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*भारत में अमेरिकी सैन्य ठिकानों का इंतज़ाम*

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 लालू के दूल्हे और मोदी के बाइडन

      ~ प्रखर अरोड़ा

भाड़ मिडिया के भौकने की ज़द में आकर हम फूले नहीं समा रहे कि मोदी पहले नेता हैं, जिन्हें अमेरिकी कांग्रेस को दो बार संबोधित करने का अवसर मिला है। ऐसा अवसर तो यूक्रेन के शासन प्रमुख जेलेंस्की भी प्राप्त कर चुके हैं। 

      लालू यादव का इशारा ही था : दूल्हा बनिये, हम सब बारात में शामिल होंगे। मंच पर राहुल गांधी मंद-मंद मुस्कुराते रहे। ‘समझने वाले समझ गये हैं, ना समझे वो अनाड़ी है‘।

      जाने शैलेन्द्र ने क्या सोचकर अनाड़ी फ़िल्म के लिए यह गीत लिखा था। आज की राजनीति में फिट बैठता है यह गीत। राहुल का ‘दूल्हा‘ बनना केजरीवाल आसानी से मंजू़र नहीं करेंगे। बोले, ‘पहले अघ्यादेश रोको प्रस्ताव पास हो, फिर मैं इस बारात का हिस्सा हूं, वरना हम चले‘। भगवंत मान, और केजरीवाल दो मुख्यमंत्री उठे और चल दिये। कहना मुश्किल है कि 10 से 12 जुलाई की बैठक में ये दोनों शिमला आयेंगे।

पटना की महाबैठक में जो पांच वर्तमान मुख्यमंत्री पधारे थे, उनमें से दो उठे और निकल लिये। शुक्रवार दोपहर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आवास पर आरंभ बैठक में कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू, आप, जेएमएम, एनसीपी, शिवसेना, टीएमसी, सपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, सीपीआई, सीपीआई (एमएल), सीपीएम व डीएमके जैसी पार्टियों के 27 नेताओं ने भाग लिया।

       इन नेताओं में राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार, उनकी बेटी सुप्रिया सुले उपस्थित थीं। बाक़ी चेहरों में ममता बनर्जी, एम के स्टालिन, अरविंद केजरीवाल, भगवंत सिंह मान, डी राजा, महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुला, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार व लालू प्रसाद यादव प्रमुख थे।

      अब सवाल यह है कि लालू यादव, राहुल गांधी को दूल्हा बनते क्यों देखना चाहते हैं? लालू यादव संसद में भी गंभीर चर्चा के बीच ऐसा कुछ कह जाते थे कि सदन ठहाकों में गूंज उठता था। लेकिन उनके हास्य में कुछ गूढ़ बातें छिपी होती थीं। क्या लालू प्रसाद प्रेस क्लब में अध्यादेश की कॉपी राहुल द्वारा फाड़ने की घटना को भूल पाये हैं?

      इस सवाल पर आप सब सोचिएगा, जिसमें कहीं न कहीं विदुर नीति, ‘शठे शाठ्यम समाचरेत‘ का आभास होता है।

     क्रांति की भूमि बिहार में सत्ता के विरुद्ध हल्ला बोल कोई पहली बार नहीं हो रहा था। शुक्रवार को हुई बैठक की तुलना गांधी के चंपारण आंदोलन से करना भी अति भावुकता होगी। जेपी ने पटना के गांधी मैदान में संपूर्ण क्रांति का आह्वान सार्वजनिक तौर पर किया था।

 5 जून 1974 को जिस संपूर्ण क्रांति की बुनियाद जेपी ने रखी थी, उसके 50 वर्ष 2024 में पूरे हो जाएंगे। क्या उस इतिहास को दोहराया जाएगा? तब और अब में फर्क़ है लेकिन….!

    ‘संपूर्ण क्रांति‘ की बुनियाद नीतीश कुमार के हुजरे में रखी गई थी। मुख्यमंत्री आवास के बाहर वैसी पब्लिक थी, जो अधिनायकवादी सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकने की उम्मीद लगाये है। अंदर थे रणनीति बना रहे प्रतिपक्ष के नेता। उसकी वजह भी रही है। यह बैठक सार्वजनिक होती, केजरीवाल और भगवंत मान के बायकॉट के तमाशाई ज़्यादा होते। मोदिया-गोदिया चैनलों को कूदने-फांदने का अवसर अधिक मिलता।

       हम एकदम से मान लें कि प्रतिपक्ष की पटना बैठक ‘इज़ी गोइंग‘ रही है, तो ख़ुद को मतिभ्रम का शिकार बना देना जैसा होगा। 

      केजरीवाल की पार्टी राजस्थान में आगामी चुनाव लड़ेगी। क्या कांग्रेस को यह मंजूर होगा, कि वो अपनी संभावित सीटों की बलि केजरीवाल के लिए चढ़ा दे? वो भी उस पार्टी के लिए, जिसे विश्लेषक बीजेपी की बी टीम मानते हैं।

 2024 के महासमर से पहले राज्य विधानसभाओं में चुनावी घमासान बाक़ी है। महागठबंधन के इस यज्ञ में सबसे अधिक आहुति कांग्रेस को ही देनी होगी, यह तो मानकर चलिये। 2023 में जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, तेलंगाना, मिज़ोरम, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव होने हैं। 2024 में लोकसभा से पहले सिक्किम, ओडिशा, अरूणाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव करा लेना है।

     2023 में ही समझ में आ जाएगा कि जो संकल्प पटना और शिमला में किये गये, उसपर कितना अमल हो रहा है। 

     पटना में तीन घंटे तक चली बैठक में बीजेपी को कड़ी टक्कर देने के लिए 15 दलों के क्षत्रपों ने एकसाथ चलने की रणनीति पर काम करने का निश्चय किया। यह सुनना कर्णप्रिय लगता है। उपस्थित नेताओं के बीच एक सीट पर बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का केवल एक प्रत्याशी उतारने के फार्मूले पर चर्चा हुई।

      चर्चा का दूसरा विषय गठबंधन के नाम, सीट शेयरिंग, कॉमन मिनिमम प्रोग्राम आदि था। 

       विपक्षी गठबंधन का संयोजक कौन बने? इसे लेकर पटना में सबसे बड़ा पेंच फंसा था। लालू यादव, ममता बनर्जी, पवार इस पक्ष में थे कि नीतीश कुमार राष्ट्रीय संयोजक की भूमिका में आ जाएं। किंतु मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि अब इस पर निर्णय शिमला में 10 से 12 जुलाई के बीच होने वाली अगली बैठक में लिया जाएगा।

शिमला बैठक में यह भी तय हो जाएगा कि गठबंधन का नाम क्या हो, सीट शेयरिंग हम कैसे करें, संयोजक कौन होगा आदि-इत्यादि। शिमला बैठक की अध्यक्षता मल्लिकार्जुन खड़गे करेंगे।

     जो नेता पटना आये, उनमें से कुछ के बयानों पर ग़ौर करना ज़रूरी है। ममता बनर्जी मानती हैं कि 2024 में बीजेपी दोबारा से यदि सत्ता में आ गई तो उसके बाद से चुनाव ही नहीं होगा। क्या सचमुच ऐसा संभव है?  ममता बनर्जी ने कहा, ‘इस बैठक में तीन बातों पर हमारी सहमति बनी है।

      पहली कि हम सभी एक हैं, दूसरी कि हम सब साथ लड़ेंगे, और तीसरी  हमारी लड़ाई जनता के लिए है।‘ दरअसल, जो चेहरे महागठबंधन के लिए आगे आये, उनमें अधिकांश कहीं न कहीं सीबीआई, ईडी और दूसरी एजेंसियों के निशाने पर रहे हैं।

       मायावती, असद्दुदीन ओवैसी जैसे नेताओं को कभी विपक्षी एकता के लिए फ़िक्रमंद नहीं होना इसका सुबूत है। ख़ैर, इस एकता के लिए विनाश काले विपरीत बुद्धि की राह पर अग्रसर बीजेपी आलाकमान को धन्यवाद देना तो बनता है। 

      बीजेपी में घबराहट ‘वन अगेंस्ट वन‘ फार्मूले को लेकर है। इसका मतलब यह होता है कि बीजेपी के एक उम्मीदवार के खिलाफ पूरे विपक्ष का एक ही प्रत्याशी लड़ेगा।

 राजनीति शास्त्र में इसे फेबियनवादी फार्मूला मानते हैं। ‘एक होकर लड़ो‘, ब्रिटेन की इस सुधारवादी विचारधारा ‘फेबियनवाद‘ के जनक थे, रोमन सेनापति फेबियस कुंक्टेटर।

      अगर यह नया समीकरण बना, तो 2024 के चुनाव में बीजेपी समेत एनडीए को करीब 350 सीटों पर कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ सकती है। लोकसभा में 165 पर बीजेपी, तथा 128 सीटों पर विपक्षी पार्टियों के सांसद काबिज हैं। शेष सीटें उन दलों के पास हैं, जो इस महागठबंधन का हिस्सा नहीं हैं।

       पटना बैठक में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश व दिल्ली के नेता उपस्थित थे। इनके राज्यों को मिला दें, तो लोकसभा की कुल 283 सीटें हैं। कांग्रेस शासित चार राज्यों में लोकसभा की 68 सीटें हैं।

      तो क्या कांग्रेस कुछ सीटों का बलिदान देने को तैयार होगी? महागठबंधन केवल 283 सीटों पर बीजेपी और उसके मित्र दलों को नहीं ललकारेगा। इस लड़ाई का विस्तार 12 राज्यों की करीब 328 सीटों तक शायद हो जाए। पेचोख़म भावी प्रधानमंत्री वाला चेहरा भी है।

नया महागठबंधन 2024 की लड़ाई बिना किसी चेहरे के लड़े यह भी राजनीतिक व्यंग्य का विषय होगा। मोदी एंड कंपनी उनकी ट्रोल आर्मी उस कमज़ोर हिस्से पर चोट करेगी, ऐसा संभव है। महागठबंधन के नेताओं में शक पैदा करने का प्रयास सत्तापक्ष और उसका मीडिया लगातार करेगा। 

      महागठबंधन जिस माध्यम को उपेक्षा की निगाह से देखता है, वह है उसे समर्थन देने वाला मीडिया। मेनस्ट्रीम मीडिया को अपने आइने में ये उतार नहीं पाते।

      सोशल मीडिया इसलिए इनके साथ खड़ा दीखता है, क्योंकि इनमें अधिकांश सिस्टम के दमन और सत्ताधारी नेताओं के अहंकार से तपे पड़े हैं। दो घ्रुवों पर खड़े मीडिया के बीच जो लोग तटस्थ रहना चाहते हैं, उनकी स्थिति पंचिंग बैग जैसी होती है।

      उनके समक्ष रामधारी सिंह दिनकर की पक्तियाँ प्रस्तुत कर दी जाती हैं-‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।‘ कुछ नामचीन चेहरों को सामने कर दिया जाता है। वो देखो मोदी से लड़ने वाले पत्रकारिता के महानायक को। 

पत्रकारिता में महानायकत्व की भयावह प्रतिस्पर्धा है। रोज़ तलाशा जाता है कि फलां एंकर-एंकरनी के शो का आज कितना मिलियन हिट हुआ। शो में मुफ्तिया भाग लेने वाले गेस्ट इस ग़लतफ़हमी में चौड़े हुए दीखते हैं कि आज मैंने फलाना-ढिमकाना की बजा दी। 2024 तक यह पागलपन की हद तक पहुंचेगा।

       भारतीय मीडिया के कुछ ‘हीरो’ न्यूयार्क और वाशिंगटन डीसी की दीवारों के आगे भी दरपेश हुए थे। अफसोस कि कोई ब्रेकिंग स्टोरी हाथ नहीं लगी। अमेरिका में भारतीय मीडिया का एक बड़ा तबका यूएन में योग दिवस, और व्हाइट हाउस से लेकर अमेरिकन कांग्रेस में मोदी-मोदी के अनहद नाद को कवर कर रहा था।

        संसद में नारे और सीटी बजने को लेकर लहालोट थे पत्रकार बंधु। उसके दूसरे घ्रुव पर खड़ा मीडिया मोदी के व्यापक विरोध पर फोकस कर रहा था। 

       कोई पूछे, व्हाइट हाउस के अंदर जो डील हुई, क्या उसे खोद निकालना महत्वपूर्ण नहीं था? अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आते हैं, पत्रकार यह पता करने का प्रयास करते हैं कि विपक्ष के किस नेता से मिले। अमेरिका गये वही पत्रकार इस सवाल को भूल जाते हैं कि ऐसा क्या हुआ कि मोदी ने अपने परम मित्र ट्रंप से मिलना तो दूर, फोन तक नहीं किया। टैक्स घोटाले में एक तरफ़ ट्रंप फँसे हैं, दूसरी तरफ़ बाइडेन

के सुपुत्र।

    2024 में संसदीय चुनाव से न केवल मोदी, बल्कि जो बाइडेन भी वाबस्ता होंगे। चुनौतियां दोनों नेताओं के समक्ष है कि रोज़गार और रेवेन्यू का सृजन कौन अधिक करता है। लेकिन उससे पहले अमेरिकी विदेशमंत्री ब्लिंकन चीन-अमेरिका संबंधों के अच्छे दिन लाने के वास्ते पेइचिंग जाते हैं, उसके निहितार्थ को इंडियन मीडिया समझने से निषेध करता है।

       2019-20 में अमेरिका जाकर पढ़ाई के साथ रोज़गार करने वाले चीनी छात्रों में 22 फीसद की गिरावट आई थी। 2021-22 के अकादमिक सत्र में 2 लाख 90 हज़ार 86 चीनी छात्र अमेरिकी कैंपसों में पढ़ रहे थे। ब्लिंकन ने इस बार डैमेज कंट्रोल किया है। शुरूआत, अमेरिका में चीनी छात्रों की संख्या बढ़ाने से होगी।

       हम इस बात से फूले नहीं समा रहे कि मोदी पहले नेता हैं, जिन्हें अमेरिकी कांग्रेस को दो बार संबोधित करने का अवसर मिला है।

        ऐसा अवसर तो यूक्रेन के शासन प्रमुख जेलेंस्की भी प्राप्त कर चुके हैं। तो क्या बोलोदोमिर जेलेंस्की से बाऊजी की तुलना करें? अमेरिकंस जो जेट इंजन भारत में निर्माण करवायेंगे, वह यूक्रेन युद्ध के काम आया, तो रूस-भारत संबंधों का क्या होगा, इसपर सोचा है कभी?

        अमेरिकी पन्डुब्बियों-जहाजों को भारतीय समुद्री इलाक़ों में ठहरने की इज़ाजत देकर क्या हम उनके लिए

सैन्य ठिकानों का इंतज़ाम नहीं कर  रहे हैं!?

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