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अल्कोहलिक विक्षिप्तता :  आत्ममुग्धता में डूबा मध्यवर्ग

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मीना राजपूत

अपने में भर सबकुछ कैसे ये व्यक्ति विकास करेगा!

यह एकांत महा~ भीषण है, अपना ही नाश करेगा!!

             ~ कामायनी.

     _आज से 50 या 60 वर्ष पूर्व प्रख्यात लेखक कमलेश्वर ने  एक कहानी लिखी थी “दिल्ली में एक मौत”। इस कहानी का बाद में एक अमेरिकन  गार्डन सी रोडरमल ने अंग्रेज़ी  में अनुवाद किया था  “A Death in Delhi.”_

        कहानी में दिल्ली के एक इलाके में एक व्यक्ति सेठ दीवान चंद की मृत्यु का ज़िक्र है। यद्यपि दीवान चंद ने बहुत सारे लोगों की सहायता की होती है लेकिन उस की शव यात्रा में लोग बहुत अनमने ढंग से जाते हैं। लेखक भी शव यात्रा में जाने से बचता है।और अंत में वह अपने को जाने से नहीं रोक पाता।

          कहानी महानगरों में मानवीय संबंधों में  निर्व्यक्तिकता और संवेदनहीनता को उजागर करती है।आज 50-60 वर्ष पश्चात यह संवेदनहीनता पहले से कई गुना  बढ़ गई है। कुछ दिनों पूर्व आकाशवाणी की एक पूर्व महिला प्रोड्यूसर की मृत्यु की खबर मिली।

        मृत्यु की खबर वैसे ही दुखदाई थी लेकिन उससे ज्यादा दुखदाई था कि उनकी मृत्यु एक फ्लैट में हुई थी और 2 दिन तक उनका शव फ्लैट में ही पड़ा था। तीसरे दिन जब उनके घर काम करने वाली नौकरानी आई और उसके द्वारा दरवाज़े पर घंटी बजाने के बावजूद दरवाजा नहीं खुला तो उसने अड़ोस पड़ोस वालों को सूचित किया और फिर दरवाजा तोड़ा गया तो वहां भद्र महिला को मृत पाया गया।   

कुछ समय पूर्व ऐसा ही  विविध भारती मुंबई की एक लोकप्रिय  उद्घोषक शहनाज़ के साथ हुआ। शहनाज़ की मृत्यु के लगभग 2 हफ्ते बाद उनके सहकर्मियों को पता चला कि शहनाज़ इस दुनिया से विदा ले चुकी है।

       अब यह घटनाएं इक्का-दुक्का नहीं बल्कि आम हो गई  हैं। मुझे कई बार  ऐसे लोगों की मृत्यु पर पहुंचने का अवसर प्राप्त हुआ जहां शव को श्मशान घाट तक ले जाने के लिए गिने-चुने दो-चार लोग ही थे। पहले  शहरों में “मोहल्ला संस्कृति” हुआ करती थी।

         मोहल्ले के लोग एक दूसरे के सुख दुख में साथ खड़े होते थे।जनसंख्या दबाव के साथ “मोहल्ला संस्कृति” का स्थान “फ्लैट संस्कृति” ने ले लिया है। यह जो फ्लैट संस्कृति विकसित हुई है उसने अजनबियतपन को बढ़ावा ही  दिया है।एक ही फ्लोर पर  रहने वाले दो पड़ोसी एक दूसरे के बारे में नहीं जानते और ना जानना चाहते हैं। वहां देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोग अलग-अलग कार्यक्षेत्र में व्यस्त रहते हैं।

         मुलाकात प्रायः लिफ्ट में होती है. फ्लैटों में आजकल बहुत सारे ऐसे परिवार रहते हैं जिनके बच्चे या तो विदेश में है या फिर दूसरे शहरों में नौकरी कर रहे होते हैं। यह मां-बाप अपना शहर छोड़ना नहीं चाहते और बच्चों के कार्यस्थल शहर जाना नहीं चाहते।

      संयुक्त परिवारों के विखंडन ने परिवारों को अलग-थलग कर दिया। सोने में सुहागा मध्य वर्ग की आत्म केंद्रिकता और आत्ममुग्धता । साथ में आभासी दुनिया का वर्चस्व । 

आज स्थिति  यह है कि यदि कोई गंभीर रूप से बीमार है तो उसे तीमारदारों का अभाव है । यह सारा परिदृश्य एक भयावह स्थिति की ओर इशारा करता है।खाते पीते मध्य वर्ग के पास  अच्छा मकान हो सकता है, अच्छा बैंक बैलेंस हो सकता है, बच्चों को रोजगार की दिक्कत नहीं।

       लेकिन आपातकालीन परिस्थितियों में साथ में खड़ा होने के लिए दो चार लोग भी नहीं होते। कुछ वर्ष पूर्व मैंने नोएडा का एक किस्सा कहीं पढ़ा था। वहां सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त किन्ही उच्च अधिकारी ने एक मकान खरीदा।

        बच्चे विदेश में थे । मेम साहब को पड़ोसी अपने स्टैंडर्ड के नहीं लगते थे इसलिए उनका उनसे  कोई व्यवहार नहीं। एक दिन अचानक अधिकारी महोदय की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। मेम साहब के  हाथों के तोते उड़ गए। किससे कहें? शव घर में 2 दिन पड़ा रहा। अंततः बच्चे विदेश से आए तब जाकर साहब का अंतिम संस्कार हो पाया। 

आज अगर इस स्थिति  से बचना है तो सभी को अपने भीतर सामुदायिक भावना विकसित करनी पड़ेगी। जहां हम  रहते हैं वहां एक न एक समूह का निर्माण करना चाहिए।

      यदि कोई बीमार पड़ता है तो उसकी सहायता के लिए दूसरे लोगों को भी बराबर के स्तर का सक्रिय होना चाहिए। शिक्षित मध्यवर्ग के अधिकांश के बच्चे दूसरे प्रदेशों में नौकरी करते हैं। घर में केवल मां-बाप या  एक दो अन्य सदस्य ही रह  जाते हैं।  आपातकालीन स्थिति में बच्चों के लिए तुरंत पहुंचना भी कई बार संभव नहीं होता। ऐसे में अड़ोस पड़ोस के लोग ही काम आएंगे।

       आज उत्तर भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर ढेर सारे  समूहों के निर्माण की जरूरत है. कोरोना काल में  हमने देखा कि कैसे लाखों लोग सुविधाओं के अभाव में दर-दर भटकने को मजबूर हुए।

       लेकिन  यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आत्म केंद्रित और आत्ममुग्ध मध्यवर्ग अपने आसपास घट रही घटनाओं से सबक लेगा या फिर “एकला चलो”की राह पर चलते हुए एक त्रासद अंत की नियति के लिए अभिशप्त होगा।

     {चेतना विकास मिशन)

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