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जनविरोधी आर्थिक नीतियों ने सोने की लंका में आग लगा दी

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मुनेश त्यागी 

    श्रीलंका का राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका छोड़कर भाग गया है। जनता ने उसका राष्ट्रपति भवन को घेर रखा है और जनता राष्ट्रपति भवन पर काबिज है। वहां का विद्रोह इतना गहरा गया है कि जनता ने प्रधानमंत्री का निवास फूंक दिया है और वह राजपक्षे के परिवार के सत्ता में बैठे लोगों पर विश्वास करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। श्रीलंका का यह संकट राजपक्षे की 40 वर्ष की फासीवादी-राष्ट्रवादी विचारधारा और आर्थिक नीतियों के संकट के घोलमाल का नतीजा है।

     इसके निजाम ने, उसकी नीतियों ने, जनता को बिल्कुल गरीब बना दिया है, महंगाई आसमान छू रही है, लोगों पर काम नहीं है, पेट्रोल नहीं है, डीजल नहीं है, दवाइयां नहीं है, लोगों को पेट भरने का खाना नहीं है। बच्चों के लिए नाश्ते तक का इंतजाम नहीं है। संकट इतना गहरा है कि दूध के दाम ₹200 किलो से भी ज्यादा हो गए हैं और वह भी लोगों को मिल नहीं पा रहा है।

      श्रीलंका के संकट की कहानी सांप्रदायिक राष्ट्रवादी नीतियों और आर्थिक संकट से शुरू हुई जो कालांतर में राजनीतिक संकट में बदल गई। श्रीलंका को विदेशी मुद्रा भंडार पर नजर रखनी होगी और इस संकट को विदेशीकरण से उबरना होगा। वहां के संकट के लिए परिवार में सिमटे राजनीतिक संकट को दूर करना होगा। श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध सिंहला और अल्पसंख्यक मुस्लिम और तमिल हैं। पहले वहां बहुसंख्यक बौद्ध सिंहला आबादी का बोलबाला था जिससे अल्पसंख्यक तामिल और मुसलमानों का तबका, अलग-थलग महसूस करने लगा। इन जन विरोधी नीतियों ने जनता में आपसी मतभेद को काफी बढ़ा दिया था।

       मगर हालात का कमाल देखिए कि आर्थिक और राजनीतिक संकट ने इस विभाजित जनता को एकजुट कर दिया और विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया और आज सारी जनता एकजुट होकर उस जनविरोधी निजाम के खिलाफ सड़कों पर है। श्रीलंका का पूरा शासक वर्ग मां की जनता का, उनकी समस्याओं का सामना करने की स्थिति में नहीं है। वह जनता से आंख से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में भी नहीं रह गया है।

     श्रीलंका का संघर्ष काफी दिनों तक चलता रहा और जब स्थिति विस्फोटक और नियंत्रण से बाहर हो गई तो यह संकट सड़कों पर फूट पड़ा और आर्थिक संकट ने अब श्रीलंका की आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था को और समूचे समाज को अपनी जकड़ में ले लिया है। राजपक्षे निजाम के विनाशकारी फैसलों ने वर्तमान आर्थिक संकट को पैदा किया है। इस तानाशाहीपूर्ण निजाम ने करों में कटौतियां कीं, खेती में इस्तेमाल होने वाले उर्वरकों का आयात रोक दिया, अपनी दिखावटी परियोजनाओं में लंबे चौड़े मगर अनावश्यक निवेश किए, जिस कारण श्रीलंका का राजस्व तेजी से घट गया, कृषि को बर्बाद कर दिया गया, और कोविड के कारण पर्यटन उद्योग चौपट हो गया। इन सब कारणों ने जनता को विद्रोह करने और सड़कों पर आने के लिए मजबूर कर दिया

     इन सब कारणों से आम जनता को खाद्यान्न, दवाई, ईंधन की कमी और बेलगाम महंगाई झेलनी पड़ी, जिस कारण लोगों को प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा। इन प्रदर्शनों में शिक्षक, कर्मचारी ट्रेड यूनियन संगठन और छात्रों समेत जनता के सभी तबके शामिल हैं। मजदूर वर्ग ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इन प्रदर्शनों में दासियों लाख लोग  हिस्सा ले रहे हैं पहले। 28 अप्रैल और 5 मई को आम हड़ताल की गई। इन प्रदर्शनों में आम जनता के साथ डॉक्टर, नर्स तथा अन्य प्रोफेसनल्स ने भी भाग लिया और इन्होंने सरकार और राष्ट्रपति से इस्तीफे की मांग की। इस प्रकार जनता पिछले तीन-चार महीनों से श्रीलंका सरकार की जन विरोधी, किसान विरोधी, महिला विरोधी, मजदूर विरोधी और नौजवान विरोधी नीतियों का लगातार विरोध कर रही है और वहां कि सरकार को हटाने की मांग कर रही है।

     इस सब से बौखला कर राष्ट्रपति ने वहां इमरजेंसी लगा दी। हताश, निराश और परेशान लोग कर्फ्यू तोड़कर सड़कों पर उतर आए। इसी बीच सरकार के उकसावे पर उसके समर्थक और प्रदर्शनकारी आपस में भिड़ गए, जिसमें सैकड़ों लोग घायल हुए। प्रधानमंत्री को अपना निवास छोड़कर भागना पड़ा और एक नौसैनिक अड्डे पर शरण लेनी पड़ी। इसके बाद सत्ताधारी पार्टी के कई सांसदों के घरों में आग लगा दी गई। अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री का निवास स्थान में आग लगा दी गई और कल श्रीलंका का राष्ट्रपति देश छोड़कर भाग गया और उसकी बेईमानी की हद देखिए कि उसने जाते-जाते राष्ट्रपति पद से इस्तीफा भी नहीं दिया। वह देश छोड़कर भाग गया है मगर अभी भी वहां का राष्ट्रपति, श्रीलंका में अपने लोग सत्ता में बिठाकर, श्रीलंका को अपने कब्जे से मुक्त करने को तैयार नहीं है।

      उधर विपक्ष राष्ट्रपति गोटबाया के लोगों के साथ सर्वदलीय सरकार में शामिल होने को तैयार नहीं है और राष्ट्रपति का इस्तीफा मांग रहा है। वहां की वामपंथी पार्टी चुनाव होने तक अंतिम राष्ट्रपति और अंतिम सरकार बनाने की मांग कर रही है। राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग एकदम जायज है क्योंकि उसकी नीतियों के कारण ही यह आर्थिक और राजनीतिक संकट पैदा हुए हैं। इसी के साथ-साथ आर्थिक तथा राजनीतिक दलों का जनतांत्रिक रूपांतरण भी जरूरी हो गया है उदारवादी नीतियों को खत्म करके उनके स्थान पर विकास के जनहितकारी रास्ते को अपनाना पड़ेगा।

     सिंहली बौद्धवादी राष्ट्रवाद की जगह भाषाई और अल्पसंख्यकों के प्रति जनतांत्रिक रुख के आधार पर जनता की एकता का आधार तैयार करना होगा। अब श्रीलंकाई जनता का कल्याण करने के लिए जनपक्षीय कल्याणकारी नीतियां बनाकर ही जनता का भला किया जा सकता है तथा श्रीलंका का आर्थिक और राजनीतिक संकट दूर हो सकता है। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

     वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ द्वारा संचालित नीतियों से श्रीलंका की सरकार को जनविरोधी नीतियों को छोड़ना पड़ेगा। केवल तभी श्रीलंका की जनता इस आर्थिक और राजनीतिक संकट से बाहर निकल सकती है। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। श्रीलंकाई सरकार द्वारा अपनाई गई  लुटेरी नवउदारवादी नीतियों से श्रीलंका की आम जनता का कल्याण नहीं हो सकता। आने वाली श्रीलंकाई सरकार को, इन जनविरोधी नीतियों को किसी भी कीमत पर छोड़ना पड़ेगा और जन कल्याण की नीतियों को अमल में लाना होगा तभी श्रीलंका में राजनीतिक और आर्थिक संकट खत्म किया जाकर शांति बहाल की जा सकती है।

     श्रीलंका के वर्तमान जन विद्रोह को देखते हुए यह बिल्कुल स्पष्ट तरीके से कहा जा सकता है कि अब जब तक जनता की कल्याणकारी नीतियां नहीं बनाई जाएंगी, उसकी रोटी रोजी, शिक्षा, इंधन, बेरोजगारी और महंगाई की समस्याओं का समाधान नहीं किया जाएगा, तब तक यह संकट थमने वाला नहीं है और जनता को इन्हीं मांगों को लेकर संघर्ष करना चाहिए इस संघर्ष को जारी रखना चाहिए।

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