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आप (आत्म) की सत्ता का एक विवेचन

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 डॉ. विकास मानव

    _आप ‘शरीर मे’ हो, शरीर नहीं हो. नित्य आत्मा के अस्तित्व को न्याय, सांख्य, वैशेषिक आदि दर्शनकारों ने बहुत सी युक्तियों से सिद्ध किया है. इनमें से कुछ का विवेचन यहां संक्षेप से किया जा रहा है :_

*दर्शन स्पर्शनाभ्यामेकार्थ ग्रहणात।।*

  ~ न्यायदर्शन ३/१/१

        जिस वस्तु को आँखों से देखा हो उसको स्पर्शेन्द्रिय अथवा त्वचा से स्पर्श करके कहते हैं कि जिसको मैंने आँखों से देखा था उसी को त्वचा से स्पर्श किया।

      इससे विदित होता है कि इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला आत्मा है, यदि यह न होता तो आँख ने रूप देखा और स्पर्शेन्द्रिय ने स्पर्श किया फिर किस प्रकार कहा जाता कि जिस को मैंने देखा उसको स्पर्श करता हूँ.

  _इस पर यह शङ्का उठाई गई :_

      *‘न विषय व्यवस्थानात्।’*

              ~न्याय ३/१/२

  अर्थात् शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं, क्योंकि विषय नियत हो चुके हैं जैसे आँखों के होने से हम देखते है और न होने से नहीं देखते। कान के होने से हम सुनते हैं और कान के न होने से नहीं सुनते।

      रसना वा जिव्हा के होने से हम रस लेते हैं और रसना के न होने से रस नहीं लेते। इसी प्रकार शेष इंद्रियाँ भी अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं।

      इस दशा में जब इन्द्रिय के ठीक और शुद्ध होने से विषय का ग्रहण होता है और नहीं होने से नहीं होता फिर एक चेतन आत्मा मानने की क्या आवश्यकता है।

      _इसका उत्तर गौतम मुनि ने निम्न सूत्र द्वारा दिया है :_ — 

*तद् व्यवस्थानादेवात्मसद्भावादप्रतिषेध।*

        ~न्यायदर्शन ३/१/३

अर्थात् यदि एक इन्द्रिय सम्पूर्ण विषयों का ग्रहण करनेवाली होती तो इस दशा में चेतन आत्मा की आवश्यकता न होती, परन्तु जब एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियों के विषयों को अनुभव नहीं करती तो किस प्रकार एक के ज्ञान का दूसरे को बोध हो सकता है?

      इसलिये सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण करनेवाला आत्मा अवश्य है। इन्द्रियों का अपने नियत विषय को छोड़कर

दूसरे का काम न करना ही इसका प्रमाण है। स्मृति इन्द्रिय का विषय है या आत्मा का? यदि कहा जाये कि इन्द्रिय का, तो किस इन्द्रिय का?

 _इस पर गौतम कहते हैं :_

 *तदात्मगुण सद्भावादप्रतिषेधः।*

       ~न्यायदर्शन ३/१/१४,१९

अर्थात् स्मृति आत्मा का गुण है, क्योंकि दूसरे के अनुभव का दूसरे को ज्ञान वा स्मृति उत्पन्न नहीं होती और इन्द्रियों के चेतन मानने से बहुत से चेतन मानने पड़ेंगे जिससे विषय की व्यवस्था न होगी।

       इस कारण एक ही चेतन है जो बहतों को देखता है और वही पूर्व देखे हुए अर्थ का स्मरण करता है।

_इसी प्रकार आत्मा की नित्यता को सिद्ध करने के लिये न्यायदर्शन में कहा है :_

  *पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धात् जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्तेः।*         

           (३/१/१९)

अर्थात पहले अभ्यास की स्मति के लगाव से उत्पन्न हुए को हर्ष, भय,शोक की प्राप्ति होने से आत्मा नित्य है। तत्काल जन्मा बालक हर्ष, भय,शोक आदि से युक्त देखा जाता है और वे हर्षादि पूर्वजन्म में अभ्यास की गई स्मृति के अनुभव से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पूर्वाभ्यास बिना पूर्वजन्म के नहीं हो सकता।

      अतएव इससे सिद्ध है कि यह आत्मा इस शरीर के नष्ट होनेपर शेष रहता है अन्यथा सद्योजात बालक में हर्षादि की प्रतिपत्ति असम्भव है इससे आत्मा का नित्यत्व सिद्ध होता है।

  _आत्मा की नित्यता में गौतम इसी के साथ सम्बद्ध एक अन्य उत्तम युक्ति देते हैं :_

  *प्रत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात्।*

        ~ न्याय ३/१/१२

अर्थात मरकर जब प्राणी जन्म लेता है तब उसी समय बिना किसी की शिक्षा व प्रेरणा के स्वयं दूध पीने लगता है। यह बात बिना पूर्वकृत भोजनाभ्यास

के नहीं हो सकती क्योंकि इस जन्म में तो अभी उसने भोजन का अभ्यास किया ही नहीं फिर उसकी प्रवृत्ति उसमें कैसे हुई?

      इससे अनुमान होता कि इस शरीर से पूर्व भी शरीर था जिसमें उसने भी भोजन का अभ्यास किया था।

       जब उस शरीर को छोड़कर यह दूसरे शरीर में आया तब क्षुधा से पीड़ित होकर पूर्व जन्माभ्यास आहार का स्मरण करता हुआ दूध की इच्छा करता है।अतएव देह के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता।

       इनके अतिरिक्त कपिल मुनि ने सांख्य शास्त्र में :

    *”अस्त्यात्मा नास्तित्वसाधनाभावात्।” (६।५) और “देहादिव्यतिरिक्तोऽसौ वैचिज्यात्” के साथ “षष्ठीव्यपदेशादपि” (३।३)*  युक्ति दी है.

      _हम कहते हैं ‘यह मेरा शरीर है, यह मेरी बुद्धि है, यह मेरा मन है, मेरा मन कहीं गया हुआ था’इससे भी विदित होता है कि आत्मा इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर आदि से भिन्न है।_

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