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उम्मीद जगाती एक उत्कृष्ट फिल्म ‘मानिक बाबूर‌‌ मेघ’

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जयनारायण प्रसाद 

मसाला फिल्मों की भीड़ में जगह बनाना सबसे मुश्किल काम है। ऐसे में कोई फिल्म तमाम दिक्कतों और जद्दोजहद से जूझते हुए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती है, तो उसकी तारीफ जरूर की जानी‌ चाहिए। ऐसी ही एक उत्कृष्ट बांग्ला फिल्म है ‘मानिक बाबूर मेघ।’ इस फिल्म का अंग्रेजी टाइटल है ‘द क्लाउड एंड द मैन।’ ब्लैक एंड ह्वाइट (श्वेत-श्याम) में बनी एक घंटा छत्तीस मिनट की‌ यह बांग्ला फिल्म बेहद कम बजट की है, लेकिन इसका कंटेंट (विषय-वस्तु) इतना संवेदनशील और रचनात्मक है कि आप ‘मानिक बाबूर मेघ’ को देखने बैठेंगे, तो पूरी फिल्म देखकर ही बाहर निकलेंगे। फिल्म के मुख्य किरदार मानिक बाबू (अभिनेता चंदन सेन) ने इस बांग्ला फिल्म में इतना डूबकर अभिनय किया है कि हर फ्रेम में दर्शकों की नजर उन पर टिकी रहती है। लगता है, सिनेमा के स्क्रीन पर एक बेहतरीन कविता पढ़ रहा हूं।

पूरी फिल्म यथार्थ और कल्पना के ताने-बाने में बुनी गई है। फिल्म देखते वक्त लगता है यह तो हमारे आसपास की कहानी है। ‘मानिक बाबू’ हमारे बीच के आदमी हैं। 

इस फिल्म के निर्देशक अभिनंदन बनर्जी काफी युवा है। कहानी, पटकथा और निर्देशन तीनों उन्हीं का है। बौद्धायन मुखर्जी फिल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ के सह-लेखक भी हैं और इस फिल्म के निर्माता भी। बौद्धायन मुखर्जी और मोनालिसा मुखर्जी दोनों ने मिलकर इस खूबसूरत बांग्ला फिल्म को प्रोड्यूस भी किया है। मोनालिसा मुखर्जी ‘मानिक बाबूर मेघ’ की कॉस्ट्यूम डिजाइनर भी हैं।

‘मानिक बाबूर मेघ’ (द क्लाउड एंड द मैन)‌ दरअसल एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो किराए के एक जर्जर मकान में सबसे ऊपरी मंजिल पर रहता है। उसका नाक-नक्श बताता है कि ‘मानिक बाबू’ ना अधेड़ है और ना ही बुजुर्ग। घर में एक बीमार बाप भी है, जिसे अपने हाथों से मानिक बाबू खाना खिलाता है। देह-हाथ भी पोंछता है। उस मकान के ऊपरी हिस्से में छोटे-छोटे पौधे भी है, जिसकी देखभाल मानिक बाबू खुद करते हैं। वह अपने मोहल्ले में सामान्य लोगों की तरह कभी-कभी छोटे होटल में लंच भी करते हैं और सड़क के कुत्तों को खाना भी खिलाते हैं। जब बारिश आती है, तो आनंद से उसका लुत्फ भी उठाते हैं। यह बांग्ला फिल्म पर्यावरण की रक्षा का संदेश भी हमें देती है। ऊंची-ऊंची इमारतों वाले शहर में पेड़-पौधों की फ़िक्र कौन करता है ! एक पतनशील और ढहते हुए शहर की कथा भी है, इस बांग्ला फिल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ में। निर्देशक अभिनंदन बनर्जी ने सभी दृश्यों को बहुत बढ़िया ढ़ंग से पिरोया है। 

लेकिन, इस फिल्म में बादलों की गड़गड़ाहट से मानिक बाबू काफी डरते भी हैं। मानिक बाबू का यह एकाकीपन तब और घना हो जाता है, जब मकान मालिक उससे कहता है, अब दूसरा मकान तलाश लीजिए। वह दूसरा मकान तलाश भी करता है, लेकिन उसकी शर्त होती है मुझे ऊपरी मंजिल वाली छत चाहिए। 

धीरे-धीरे मानिक बाबू को बादलों और उसकी बारिश से प्रेम हो जाता है। जिस बादल से मानिक बाबू को कभी डर लगता था, वह अब उसके अकेलेपन का पूरक है। दिक्कत यह है मानिक बाबू का कोई ‌हमदर्द भी नहीं है। बारिश ही मानिक बाबू के अकेलेपन का साथी बन जाता है। बारिश  की बूंदें एक रचनात्मक उम्मीद की तरह मानिक बाबू की जिंदगी को अपने आगोश में ले लेती हैं। एक मध्यवर्गीय व्यक्ति की जटिलताओं और जीवन संघर्ष में बारिश की बूंदें राहत देने का काम करती हैं। 

बहुत अच्छी फिल्म है ‘मानिक बाबूर मेघ।’ अकेलेपन की त्रासद स्थितियों में भी बारिश हमें किस तरह रचनात्मक बना सकती है, फिल्म का मुख्य किरदार यही संदेश देता है। फिल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ में मानिक बाबू का मुख्य किरदार निभाने वाले चंदन सेन को रूस में आयोजित 19वें पैसिफिक मेरिडियन फिल्म महोत्सव में बेस्ट एक्टर का पुरस्कार मिल चुका है। 26 फरवरी, 1963 को कलकत्ता में जन्मे 61 साल के चंदन सेन बुनियादी तौर पर बांग्ला थिएटर के दक्ष अभिनेता हैं। वर्ष 1977 से वह बांग्ला थिएटर से जुड़े। ढेर सारा बांग्ला सीरियल भी चंदन सेन ने किया है और कुछ बांग्ला फिल्में भी। वर्ष 2010 से कैंसर की बीमारी से जूझ रहे चंदन सेन खुद को ‘फाइटर’ मानते हैं और कहते हैं – ‘अभिनय में मेरी सांसें बसती हैं। अभिनय भी करता रहूंगा और जिंदगी से लड़ता भी रहूंगा।’

‘मानिक बाबूर मेघ’ ने अब तक ढेर सारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में हिस्सा लिया है। उत्तरी यूरोप के ‘टाटिन ब्लैक नाइट’ फिल्म फेस्टिवल से लेकर अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सेंटा बारबरा फिल्म फेस्टिवल, इंग्लैंड के एडिनबर्ग फिल्म महोत्सव, हांगकांग के फॉयर बर्ड फिल्म स्पर्धा, कोलकाता के बेस्ट एशियन फिल्म (नेटपैक पुरस्कार), ताई-पाई गोल्डन होर्स फेंटास्टिक फिल्म फेस्टिवल, एशिया पैसिफिक स्क्रीन अवार्ड्स और अनगिनत सम्मान निर्देशक अभिनंदन बनर्जी की झोली में हैं। भारत के तमाम फिल्म महोत्सवों में भी ‘मानिक बाबूर मेघ’ ने अपना परचम लहराया है।

‘मानिक बाबूर मेघ’ के निर्माता बौद्धायन मुखर्जी और मोनालिसा मुखर्जी ने बहुत जोखिम उठाकर इस बांग्ला फिल्म में अपना पैसा लगाया है। कोलकाता समेत दूसरे शहरों में भी लोग यह फिल्म देख रहे हैं और सबकी जुबान पर है ‘क्वालिटी सिनेमा अभी मरा नहीं है। इस‌ फिल्म में ब्रात्य बसु (डॉ साधन की भूमिका में), निभाई घोष (पिता की भूमिका में), अरुण गुहाठाकुरता (मकान मालिक के किरदार में) और देवेश रायचौधरी (काली की भूमिका में) ने भी छोटा, लेकिन अच्छा काम किया है।

इस बांग्ला फिल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ में अनूप सिंह ने छायांकन किया है। संपादक हैं अभ्र बनर्जी। फिल्म के कला निर्देशक हैं, बबलू सिन्हा। इसके साउंड डिजाइनर हैं, अभिजीत टेनी‌ रॉय। म्यूजिक शुभजीत मुखर्जी का है। फिल्म का आखिरी गाना सचमुच लाजवाब है। बहुत दिनों बाद एक सुलझे हुए निर्देशक अभिनंदन बनर्जी का काम हमें देखने को मिला। अभिनंदन बनर्जी से हमारी उम्मीदें और बढ़ गई ‌हैं। बादल और बारिश के सहारे भी एक क्वालिटी और अनूठी फिल्म बनाई जा सकती है, यह बांग्ला फिल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ ‌देख कर लगता है। बौद्धायन मुखर्जी और मोनालिसा मुखर्जी को एक बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए फिर से धन्यवाद। उनकी हिम्मत को सलाम!

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