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क्षेत्रीय दलों के दिग्गजों में केन्द्र में सत्तारूढ़ होने की आकुलता

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राज कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार

लोकसभा चुनाव वर्ष 2024 में होने हैं, पर केन्द्र में सत्तारूढ़ होने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की आकुलता विपक्ष में अभी से नजर आने लगी है। दिलचस्प यह भी है कि प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा यह आकुलता क्षेत्रीय दलों के दिग्गजों में ज्यादा नजर आ रही है। शायद इसका एक कारण कांग्रेस का आंतरिक मुश्किलों से घिरा होना हो। केन्द्र में सत्तारूढ़ होने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की आकुलता विपक्ष में अभी से को लगता है कि एक के बाद एक पराजयों से पस्त कांग्रेस अपना घर दुरुस्त कर भाजपा को चुनौती देने के लिए खड़ी हो, उससे पहले ही अपनी मोर्चाबंदी कर ली जाए, ताकि देश के सबसे पुराने दल के पास भाजपा विरोधी इस धु्रवीकरण के समर्थन के अलावा कोई विकल्प ही न बचे।
यही कारण है कि मोदी विरोधी ध्रुवीकरण की कवायद में जुटे ये क्षेत्रीय नेता कांग्रेस से सलाह तो दूर, संवाद की जरूरत महसूस नहीं करते। कुछ अरसा पहले तक तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस मोर्चे पर काफी सक्रिय रहीं। वे देश भर में घूम-घूम कर क्षेत्रीय नेताओं से मिलीं, पर कई बार दिल्ली आने पर भी कांग्रेस नेतृत्व से मिलने से बचती रहीं। करीबियों के भ्रष्टाचार के मामलों में फंसने के बाद ममता की यह राष्ट्रीय स्तर की सक्रियता कम हुई है। उधर, तेलंगाना राष्ट्र समिति प्रमुख एवं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की सक्रियता बढ़ गई है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार के मोहल्ला क्लीनिक देखने वाले केसीआर उनके साथ पंजाब जा कर आंदोलन के दौरान मृत किसानों के परिजनों को आर्थिक मदद दे चुके हैं। पिछले सप्ताह केसीआर पटना जाकर भाजपा से दूसरी बार दोस्ती तोडऩे वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी मिले। वे बिहार के सबसे बड़े दल राजद के प्रमुख लालू यादव से भी मिले। लालू के उपमुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी तो पटना दौरे में केसीआर के साथ रहे ही। बिहार यात्रा में केसीआर ने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों के परिजनों को आर्थिक मदद भी दी, लेकिन नीतीश कुमार के साथ मीडिया के सामने वे भाजपा मुक्त भारत का आह्वान करना नहीं भूले।
मोदी के विकल्प के नाम का सवाल समय आने पर टाल देने की रणनीति समझी जा सकती है। लेकिन, दो साल से भी ज्यादा समय से केसीआर क्षेत्रीय दलों का संघीय मोर्चा बनाने के लिए देश भ्रमण यों ही तो नहीं कर रहे। देश के सबसे नए राज्य तेलंगाना पर केसीआर ने जैसी राजनीतिक पकड़ बनाई है वह चौंकानेवाली है। विपक्ष वहां नाममात्र के लिए ही है। तेलंगाना के कायाकल्प के उनके दावे भी आकर्षित करते हैं। अगर वे अपने पुत्र केटीआर को तेलंगाना की बागडोर सौंपने और अपने लिए राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा पाल रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। केसीआर के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में बार-बार उठने का उपक्रम करने वाले नीतीश ने उनकी पटना से विदाई के तुरंत बाद दिल्ली का दौरा बना लिया। जाहिर है, बिहार में नीतीश सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल है। भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं के मद्देनजर भी कांग्रेस से अनावश्यक तल्खी समझदारी नहीं है। इसलिए, दिल्ली दौरे के पहले ही दिन नीतीश कुमार राहुल गांधी से मिले। मिले तो वे आप समेत कई दलों के नेताओं से , पर उनमें एक ही समानता है कि वे भाजपा विरोधी खेमे में हैं। इसलिए मोदी विरोधी ध्रुवीकरण में अहम हैं।
वैसे राष्ट्रीय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं वाला एक और खिलाडी भी है। वह है, आम आदमी पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल। राजनीति में कई बार छुपे रुस्तम बड़े खिलाडिय़ों पर भारी पड़ते हैं। बीजू जनता दल सुप्रीमो एवं ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक उसी श्रेणी में हैं। पटनायक ने कभी भी जोड़तोड़ या टकराव की राजनीति में दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसीलिए राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में कभी उनकी चर्चा नहीं होती, पर यही उनका सबसे मजबूत सकारात्मक पक्ष भी है।

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