अमिता नीरव
पॉन्डिचेरी जाने की योजना में महाबलीपुरम शामिल नहीं था। न जाने कैसे बचपन में धर्मयुग में पढ़े अज्ञेय के लिखे महाबलीपुरम के यात्रा-वृत्तांत की याद आ गई और चैन्नई से उसकी दूरी देखी। तय हुआ कि दो दिन महाबलीपुरम ठहरेंगे और फिर पॉन्डिचेरी जाएँगे।
जब हम महाबलीपुरम पहुँचे तब तक सुबह के दस बज चुके थे। हम गए तो सर्दियों में थे, लेकिन वहाँ सुबह ही धूप तीखी हो आई थी। तय किया कि दोपहर का खाना खाकर थोड़ा आराम करेंगे और धूप ढलने के बाद बीच और फिर शोर टेंपल की तरफ जाएँगे।
रात को जब होटल की तरफ लौट रहे थे, तो जगह-जगह काले पत्थरों की अलग-अलग आकार-प्रकार की कई तरह की मूर्तियों की कई सारी दुकानें थीं। देखकर आश्चर्य हुआ। लगा कि चूँकि यहाँ कई विदेशी पर्यटक आते हैं तो शायद उनके लिए इस तरह की मूर्तियों की दुकानें सजाई गई है।
महाबलीपुरम जाने की योजना के बारे में जब दोस्त को बताया तो उन्होंने सुझाया कि कांचिपुरम के मंदिरों को भी देखा जाना चाहिए। रात को यूँ ही होटल के मैनेजर से कांचिपुरम पर चर्चा चली तो उन्होंने बताया कि यहाँ से डेढ़ घंटे में पहुँचा जा सकता है। मगर उन्होंने यह नहीं बताया कि सुबह बारह बजे के बाद सारे मंदिर बंद हो जाते हैं।
सुबह नाश्ता करने के बाद जब हम कांचिपुरम के लिए निकले तो साढ़े दस बज चुके थे। महाबलीपुरम से कांचिपुरम के पूरे रास्ते में मूर्तियाँ बनाने की कई सारी वर्कशॉप्स दिखी। शर्ट और लूंगी पहने कारीगर पत्थरों को तराशने के काम में लगे थे।
बड़े-बड़े पत्थरों पर चढ़कर उसे तराशते कारीगरों को देखकर एक सवाल आया था कि, ‘क्या इन्हें कलाकार कहा जा सकता है?’ लगभग पूरा दिन और पूरी रात इस सवाल ने मुझे उलझाए रखा। लगा कि यदि ये कलाकार हैं तो फिर उत्पाद की तरह तैयार हो रही इनकी कला का मूल्य क्या है?
देर तक हमारी बहस चलती रही फिर राय बनी कि दरअसल ‘कला वो है जो जीवन में और समाज में मूल्यों की रचना करे।’ इसी बहस में कला के मौलिक होने की और कला में विचार होने की बात भी आई थी। लेकिन आखिर में लगा कि जिस कला में कोई सामाजिक मूल्य नहीं है, कोई व्यक्तिगत मूल्य नहीं है वो कला नहीं है।
जब फिल्में देखना शुरू किया था, तब मसाला फिल्में थियेटर में आया करती थी। दूरदर्शन के दौर में समानांतर औऱ कला फिल्में टीवी पर दिखाई जाती थी। तब पहली बार पता चला था कि अच्छा धर्मेन्द्र, जीतेंद्र, अमिताभ, राजेश, मिथुन, श्रीदेवी, जयाप्रदा, रेखा, हेमामालिनी, माधुरी के अलावा भी फिल्म कलाकार हुआ करते हैं।
और हिम्मतवाला, अंधा कानून, वतन के रखवाले, तेजाब आदि-आदि के अलावा भी फिल्में हुआ करती हैं, जो अक्सर थियेटर में नहीं लग पाती हैं। आश्चर्य हुआ था कि फिर इस तरह की फिल्मों को दर्शक देखता कहाँ है! और यदि दर्शकों तक पहुँचती नहीं है तो फिर इस तरह की फिल्में बनाई क्यों जाती हैं?
तब जाना कि इस तरह की फिल्मों को थियेटर में दर्शक नहीं मिलते हैं, इसलिए ये थियेटर में नहीं लगती है। ये फिल्में दूरदर्शन पर दिखाई जाती है या फिर बड़े शहरों में इस तरह की फिल्मों की स्पेशल स्क्रीनिंग की जाती है, जो इस तरह की फिल्में पसंद करने वाले लोगों के लिए होती है।
उस वक्त पहली बार ये सवाल उठा था कि ‘क्या कला मनोरंजन है?’ यदि कला मनोरंजन है तो फिर सामाजिक विद्रूप की रचना करती दुखांत फिल्में, नाटक, कहानियाँ या उपन्यास तो मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आएँगे, क्योंकि मनोरंजन का मतलब है मजा। और दुख में कैसे मजा मिलेगा!
धीरे-धीरे समझ आया कि कला सिर्फ मनोरंजन नहीं है। क्योंकि इसका लक्ष्य सिर्फ मन बहलाव नहीं है। कला का लक्ष्य व्यक्ति का और प्रकारांतर से समाज का परिष्कार है औऱ लोकप्रिय कला परिष्कार के इस लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाती है। इस लिहाज से लोकप्रियता कला की शर्त नहीं हो सकती है।
एक दूसरी बात, हर तरह की विधा के पाठ्यक्रम में लोकप्रिय रचनाओं पर नहीं गंभीर रचनाओं पर जोर दिया जाता है। यदि थियेटर या सिनेमा के पाठ्यक्रम में क्लासिक्स पढ़ाया जाता है तो इसलिए कि लोकप्रिय रचना को तो स्टुडेंट्स सहित पूरा समाज यूँ ही देखता, पढ़ता है तो उसे पाठ्यक्रम से क्यों जोड़ा जाना चाहिए!
आखिर पाठ्यक्रम का लक्ष्य कला की उस विधा के माध्यम से स्टुडेंट्स की रुचि का परिष्कार है, उन्हें सामाजिक मूल्यों की औऱ प्रकारांतर से समाज की हकीकत की समझ देना है। उन्हें कला और विधा के फर्क को समझाना है, उन्हें इस चीज की समझ देना है कि हर रचना कला का दर्जा हासिल नहीं करती है।
क्योंकि कला का लक्ष्य परिष्कार औऱ उदात्त सामाजिक मूल्यों की स्थापना और उसकी समझ विकसित करना है। सिर्फ मन बहलाना नहीं है। लोकप्रिय साहित्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना दरअसल उस समझ तक पहुँचने की प्रक्रिया को बाधित करने का षडयंत्र है।
कला समाज में मूल्यों की समझ पैदा करने का काम करती ह_