान की एक तरफ फ़िल्मों में स्टोरी और डायलॉग राइटर के तौर पर धूम मची हुई थी, तो दूसरी ओर वे शायरी में भी मशगूल थे। तमाम मसरूफ़ियत के बाद भी उन्होंने शायरी से किनारा नहीं किया। शायरी में वे फै़ज़ अहमद फै़ज़, मुईन अहसन जज़्बी, मजाज़, मख़दूम, और मीराजी से ज़्यादा मुतास्सिर थे। या यूं कहें, मीराजी का ही उन पर ज़्यादा असर था। यही वजह है कि उनकी शायरी भी व्यक्तिवादी और प्रतीकवादी है।
आगे चलकर उनकी शायरी ने सामाजिकता को एक अलग एंगल से छुआ। उनकी बेहद चर्चित नज़्मों में से एक ‘एक लड़का’ नज़्म पर नज़र डालिए, ‘‘मैं उस लड़के से कहता हूं वो शोला मर चुका जिस ने/कभी चाहा था इक ख़ाशाक-ए-आलम फूंक डालेगा/ये लड़का मुस्कुराता है ये आहिस्ता से कहता है/ये किज़्ब-ओ-इफ़्तिरा है झूठ है देखो मैं ज़िंदा हूं।’’
साल 1942 से 1947 तक बंबई में तरक़्क़ीपसंद तहरीक अपने उरूज पर थी। अख़्तर-उल-ईमान भी अक्सर ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ के जलसों में जो सज्जाद ज़हीर के घर होते थे, शरीक होते। और बहस में हिस्सा लेते, अपनी नज़्में पढ़ते थे। ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ की 1949 की भिवंडी कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने न सिर्फ़ सरगर्मी से हिस्सा लिया, बल्कि इंतिहा पसंदआना क़रारदाद (प्रस्ताव) की शदीद मुख़ालफ़त भी की।
अख़्तर-उल-ईमान ने ग़ज़ल की बजाय नज़्म ही ज़्यादा लिखीं। उर्दू अदब में उनकी पहचान नज़्म निगार की है। ‘ज़िदगी का वक़्फ़ा’, ‘आखि़री मुलाकात’, ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘बिंत-ए-लम्हात’, ‘यादें’, ‘तन्हाई में’, ‘नया आहंग’, ‘उम्र-ए-गुरेज़ा के नाम’, ‘अहद-ए-वफ़ा’, ‘जिंदगी के दरवाज़े पर’ और ‘मताअ-ए-राएगां’ वगैरह उनकी मशहूर नज़्में हैं।
अख़्तर-उल-ईमान की शायरी में ज़िंदगी के छोटे-छोटे लम्हे, तअस्सुरात बड़े ही बारीकी से नुमायां होते हैं। कई मर्तबा इन नज़्मों में कु़दरत का बयान भी तफ़सील से आता है। ‘जाने शीरीं’, ‘मुहब्बत’, ‘अहद—ए—वफ़ा’ आदि अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों में मुहब्बत के नाजु़क-नाजुक एहसास हैं। अख़्तर-उल-ईमान अपनी शायरी पर खु़द तन्क़ीद करते थे।
एक किताब की भूमिका में उन्होंने अपनी शायरी के बारे में लिखा है, ‘‘यह शायरी मशीन में नहीं ढली, एक ऐसे इंसान के ज़ेहन की रचना है, जो दिन-रात बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों से दो-चार होता है। जहां इंसान ज़िंदगी और समाज के साथ बहुत से समझौते करने पर मजबूर है, जिन्हें वो पसंद नहीं करता। समझौते इसलिए करता है कि उसके बिना ज़िंदा रहना मुम्किन नहीं और उनके ख़िलाफ़ आवाज़ इसलिए उठाता है कि उसके पास ज़मीर नाम की एक चीज़ है।’’
ज़ाहिर है कि ये आवाज़ तन्हा अख़्तर-उल-ईमान के ज़मीर की ही आवाज़ नहीं, बल्कि उनके दौर के हर संवेदनशील शख़्स के ज़मीर की आवाज़ है। समाज में जो उन्होंने महसूस किया, उसे ही अपनी शायरी में ढाल दिया। यही वजह है कि अख़्तर-उल-ईमान की शायरी यथार्थ की बेहद खुरदुरी ज़मीन पर खड़ी दिखाई देती है। उनकी बाज़ नज़्में बड़ी तवील है, जिनमें वे एक कामयाब क़िस्साग़ो की तरह पूरे मंज़र को बयां करते चले जाते हैं। ‘डासना स्टेशन का मुसाफ़िर’, ‘दिल्ली की गलियां तीन मंज़र’ इन नज़्मों की कटगरी में शुमार होती हैं।
अख़्तर-उल-ईमान ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत साल 1948 में फ़िल्म ‘झरना’ से की लेकिन ‘कानून’ वह फ़िल्म थी, जिसने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। डायरेक्टर बीआर चोपड़ा की इस फ़िल्म में कोई गाना नहीं था। फ़िल्म की कामयाबी के पीछे इसके शानदार डायलॉग का हाथ था। आगे चलकर उन्होंने बीआर चोपड़ा और उनके भाई यश चोपड़ा की अनेक फ़िल्मों के डायलॉग लिखे।
अपने पचास साल के फ़िल्मी करियर में अख़्तर-उल-ईमान ने 100 से ज़्यादा फिल्मों के संवाद लिखे। जिनमें नग़मा, रफ़्तार, ज़िंदगी और तूफ़ान, मुग़ल-ए-आज़म, वक़्त, हमराज़, दाग़, आदमी, पाकीज़ा, पत्थर के सनम, गुमराह, मुजरिम, मेरा साया, आदमी और इंसान, चांदी-सोना, धरम पुत्र, और अपराध जैसी कामयाब फ़िल्में शामिल हैं। ‘वक़्त’ और ‘धरमपुत्र’ के लिए वो बेहतरीन संवाद लेखन के फ़िल्मफ़ेयर ऐवार्ड से नवाज़े गए। उन्होंने एक फ़िल्म ‘लहु पुकारेगा’ का डायरेक्शन भी किया, अलबत्ता यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकामयाब साबित रही।
अख़्तर-उल-ईमान साल 1943 में अपने पहले ही मज्मूआ-ए-कलाम ‘गिर्दाब’ के प्रकाशन के साथ ही सफ़-ए-अव्वल के शायरों में शुमार किए जाने लगे थे। इस किताब का तब्सिरा करते हुए फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था, ‘‘नये शायरों में सबसे घायल आवाज़ अख़्तर-उल-ईमान की है। उसमें जो चुटीलापन, तल्ख़ी और जो दहक और तेज़ धार है, वो ख़ुद बता देगी कि आज हिंदुस्तान के हस्सास नौजवानों की ज़िंदगी का अलमिया क्या है?’’
अख़्तर-उल-ईमान की नज़्मों के अनेक मजमूए शाया हुए। जिनमें ने से कुछ ख़ास किताबें हैं-‘सब रंग’, ‘तारीक सय्यारा’, ‘आब-ए-जू’, ‘यादें’, ‘बिंत लम्हात’, ‘नया आहंग’, ‘सर-ओ-सामां’, ‘ज़मीन ज़मीन’ और ‘ज़मिस्तां सर्द-मेहरी का’। ‘इस आबाद ख़राबे में’ उनकी आत्मकथा है, तो वहीं ‘सबरंग’ एक गीति-नाट्य है, जिसमें मज़दूरों के शोषण की प्रतीकात्मक कहानी है।
अपनी बेमिसाल तख़्लीकात के लिए अख़्तर-उल-ईमान कई एज़ाज़ और इनामात से भी नवाजे़ गए। किताब ‘यादें’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी ऐवार्ड, तो ‘बिंत लम्हात’ पर उ.प्र. उर्दू अकादेमी और मीर अकादेमी ने उनको इनाम दिया। महाराष्ट्र उर्दू अकादेमी ने किताब ‘नया आहंग’ को अवॉर्ड दिया। यही नहीं ‘सर-ओ-सामां’ के लिए वो मध्य प्रदेश सरकार के ‘इक़बाल सम्मान’ से नवाज़े गए। इसी किताब पर उनको दिल्ली उर्दू अकादेमी और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने भी इनामात दिए।
शायरी हो, नस्र, तक़रीर हो या फिर इंटरव्यू अख़्तर-उल-ईमान निहायत बेबाकी, सच्चाई और दयानत से अपने ख़यालात का इज़हार करते थे। समाजवाद पर उनका यक़ीन आख़िर तक क़ायम रहा। अख़्तर-उल-ईमान जब साहित्य अकादेमी का इनाम लेने दिल्ली आए, तो अकादेमी के जानिब से ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में उनके ऐज़ाज़ में एक जलसा हुआ। जिसमें क़ौमी मीडिया के नामवर अख़बार नवेस भी आमंत्रित थे। उनमें से एक जर्नलिस्ट ने अख़्तर-उल-ईमान से सवाल किया कि ‘‘दुनिया आज जिस तरह के आशोब (संकट) से दो-चार है, उसका हल उनके नज़दीक क्या है ?’’ जवाब में अख़्तर-उल-ईमान ने कहा कि ‘‘इस सवाल का जवाब एक तवील तक़रीर (लंबे भाषण) से भी दिया जा सकता है, लेकिन मैं सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि इस आशोब को हल करने की चाबी इश्तिराकियत (साम्यवाद) है।’’