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*प्राचीन जल-प्रलय : एक विहंगम विवेचन*

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           अनामिका, प्रयागराज

 प्रथम जल प्रलय-हमारे शास्त्रों में कई जल-प्रलयों की चर्चा है। पहला जल प्रलय प्रायः ३१००० ई.पू. में हुआ था जब उत्तर-ध्रुवीय हिम पिघलने के कारण समुद्र का स्तर बढ़ गया था। इसके सथ देव युग का अन्त हो गया। ब्रह्माण्ड पुराण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह हमारे कल्प के पूर्व आरम्भ हुआ।

    यह कलि (३१०२ ई.पू.) से २६००० वर्ष (अयन-चक्र) पूर्व अर्थात् २९१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ था।

 ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/६) :

अस्मात् कल्पात्ततः पूर्वं कल्पातीतः पुरातनः॥ चतुर्युगसहस्राणि सह मन्वन्तरैः पुरा॥१५॥
क्षीणे कल्पे ततस्तस्मिन् दाहकाल उपस्थिते। तस्मिन् काले तदा देवा आसन् वैमानिकस्तु वै॥१६॥
एकैकस्मिंस्तु कल्पे वै देवा वैमानिका स्मृताः॥१९॥
आधिपत्यं विमाने वै ऐश्वर्येण तु तत्समाः॥३२॥
ते तुल्य लक्षणाः सिद्धाः शुद्धात्मनो निरञ्जनाः॥३८॥
ततस्तेषु गतेषूर्ध्वं त्रैलोक्येषु महात्मसु। एत्तैः सार्धं महर्लोकस्तदानासादितस्तु वै॥४२॥
तच्छिष्या वै भविष्यन्ति कल्पदाह उपस्थिते। गन्धर्वाद्याः पिशाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥
सहस्रं यत्तु रश्मीनां स्वयमेव विभाव्यते। तत् सप्त रश्मयो भूत्वा एकैको जायते रविः॥४५॥
क्रमेणोत्तिष्ठमानास्ते त्रींल्लोकान्प्रदहंत्युत। जंगमाः स्थावराश्चैव नद्यः सर्वे च पर्वताः॥४६॥
शुष्काः पूर्वमनावृष्ट्या सूर्य्यैस्ते च प्रधूपिताः। तदा तु विवशाः सर्वे निर्दग्धाः सूर्यरश्मिभिः॥४७॥
जंगमाः स्थावराश्चैव धर्माधर्मात्मकास्तु वै। दग्धदेहास्तदा ते तु धूतपापा युगान्तरे॥४८॥

उषित्वा रजनीं तत्र :
ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पुनः सर्गे भवन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥
ततस्तेषूपपन्नेषु जनैस्त्रैलोक्यवासिषु। निर्दग्धेषु च लोकेषु तदा सूर्य्यैस्तु सप्तभिः॥५१॥
वृष्ट्या क्षितौ प्लावितायां विजनेष्वर्णवेषु च। सामुद्राश्चैव मेघाश्च आपः सर्वाश्च पार्थिवाः॥५२॥
शरमाणा ब्रजन्त्येव सलिलाख्यास्तथानुगाः। आगतागतिकं चैव यदा तत् सलिलं बहु॥५३॥
संछाद्येमां स्थितां भूमिमर्णवाख्यं तदाभवत्। आभाति यस्मात् स्वाभासो भाशब्दो व्याप्ति दीप्तिषु॥५४॥
सर्वतः समनुप्राप्त्या तासां चाम्भो विभाव्यते। तदन्तस्तनुते यस्मात् सर्वां पृथ्वीं समन्ततः॥५५॥
अध्याय ७-प्राक् सर्गे दह्यमाने तु पुरा संवर्तकाग्निना॥९॥
सप्तसप्त तु वर्षाणि तस्या द्वीपेषु सप्तषु॥१३॥
ऊपर लिखा है कि सूर्य का तेज ७ गुणा बढ़ने के कारण (सप्त-रश्मयः) होने के कारण ध्रुवीय बर्फ पिघल गयी तथा पूरे विश्व में व्यापक वर्षा हुई।
इस प्रलय के बाद स्वायम्भुव मनु का काल आरम्भ हुआ जिनके बाद कलि आरम्भ तक ७१ युग बीत गये.
प्रति युग ३६५ या प्रायः ३६० वर्ष का होगा.
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९) :
वां तनुं स तदा ब्रह्मा समपोहत भास्वराम्। द्विधा कृत्वा स्वकं देहमर्द्धेन पुरुषोऽभवत्॥३२॥
स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३‌६॥
तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९):
त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
यह नगर राजा रैवत का हो सकता है जो पूर्व कल्प के आनर्त देश में था बाद में समुद्र में डूब गया था। उसी वंश की रेवती की बलराम से विवाह हुआ था। इसका नाम कुशस्थली कहा गया है।
यह द्वारका जैसा था तथा उसके निकट था, बिलकुल उसी स्थान पर नहीं। कुश के समय की नगरी के बाद कई युग बीत गये और पुरानी नगरी या परिवार का कोई चिह्न नहीं रहा।
विष्णु पुराण, खण्ड ४, अध्याय १ :
य एते भवतोभिमता नैतेषां साम्प्रतं, पुत्र पौत्रा-पत्या-पत्य-सन्तति-र्स्त्यवनी तले॥७४॥
बहूनि तवात्रैव गान्धर्वं शृण्वतश्चतुर्युगान्यतीतानि॥७५॥
साम्प्रतं महीतलेऽष्टाविंशतितम-मनोश्चतुर्युगमतीतप्रायं वर्तते॥७६॥
कुशस्थली या तव भूपरम्या पुरी पुराभूदमरावतीव। सा द्वारका साम्प्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा॥९१॥

द्वितीय जल प्रलय :
स्वायम्भुव मनु के बाद इन ७१ युगों में वैवस्वत मनु तक ४३ युग, अर्थात् प्रायः १६,००० वर्ष बीते। वैवस्वत मनु के बाद २८ युग बीते।
१२००० वर्षीय युग के अनुसार उनके बाद कलि आरम्भ तक १०८०० वर्ष बीते थे (सत्य युग = ४८००, त्रेता ३६००, द्वापर = २४०० वर्ष)।
अतः वैवस्वत मनु का काल १३९०२ ई.पू. (३१०२ +१०८००) हुआ।
मत्स्य पुराण, अध्याय २७३ :
अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान् निबोधत॥७६॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भविष्यास्ते महात्मनः। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम्॥७७॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १/४-षोडशाब्दसहस्रे च शेषे तद्द्वापरे युगे॥२६॥
द्विशताष्टसहस्रे द्वे शेषे तु द्वापरे युगे॥२८॥.
तस्मादादमनामासौ पत्नी हव्यवतीस्मृता॥२९॥
उनके पूर्व १० युग अर्थात् ३६०० वर्षों तक असुरों का प्रभुत्व कहा गया है। इस आधार पर कश्यप का समय १७५०० ई.पू. (१३९०० + ३६००) माना गया है।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/७२) :
सख्यमासीत्परं तेषां देवनामसुरैः सह । युगाख्या दश सम्पूर्णा ह्यासीदव्याहतं जगत्॥६९॥
दैत्य संस्थमिदं सर्वमासी-द्दशयुगं किल ॥९२॥
अशपत्तु ततः शुक्रो राष्ट्रं दश युगं पुनः ॥९३॥
वायु पुराण, अध्याय ९८ :
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि । तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥५१॥
दैत्यासुरं ततस्तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः॥६२॥
प्रह्लादस्य निदेशे तु येऽसुरानव्यवस्थिताः ॥७०॥
धर्मा-न्नारायण-स्तस्मा-त्सम्भूत-श्चाक्षुषेऽन्तरे॥७१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे । चतुर्थ्यां तु युगाख्याया-न्नापन्ने-ष्वसुरेष्वभू ॥७२॥
सम्भूतः स समुद्रान्त हिरण्यकशिपो-र्वधे । द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः ॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे । दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत् ॥७४॥
नमुचिः शम्बरश्चैव प्रह्लादश्चैव विष्णुना ॥८१॥
दृष्ट्वा संमुमुहुः सर्वे विष्णु तेज विमोहिताः॥८४॥
एतस्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयः शुभाः । मानुष्याः सप्त यातस्य शापजांस्तान्निबोधत ॥८७॥
यहां कश्यप को भी ब्रह्मा लिखा गया है। उनके पूर्व भी प्रायः १८००० ई.पू. में जल प्रलय था जब ऐतिहासिक चाक्षुष मन्वन्तर समाप्त हुआ। (चाक्षुषेऽन्तरे, स समुद्रान्त…).

तृतीय जल प्रलय :

असुर प्रभुत्व की समाप्ति राजा बलि के काल में हुई, जब वामन को इन्द्र के ३ लोक वापस करने पड़े। कई असुर इस सन्धि से सहमत नहीं थे और युद्ध चलते रहे।
कार्त्तिकेय ने क्रौञ्च पर्वत को विदीर्ण कर क्रौञ्च द्वीप को पूरी तरह जीत लिया जिसका काल महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०) में प्रायः १५८०० ई.पू. निर्दिष्ट है।
इसके कई संकेत हैं,:
(१) उस काल में उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था, जो प्रायः १६४०० ई.पू. में आरम्भ हुआ। तब अभिजित् के बदले धनिष्ठा में सूर्य के प्रवेश से वर्ष गणना आरम्भ हुई।
उस काल में यह वर्षा का आरम्भ था, अतः संवत्सर को वर्ष कहा गया। वर्षा से वर्ष का आरम्भ आज भी मिथिला में प्रचलित है।
मेगास्थनीज ने लिखा था कि भारत ने अन्न और अन्य सभी चीजों में स्वावलम्बी होने के कारण १५००० वर्षों से किसी देश पर कब्जा करने की चेष्टा नहीं की (अर्थात् १५३०० ई.पू. के बाद)।
इस १५००० वर्ष को मैक्समूलर ने नकल कर उसमें से १ शून्य निकाला तथा १५०० ई.पू. में वैदिक सभ्यता का आरम्भ घोषित कर दिया। आज तक उनके अनुयायी इस जालसाजी के अतिरिक्त इस काल गणना का कोई अन्य प्रमाण नहीं दे पाये हैं।
१५००० वर्ष का उल्लेख हटाने के लिये १९२७ में मैक-क्रिण्डल ने नया संस्करण निकाला जिस में लिखा कि भारत ने कभी भी अन्य देश पर कब्जा नहीं किया।

कार्त्तिकेय द्वारा क्रौञ्च द्वीप (पक्षी आकार का उत्तर अमेरिका) पर कब्जा करने के लिये उनकी नौसेना मयूर (वाहन) ने प्रशान्त महासागर पर अधिकार किया। आज भी हवाई द्वीप से न्यूजीलैण्ड तक एक ही माओरी भाषा प्रचलित है जो उनकी मयूर सेना की भाषा थी।
वैवस्वत मनु के बाद देव युग शुरु हुआ। उसके कुछ समय बाद वैवस्वत यम के काल में प्रायः १०००० ई.पू में जल प्रलय हुआ। उसके बाद ऋषभ देव (११ वें व्यास) के काल में पुनः सभ्यता स्थापित हुयी तथा मय असुर ने सूर्य सिद्धान्त का संशोधन किया।
उसके प्रायः ५०० वर्ष बाद इक्ष्वाकु द्वारा पुनः वैवस्वत मनु की राज्य व्यवस्था स्थापित हुई। उनको वैवस्वत मनु का पुत्र कहा गया है, जबकि उनके कालों में प्रायः ५४०० वर्षों का अन्तर था।
क्रौञ्च प्रभुत्व कालमें ध्रुव वर्ष को क्रौञ्च सम्वत्सर कहा गया। ध्रुव सम्वत्सर ९०९० मानुष वर्ष = ८१०० सौर वर्षों का है (सप्तर्षि वर्ष का ३ गुणा)।
यह ध्रुव के देहान्त के बाद आरम्भ हुआ। उसका प्रथम चक्र समाप्त होने पर क्रौञ्च प्रभुत्व था। द्वितीय चक्र के बाद वैवस्वत यम का काल तथा तृतीय चक्र के बाद३०७६ ई.पू. में युधिष्ठिर देहान्त के बाद लौकिक वर्ष आरम्भ हुआ।
पारसियों के पवित्र ग्रंथ जेंदअवेस्ता के अनुसार प्रलय के दिन अहुरमज्द ने कहा -हे विघनघत के पुत्र यिम (विवस्वान के पुत्र यम) इस संसार में अब भयानक शीत पड़ने वाला है l अत्यधिक हिमपात के कारण समस्त पर्वत, वन, निचले स्थानों पर निवास करने वाले जीव-जंतु आदि सब नष्ट हो जायेंगे l
अतः तुम जाकर एक बड़ा-सा बाड़ा बनाओ, उसमें मनुष्य, पशु, पक्षी, जीव-जंतुओँ के जोड़े तथा सभी प्रकार की वनस्पतियों के बीज एकत्र करो l
विष्णुधर्मोत्तर पुराण (८२/७, ८) के अनुसार राम तथा मत्स्य अवतार के समय सौर तथा पैतामह दोनों मतों से प्रभव वर्ष था।
इस कारण प्रभव वर्ष से गुरुवर्ष का चक्र आरम्भ होता है जब गुरु कर्क राशि में होता है, उसके मेष राशि से चक्र नहीं आरम्भ होता। अर्थात् मत्स्य अवतार राम से ५१०० वर्ष पूर्व ९५३३ ई.पू. में हुआ था। होमर के इलियड के अनुसार भी एटलाण्टिस का अन्तिम भाग ९५६४ ई.पू. में डूबा था।
पारसी गाथाओं के अनुसार जल प्रलय ९८४४ ई.पू. में हुआ था जब जमशेद (वैवस्वत यम, १० वें व्यास) का काल था। (D.D. Kanga-Where Theosophy and Science Meet, page 89 and 101)
ग्रीस के लेखक सोलन (६३८-५५८ ई.पू.) को मिस्र के पुरोहितों ने बताया था कि एथेंस के लोग अपना प्राचीन इतिहास भूल चुके हैं क्योंकि ९००० वर्ष पूर्व (प्रायः ९५६४ ई.पू.) में प्राकृतिक प्रलय के कारण एटलाण्टिस नष्ट हो गया था। यह हरकुलस स्तम्भ (सूर्य सिद्धान्त का केतुमाल वर्ष, वर्तमान जिब्राल्टर खाड़ी के दोनों तरफ के पर्वत) से पश्चिम था।
प्लेटो ने सिटियस की वार्ता में भी इसे उद्धृत किया है। होमर (८०० ई.पू.) ने अपनी पुस्तक इलियड में एटलाण्टिस तथा पश्चिम एसिआ के ट्राय के युद्ध का वर्णन किया है।
इस आधार पर स्लीमैन ने ट्राय में खुदाई भी की जिसमें ट्राय के अवशेष मिले।
वर्तमाने तथा कल्पे षष्टे मन्वन्तरे गते। तस्यैव च चतुर्विंशे राजंस्त्रेता युगे तदा॥६॥
यदा रामेण समरे सगणो रावणो हतः॥ लक्ष्मणेन तथा राजन् कुम्भकर्णो निपातितः॥७॥
माघशुक्ले समारभ्य चन्द्रार्कौ वासर्क्षगौ। जीवयुक्तो यदा स्यातां षष्ट्यब्दादिस्तदा स्मृतः॥८॥ विष्णुधर्मोत्तर पुराण (८२)

चतुर्थ जल प्रलय :
पुराणों में उल्लेख है कि परशुराम ने पूरी भूमि कश्यप को दान करने के बाद अपने लिये समुद्र से भूमि मांगी थी। उनकी भूमि गोआ के दक्षिण पश्चिम मालाबार तट से पश्चिम थी।
इसके प्रायः २४ किमी, लम्बी २.७ मीटर ऊंची तथा २.५ मीटर चौड़ी दीवार समुद्र के भीतर मिली है जिसका काल प्रायः ८००० वर्ष पुराना (६००० ई.पू.) निर्धारित किया गया है। परशुराम काल में यह समुस्र तट पर थोड़ी नीची भूमि में था, बाद में पूरी तरह डूबने का अर्थ है कि समुद्र जल का स्तर बाद में बढ़ गया।

परशुराम का काल कई प्रकार से कहा गया है :
(१) वह १९ वें त्रेता में थे, अर्थात् दूसरे त्रेता के ९ वें खण्ड (प्रति खण्ड ३६० वर्ष का) में। यह त्रेता १३९०२-४८०० = ९१०२ ई.पू. से ५५०२ ई.पू. तक था। अतः परशुराम ९वां खण्ड में ६२२२ से ५८६२ ई.पू. के बीच थे।
(२) परशुराम को मेआस्थनीज ने हरकुलस (सुरकुलेश= विष्णु) कहा है क्यों कि वह विष्णु अवतार थे। यह प्रथम ६७७७ ई.पू. में डायोनिसस के यवन आक्रमण के १५ पीढ़ी बाद थे। अतः उनका समय प्रायः ६२५० ई.पू. के बाद होगा (प्रति पीढ़ी = ३५ वर्ष)।
(३) परशुराम के निधन के बाद ६१७७ ई.पू. में कलम्ब सम्वत् प्रचलित हुआ, जो केरल में आज भी प्रचलित है (कोल्लम)। इसमें सहस्र अंक नहीं लिखॆ जाते हैं, जिसका निर्धारण परशुराम के युग के अनुसार किया गया है। यह सप्तर्षि का भी संक्रमण काल था। इसके ३ नक्षत्र तथा २७०० वर्ष के चक्र के बाद ३०७६ ई.पू. में युधिष्ठिर के निधन पर लौकिक वर्ष शुरु हुआ।
(४) परशुराम काल में १२० वर्ष तक गणतन्त्र था (मेगास्थनीज) जिसमें २१ बार के गणतन्त्र को २१ बार क्षत्रिय नाश कहा गया है। उसके आरम्भ के समय परशुराम प्रायः ३५ वर्ष के होंगे (अनुमान) अतः उनका जन्म ६१७७ +१२० + ३५ = ६३२२ ई.पू. था। २१ बार क्षत्रिय नाश में २-२ वर्ष युद्ध हुये, उसके पूर्व ८ x ४ = ३२ वर्ष युद्ध हुआ तथा ६ x ४ = २४ वर्ष तप हुआ। बीच के कुछ वर्ष तथा शूर्पारक के निकट समुद्र में नगर निर्माण मिलाकर १२० वर्ष का गणतन्त्र काल था। पूर्ण विवरण मेगास्थनीज काल में भारत में उपलब्ध रहा होगा, जिसके आधार पर उसने लिखा है।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४६) :
विनिघ्नन् क्षत्रियान् सर्वान् संशाम्य पृथिवीतले। महेन्द्राद्रिं ययौ रामस्तपसेधृतमानसः॥२९॥
तस्मिन्नष्टचतुष्कं च यावत् क्षत्र समुद्गमम्। प्रत्येत्य भूयस्तद्धत्यै बद्धदीक्षो धृतव्रतः॥३०॥
क्षत्रक्षेत्रेषु भूयश्च क्षत्रमुत्पादितं द्विजैः। निजघान पुनर्भूमौ राज्ञः शतसहस्रशः॥३१॥
वर्षद्वयेन भूयोऽपि कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। षटचतुष्टयवर्षान्तं तपस्तेपे पुनश्च सः॥३२॥
अलं रामेण राजेन्द्र स्मरतां निधनं पितुः। त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रिया कृता॥३४॥
समुद्र तल का नगर – युद्धों में कई हत्यायें करनी पड़ीं। इनके प्रायश्चित्त के लिये परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ किया तथा उसमें पूरी भूमि कश्यप को दान कर दी।
अपने रहने के लिये समुद्र से गोकर्ण के निकट भूमि ली जिसमें वरुण ने सहायता की। नारद पुराण के अनुसार यह नगर ३० योजन तथा ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार २०० योजन लम्बा था। यहां २ प्रकार के योजन हैं।
रामेश्वरम में २२ कि.मी. का रामसेतु १०० योजन का कहा गया है। उस योजन से शूर्पारक नगर ४४ कि.मी. का होगा। नारद पुराण का ३० योजन = ४४ कि.मी., उसमें १ योजन = १.४७ कि.मी. = प्रायः १ मील।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४७) :
प्राप्ताः स्म पूजिताः किं तु नाक्षय्यफलभागिनः॥ तस्मात्त्वं वीरहत्यादि पापप्रशमनाय हि॥२६॥
प्रायश्चित्तं यथान्यायं कुरु धर्म च शाश्वतम्। वधाच्च विनिवर्तस्व क्षत्रियाणामतः परम्॥२७॥
ततः स सर्वतीर्थेषु चक्रे स्नानमतन्द्रितः। परीत्य पृथिवीं सर्वां पितृदेवादिपूजकः॥३७॥
एवं क्रमेण पृथिवीं त्रिवारं भृगुनन्दनः। परिचक्राम राजेन्द्र लोकवृत्तमनुव्रतः॥३८॥
तेषामनुमते कृत्वा काश्यपं गुरुमात्मनः। वाजिमेधं ततो राजन्नाजहार महाक्रतुम्॥४७॥
ब्रह्माणं पूजयामास यथावद् गुरुणा सह। अलंकृत्य यथान्याय कन्यां रूपमतीं महीम्॥५२॥
पुरग्रामशतोपेतां समुद्राम्बरमालिनीम्। आहूय भृगुशार्दूलः सशैलवनकाननाम्॥५३॥
काश्यपाय ददौ सर्वामृते तं शैलमुत्तमम्। आत्मनः सन्निवासार्थं तं रामः पर्यकल्पयत्॥५४॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/५६):
गोकर्णमिति च क्षेत्रं पूर्वं प्रोक्तं तु यत्तव। अर्णवोपात्तवर्त्तित्वात्समुद्रेऽन्तर्द्धिमागमत्॥५६॥
ससह्यमचलश्रेष्ठमवतीर्य भृगूद्वहः। तत्परं सरितां पत्युस्तीरं प्राप महामनाः॥२७॥
ततो रामः समुत्थाय दक्षिणाभिमुखः स्थितः। मेघगम्भीरया वाचा वरुणं वाक्यमब्रवीत्॥३५॥
तस्मिन्नस्त्रं महाघोरं भार्गवं वह्निदैवतम्॥४६॥ अधिरोपित दिव्यास्त्रं प्रचकर्ष महा शरम्॥५२॥
उत्तीर्यमाणः स्वजलं वरुणः प्रत्यदृश्यत। कृgताञ्जलिः सार्वहस्तः प्रचेता भार्गवान्तिकम्॥७२॥
गोकर्णनिलयाः पूर्वमिमे मां मुनिपुंगवाः। समायाता महेन्द्रादौ निवसन्तं सरित्पते॥३॥
त्वत्तोये मेदिनी पूर्वं खनद्भिः सगरात्मजैः। अधोनिपातितं क्षेत्रं गोकर्णमृषिसेवितम्॥४॥
उपलब्धुमिमे भूयः क्षेत्रं तद्बववल्लबम्। अधावन्मामुपागम्य मुनयस्तीर्थवासिनः॥५॥
तस्मान्मदर्थे सलिलं समुत्सार्यात्मनो भवान्। दातुमर्हति तत्क्षेत्रमेषां तोये च पूर्ववत्॥७॥
वरुण उवाच-तस्माद्यावत्प्रमाणं मे भवान्संकल्पयिष्यति। तावत्संधारयिष्यामि भूमौ सलिलमात्मनः॥१२॥
ततो निरूप्य सीमानं दर्शयानो महीपते।।१४॥
भ्रामयित्वातिवेगेन चिक्षेप लवणार्णवे। क्षिप्तत्वेन समुद्रे तु दिसमुत्तरपश्चिमाम्॥१६॥
गत्वा स्रुवोपतद्राजन् योजनानां शतद्वयम्। तीर्थं शूर्पारकं नाम सर्वपापविमोचनम्॥१७॥
तीर्थं शूर्पारकं तत्तु श्रीमल्लोकपरिश्रुतम्। उत्सारयित्वा सलिलं समुद्रस्तावदात्मनः॥२०॥
अतिष्ठदपसृत्योर्वीं दत्त्वा रामाय पार्थिव। अनतिक्रान्तमर्यादो यथाकालं भृगूद्वहः॥२१॥
व्यस्मयन्त सुराः सर्वे दृष्ट्वा रामस्य विक्रमम्। नगरग्रामसीमानः किंचित्किंचित्क्वचित्क्वचित्॥२३॥
सह्ये तु पूर्ववत्तस्मिन्नब्धेरपसृतेऽम्भसि। तत्र दैवात्तथा स्थानान्निम्नत्वात्स प्रलक्ष्य तु॥२४॥
तत्तोयनिःसृतं क्षेत्रमभूत्पूर्ववदेव हि। एतद्धि देवसामर्थ्यमचिन्त्यं नृपसत्तम॥३१॥
एवं रामेण जलधेः पुनः सृष्टा वसुन्धरा। दक्षिणोत्तरतो राजन् योजनानां चतुःसतम्॥३२॥.

नारद पुराण (२/७४):
गोकर्णाख्यं हरक्षेत्रं सर्वपातकनाशनम्॥२॥
पश्चिमस्थसमुद्रस्य तीरेऽस्ति वरवर्णिनि। सार्द्धयोजन विस्तारं दर्शनादपि मुक्तिदम्॥३॥
त्रिंशद् योजन विस्तारां सतीर्थ क्षेत्रकाननाम्॥ ततस्तन्निलयाः सर्वे स देवासुरमानवाः॥४॥
महेन्द्राचलसंस्थानं पर्शुरामं दिदृक्षवः। जग्मुर्मुनिवरा देवि गोकर्णोद्धारकांक्षया॥८॥
प्रगृह्य स्वधनुर्बाणान् संप्रतस्थे स तैः समम्। सोऽवरुह्य महेन्द्राद्रेर्दिशं दक्षिणपश्चिमाम्॥२०॥
संप्राप्तः सागरतटं सार्द्धं गोकर्णवासिभिः॥२१॥
मुहूर्त्तं तत्र विश्रम्य वरुणं यादसां पतिम्।।२२॥
प्रचेतो दर्शनं देहि कार्यमात्त्यायिकं त्वया॥२३॥एवं राम समाहूतो यादः पतिरहन्तया॥२४॥
एवं पुनः पुनस्तेन समाहूतोऽपि नागतः। यदा तदाभिसंक्रुद्धो धनुर्जग्राह भार्गवः॥२५॥
वरुणोऽस्त्राभिसंतप्तो रामस्य भयसम्प्लुतः। स्वरूपेण समागत्य रामपादौ समग्रहीत्॥२८॥
ततोऽस्त्रं स विनिर्वर्त्य वरुणं प्राह सत्वरम्। गोकर्णो दृश्यतां देव उत्सर्पय जलं किल॥२९॥
ततो रामाज्ञया सोऽपि गोकर्णोदकमाहरत्। रामोऽपि तं समभ्यर्च्य गोकर्णं नाम शंकरम्॥३०॥
पञ्चम जल प्रलय :
पांचवां जल परलय य युधिष्ठिर की ८ पीढ़ी बाद प्रायः २७०० ई.पू. में हुआ जब निचक्षु का शासन था। उस समय हस्तिनापुर गंगा की बाढ़ में पूरी तरह नष्ट हो गया और राजा को कौसाम्बी आना पड़ा।
उसके साथ भारत के पश्चिमी भाग में १०० वर्ष की अनावृष्टि हुई, जिससे सरस्वती नदी सूख गयी। यह कई पुराणों में वर्णित है। जैन शास्त्रों ने भी कहा है कि उनके आगम इस युग में नष्ट हो गये। इसी काल में बचे हुये ज्योतिष ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये आर्यभट ने ३६० कलि में आर्यभटीय लिखा।
थीबो और सुधाकर द्विवेदी ने ३६० कलि को ३६०० कर दिया, जिससे उनके काम को ग्रीक पुस्तक की नकल कहा जा सके। आजतक कोई ग्रीक ज्योतिष पुस्तक नहीं मिली है। पर उस स्थिति में विक्रमादित्य के नवरत्न वराहमिहिर उनका उल्लेख नहीं कर सकते थे।
अतः वराहमिहिर का काल भी शालिवाहन शक में कहा गया जो उनकी मृत्यु के ९० वर्ष बाद आरम्भ हुआ था। १०० वर्ष की अनावृष्टि के समय शाकम्भरी अवतार हुआ जिनके मुख्य उपासक चाहमान (चौहान) थे। उस विप्लव काल में समाज में धर्म की रक्षा के लिये काशी के राजा ने सन्यास ग्रहण किया, और पार्श्वनाथ नाम से २३ वें जैन तीर्थंकर बने।
उनका सन्यास काल जैन युधिष्ठिर शक कहते हैं जो २६३४ ई.पू. में आरम्भ हुआ।
विष्णु पुराण अंश ४, अध्याय -२१ :
अतःपरं भविष्यानहं भूपालान्कीर्तयिष्यामि।१।
यो‍ऽयं साम्प्रतमवनीपतिः परीक्षित्तस्यापि जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनाश्चत्वारः पुत्राः भविष्यन्ति।२। जनमेजयस्यापि शतानीको भविष्यतिI३।
योऽ‍सौ याग्यवल्क्याद्वेदमधीत्य कृपादस्त्राण्यवाप्य विषम विषय विरक्त चित्तवृत्तिश्च शौनकोपदेशादात्मज्ञान प्रवीणः परं निर्वाणमवाप्स्यति।४।
शतानीकादश्वमेधदत्तो भविता।५। तस्मादप्यधिसीमकृष्णः।६। अधिसीमकृष्णान्निचक्षुः।७। यो गङ्गायपहते हस्तिनापुरे कौशाम्ब्यां निवत्स्यति।८।

दुर्गा-सप्तशती (११/४६-४९) :
भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि। मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्। कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः। भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि। तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥

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