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कहीं हम किसी “की वर्ड “ की गिरफ़्त में तो नहीं..??

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सुनील चतुर्वेदी

एक पुरानी कथा है, सभी ने बचपन में सुनी है । एक बकरी को कंधे पर लिए एक व्यक्ति अपने गाँव लौट रहा था । रास्ते में चार ठगों ने उस बकरी के बच्चे को हथियाने के लिए एक की वर्ड चुना “कुत्ता” और थोड़ी- थोड़ी दूरी पर खड़े होकर एक ही बात दोहरायी “ तुम इस मलेच्छ प्राणी कुत्ते को अपने कंधे पर क्यों उठाये हो “. दो के कहने का व्यक्ति पर असर नहीं हुआ लेकिन जब तीसरे ने भी यही बात दोहरायी तो ब्वह शंकित हो गया । उसका अपनी ही आँखों का भरोसा गड़बड़ा गया । चौथे के कहने पर तो उसे विश्वास हो गया कि जिसे वह उठाये है वो बकरी नहीं पक्के में ही कुत्ता है । उसीसे कोई भूल हुई है । उसने बकरी के बच्चे को वहीं फेंका और आगे बढ़ गया  । 

हर कालखंड में कुछ की वर्ड्स प्रचलन में होते हैं । यदि आप उनमें से किसी एक शब्द को टाईप करेंगे तो पूरा समय आपकी स्क्रीन पर खुल जाएगा । चंद शब्द पूरे समय को बयान करने में समर्थ है क्योंकि हम उन शब्दों/नारों के सम्मोहन में होते हैं । हम वर्तमान की बात करें तो केवल कुछ की वर्ड्स दोहराने होंगे । हिंदु, ख़तरा , सनातन, भारतीय संस्कृति, विश्व गुरु, बोद्धिक संपदा, राष्ट्र, नेहरू, मुस्लिम तुष्टिकरण, पप्पू, पाकिस्तान … इस फ़ेहरिस्त को आप और बढ़ा सकते हैं ।इन की वर्ड्स में से कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके सम्मोहन में ज़्यादातर लोग हैं । जैसे हिंदु ख़तरे में हैं, लव जिहाद, गो रक्षा , हिंदु राष्ट्र, भारतीय संस्कृति… एक दो और हो सकते हैं ।

जरा ठहरकर गंभीरता से मनन करें,  हमारे सोच की दिशा जैसे इन्ही शब्दों के इर्द- गिर्द सिमट कर रह गई है । इन शब्दों की आँधी ने जैसे इस समय में देश का आसमान ढक लिया है ।स्वयंसिद्ध बुद्धिजीवी विचारवान , धर्म और संस्कृति के ध्वज वाहक तो गिरफ़्त में हैं ही । उनका होना स्वाभाविक भी है । वही तो हैं जो इस आँधी को सोशल मीडिया के ज़रिए गति दिये हैं । लेकिन अकादमिक संस्थाओं के प्रमुख जिनसे नीर-क्षीर बुद्धि की अपेक्षा है वो भी इस दौर में अछूते नहीं हैं । 

मुझे एक वाक़या याद आ रहा है । जयपुर में एक महाविद्यालय में विज्ञान गोष्ठी थी। शहर के सबसे बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज के डायरेक्टर “ साइंस फॉर मासेस “ विषय पर बोलने के लिए अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित थे । उन्होंने अपने उद्द्बोधन में कहा “ सदियों पहले हमारे मनीषियों ने जो विज्ञान खोज लिया था आज के यूरोपीय विज्ञान को वहाँ पहुँचने में अभी सदियों का समय लगेगा। इसीलिए एक समय हम विश्वगुरु थे । हमें वो स्थान फिर हासिल करना है । उन्होंने वैज्ञानिकता का एक उदाहरण भी दिया कि उनके दादाजी के पास कोई दाढ़ का दर्द लिए आता तो वो मंत्र पढ़कर एक लोहे की कील पेड़ में ठोक देते थे । जब तक वह कील पेड़ में ठुकी रहती तब तक जीवन में कभी उस व्यक्ति को दाढ़ का दर्द नहीं होता था ।पूछना चाहता था क्या आप भी इसी तरह अपना और परिवार का इलाज कराते हैं ? पर विचार- विमर्श उन्हीं से हो सकता है जिनमें लचीलापन और वैचारिक दृढ़ता हो. जो युगधर्म के अनुसार अलटते- पलटते रहते हों उनसे संवाद का क्या मोल !

यह तो एक है किसकी कहें और किसको छोड़ें जब हर शाख़ पर …. हो । कथावाचक हिंदू राष्ट्र की संकल्पना कर रहे हैं और ज़्यादातर अवाम उनके सम्मोहन में है । 

मैं यही कहना चाहता हूँ कि हम इन की वर्ड के चक्कर में उस व्यक्ति की तरह कुत्ता समझकर बकरी के बच्चे को न फेंक दें ।

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