मुनेश त्यागी
जिला जज अजय कृष्ण विश्वेशा जिन्होंने ज्ञान ज्ञानवापी मामले की सुनवाई दो साल तक की थी, को सरकारी विश्वविद्यालय प्रशासन ने शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय लखनऊ, का लोकपाल तीन साल के लिए नियुक्त कर दिया है। इन्होंने दो दिन पहले चार्ज भी ले लिया है। इन जनाब ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यानी 31 जनवरी 2024 को ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा की शुरुआत करने का आदेश दिया था।
सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी विश्वविद्यालय द्वारा लोकपाल बनाए जाने से न्यायपालिका की आजादी पर उभर रहे खतरों पर एक बार फिर चर्चा शुरू हो गई है। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के सेवानिवृत जजों को कई राष्ट्रीय ट्रिब्यूनलों में पुनर्नियुक्तियां दी गई हैं। यह मुद्दा न्यायिक हलकों में आजकल बहुत बड़ी चर्चा का विषय बना हुआ है।
इससे पहले भी यह वर्तमान सरकार न्यायमूर्ति एम ऐ खानविलकर, जस्टिस एके गोयल, जस्टिस अब्दुल नजीर, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस रंजन गोगोई आदि को भी सेवानिवृत्ति के बाद विभिन्न पदों पर नियुक्त कर चुकी है। जस्टिस एके गोयल को भी सेवानिवृत्ति के बाद नेशनल ग्रीन ट्यूबल का अध्यक्ष बनाया गया और उसी दिन उनके बेटे को हरियाणा में अतिरिक्त महाधिवक्ता के पद पर नियुक्ति कर दी गई थी।
जस्टिस एम ऐ खानविलकर ने अपने फैसलों में ई डी को बेपनाह पावर दी थी। इस फैसले के बाद ई डी एक भयानक रूप धारण करके हमारे सामने है। आजकल ईडी ने विपक्षी पार्टियों का कार्य करना जैसे बेहद मुश्किल कर दिया है। इस फैसले के बाद ईडी अपनी कार्यवाहियों में बेलगाम हो गई है। जैसे उसने विपक्ष को तबाह कर दिया है। अब वह गिरफ्तार करने से पहले गिरफ्तारी के कारण नहीं बताती और अब इन मामलों में जमानत मिलनी लगभग बंद हो गई है।
पिछले 18 महीनों में ईडी ने जैसे विपक्ष को प्राणहीन कर दिया है। अब ईडी अधिकांश सरकार विरोधी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर रही है, सच को सामने वाले पत्रकारों को गिरफ्तार कर रही है, जनता की आवाज उठाने वाले नेताओं, पत्रकारों और लेखकों को जेल के पीछे भेजा जा रहा है और मामला इतना गंभीर हो गया है कि अब इन लोगों को जमानत मिलना लगभग नामुमकिन हो गया है। वे कई कई महीनों से जेल में बंद हैं।
यहीं पर यह भी देखा जा रहा है कि ईडी सिर्फ और सिर्फ विपक्षी नेताओं और सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ ही कार्यवाही कर रही है। वह सरकार के समर्थक लोगों और बीजेपी के लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर रही है। जैसे सरकारी पक्ष के गैरकानूनी काम करने वाले लोग, ईडी की जांच के दायरे से बाहर ही हो गये हैं।
2014 से पहले, सरकार के वर्तमान मंत्री गडकरी, पीयूष गोयल और पूर्व मंत्री अरुण जेटली, कांग्रेसी सरकार द्वारा सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की पुनर्नियुक्ति पर सवाल उठा चुके हैं। इन सब मंत्रियों का तब स्पष्ट रूप से जोर देकर कहना था कि जजों को रिटायरमेंट के बाद पुनर्नियुक्तियां नहीं दी जानी चाहिए। इन सभी मंत्रियों का स्पष्ट उल्लेख के साथ कहना था कि जजों की रिटायरमेंट के बाद उनकी पुनर्नियुक्तियां और बड़े पद, उनके पहले के फैसलों को प्रभावित करती हैं।
पिछले दस सालों में वर्तमान सरकार द्वारा जो सेवानिवृत जज विभिन्न ट्रिब्यूनलों के जज बनाए गए हैं, अब उनकी नियुक्तियों पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं। इन तमाम जजों ने अपने सेवाकाल में जो कई जजमेंट दिए थे या ऐसे जजमेंट दिए हैं जिनसे सरकार को मदद मिलती है। इनमें सुरेंद्र कुमार यादव ने अपने कार्यकाल में 32 अपराधियों को बरी कर दिया था तो उसके बाद उन्हें उपलोकायुक्त बना दिया गया।
बाबरी मस्जिद मामले में सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों की बेंच ने फैसला दिया था। इसके बाद अयोध्या में मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। इस बैंच के जज अब्दुल नज़ीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया, अशोक भूषण को एनसीएलएटी का अध्यक्ष बना दिया गया, जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा सदस्य बना दिया गया। सरकार ने इन जजों को सरकार में पास के पक्ष में काम करने का इनाम दिया है। ये पुनर्नियुक्तियां इन जजों द्वारा सरकार के पक्ष में दिये गये फैसलों का ईनाम थीं।
इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सत्य सदाशिवम को केरल राज्य का राज्यपाल बना दिया गया था। इन जज साहब ने अपनी फैसले में वर्तमान गृहमंत्री के खिलाफ एफआईआर रद्द कर दी थी। इसका इनाम देते हुए बाद में, उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया था। जहां उन्हें अपने राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने के लिए, अपने प्रतिद्वंदियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया और इस प्रकार जज साहब जाने अनजाने सरकार की इच्छा पूर्ति का औजार बन गए।
सरकार द्वारा सेवानिवृत्ति जजों को नियुक्तियां दिया जाना एकदम मनमानीपूर्ण कार्यवाही है। इसमें किसी नियम या कानून का पालन नहीं किया जाता और सरकार अपने हित में फैसले देने वाले अपने चहते जजों को पुनर्नियुक्तियां देकर इनाम दे रही है। सरकार द्वारा की जा रही ये तमाम पुनर्नियुक्तियां एकदम न्यायपालिका की आजादी के खिलाफ हैं, कानून के शासन और संविधान के बुनियादी सिद्धांतों का खुल्लम-खुल्ला उलंघन हैं।
यहीं पर सवाल उठता है कि दस साल पहले वर्तमान सरकार के उपरोक्त तीनों मंत्री तत्कालीन कांग्रेसी सरकार द्वारा नियुक्त किए गए सर्वोच्च न्यायालय के जजों की पुनर्नियुर्क्तियों पर सवाल उठा रहे थे, उन्हें गलत बता रहे थे। यहीं पर यह सवाल उठता है कि जब उस समय सेवानिवृत्त जजों की पुनर्नियुक्तियां गलत थीं, तो आज वे सही कैसे हो गईं? आज उन पर केंद्र सरकार के ये मंत्री चुप क्यों है? अब उन्होंने क्यों मौन धारण कर लिया है? यह मंत्री इन नियुक्तियों का विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं क्या यह है इन मंत्रियों और सरकार का दोगलापन नहीं है?
सही बात यह है कि सेवानिवृत्त जजों की पुनर्नियुक्तियां तब भी गलत थीं, वे आज भी गलत हैं।इसे किसी भी दशा में सही नहीं ठहराया जा सकता। इस विषय में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और जिला न्यायालयों के बहुत सारे वकीलों का कहना है कि सरकार की इस प्रणाली ने, सरकार की नीतियों की जनविरोधी आलोचना और विरोध को लगभग खत्म कर दिया है। अब जांच में गड़बड़ी करने वालों को सजा नहीं दी जाती और भारत को विपक्षहीन करने की साज़िश को अमलीजामा पहना दिया गया है।
सरकार द्वारा अपने चाहते जजों को मनमानी नियुक्ति देना सुचिता और नैतिकता के खिलाफ है, कानून के शासन और संविधान के ख़िलाफ़ हैं। यह न्यायपालिका की आजादी पर खुल्लम खुल्ला हमला है। सरकार की यह कार्यप्रणाली न्यायपालिका में बेईमानी, पक्षपात और सांप्रदायिक नफरत के बीज बो देगी और कई सारे जजों को जातिवादी, धर्मांध और संप्रदायिक बना देगी।
वर्तमान हालात को देखते हुए यहां पर यह कहना समुचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट या जिला स्तर के सेवानिवृत जजों को कोई भी पुनर्नियुक्ति देने के लिए, सरकार द्वारा नियम कानून बनाए जाएं और उन नियम कानून के तहत ही इन जजों की पुनर्नियुक्तियां की जाएं। इसका पालन के बिना, किसी जज को सरकार द्वारा पुनर्नियुक्त किया जाना, एकदम असंवैधानिक, मनमानी और अवैधानिक कार्यवाही होगी।
सरकार की इन मनमानी नीतियों और अन्याय का शिकार भारत की जनता को बनना पड़ेगा क्योंकि इन नीतियों को मानकर, कई सारे न्यायमूर्ति, न्यायमूर्ति न रहकर, हिंदू और मुसलमान बन जायेंगे और वे हिंदू मुसलमान बनकर फैंसले देने लगेंगे। फिर न्याय भी सांप्रदायिक और जातिवादी नफरत का रूप धारण कर लेगा जो भारत के संविधान, कानून के शासन और न्यायपालिका की ईमानदारी, निष्ठा, निष्पक्षता, नैतिकता और स्वतंत्रता की हत्या कर देगा। सरकार की इस कार्य प्रणाली को किसी भी दिशा में स्वीकार नहीं किया जा सकता