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कलाकार या उनकी कलाएं समाज-निरपेक्ष नहीं हो सकतीं

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-डॉ. सलमान अरशद

लता मंगेशकर जी की मौत पर एक बहस चल निकली कि कलाकार को सिर्फ़ उसके कला के ही सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए या एक इन्सान के रूप में उसने कैसे जीवन जीया है, उसे भी देखना चाहिए. कुछ लोगों ने कहा कि एक कलाकार को सिर्फ़ उसके कला के सन्दर्भ में ही देखना चाहिए, एक इन्सान के रूप में भी उसने कुछ अच्छे बुरे काम किये होंगे लेकिन हम तो उसे एक कलाकार के रूप में ही जानते हैं.
दूसरे पक्ष ने कहा कि एक कलाकार भी समाज का हिस्सा होता है, उसके इर्द गिर्द जो कुछ हो रहा है, उससे वो प्रभावित होता है और उन्हें प्रभावित भी करता है, इसलिए सामाजिक सरोकार के लिहाज़ से भी उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन होना ही चाहिए. दरअसल, हर इन्सान की सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चेतना होती है, वो इससे वाकिफ़ हो या न हो. कला और बौद्धिक जगत का हर काम इन्सान की चेनता को प्रभावित करता है. सोशल मीडिया में लिखा गया है हर वाक्य पढ़ने वाले पर कोई न कोई सूक्ष्म या स्थूल प्रभाव डालता ही है. आप अपनी कला और सृजन से एक मूल्य स्थापित करते हैं तो स्थापित मूल्यों को तोड़ते भी हैं. एक कलाकार आपको इस कदर प्रभावित कर सकता है कि आप उसके बताये साबुन, तेल, शैम्पू इस्तेमाल करने लगते हैं. इसके कारण कलाकार और खिलाड़ी अरबों रूपये कमा रहे हैं. अगर हमारा सरोकार एक कलाकार की सिर्फ़ कला से या एक खिलाड़ी के सिर्फ़ खेल से होता तो क्या विज्ञापन की दुनिया इनको इतने पैसे देती !
कला का रूप कुछ भी हो, ये हमारे जीवन को प्रभावित करती ही है, हर फिल्म, हर गीत, हर संवाद कुछ न कुछ संदेश देता है. यहाँ कुछ फिल्मों के उदहारण से इन्हें समझने की कोशिश करते हैं, रेखा और विनोद मेहरा की एक फिल्म थी, फिल्म में हीरो घर के काम करता है लेकिन कर नहीं पाता और हिरोइन बाहर के काम करती है लेकिन परेशान हो जाती है, अंत में हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि हीरो बाहर के और हिरोइन घर के काम को चुन लेते हैं. दूसरी फिल्म में जितेन्द्र और श्रीदेवी हैं, दोनों वकील हैं, पति-पत्नी हैं, दोनों में अहम् की लड़ाई होती है, अंत में पत्नी घर के और पति बाहर के काम को चुन लेते हैं, यही मजदूर अनिल कपूर और मालिक श्रीदेवी के प्रेम कहानी का अंत है. तीनों फिल्में भारत में जेंडर आधारित स्त्री और पुरुष की भूमिकाओं के पक्ष में तर्क दे रही हैं, आपने फिल्म मनोरंजन के लिए देखी जरूर लेकिन साथ में ये मूल्य भी ले आये. अगर ये फिल्म मैं बनाता तो इनका अंत ये होता कि तीनों ही फिल्मों के अंत में स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर घर और बाहर के काम करते और एक दूसरे को सपोर्ट करते. ये फ़िल्में थोड़ी पुरानी हैं, हो सकता है कि आज इन्हीं कहानियों पर कोई फिल्म बनाये या आने वाले कुछ सालों में बनाये तो फिल्म का अंत वही हो जो मैंने सुझाया है.
क्या आज कोई कह सकता है कोई पुरुष विनोद मेहरा की तरह खाने में पाव भर नमक डाल देगा? रोटी बनाने को स्त्रियों की विशेष कला मानी जाती है, लेकिन आज सारे होटलों में रोटी पुरुष बनाते हैं, मैं खुद बेहतरीन रोटी बना सकता हूँ. सब सीखने और अभ्यास करने से होता है. कुछ दूसरे उदहारण लीजिये. कांग्रेस के टिकट पर अमिताभ बच्चन चुनाव लड़े और जीत गये. फिल्मों में अभिनय के अलावा उनका और कोई काम नहीं था, इसके लिए भी उन्होंने भरपूर पैसा लिया था और वो सारे तिकड़म किये थे जो आज के दौर में लोग अमीर बनने के लिए करते हैं, अमिताभ और उनके परिवार ने न तब और न ही उसके बाद आम जनता के लिए कहीं कोई काम किया है जिसे जनसरोकार से जोड़ा जाये, फिर वो कैसे जीत गये? आप उनकी फ़िल्में पसंद करते थे इसलिए उन्हें पसंद किया और वोट दे दिया. दर्जनों फ़िल्मी लोग सियासत में आये, कुछ लौट गये और कुछ अभी टिके हुए हैं. ये लोग चुनावों में प्रचार करते हैं. क्या पार्टियाँ बेवकूफ हैं जो इन्हें बुलाने के लिए करोड़ों खर्च करती हैं? कई लोग कहते हैं कि इनका इस्तेमाल भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है, अगर इतने भर को सही मान लिया जाए तो भी इतना तो सही है न कि जनता इन्हें देखना चाहती है. फिर जब भीड़ आएगी तो सिर्फ़ इन्हें ही तो नहीं देखेगी, वो भाषण भी सुनेगी, उससे प्रभावित भी होगी और वोट भी देगी. ऐसे में ये क्यों न माना जाए कि जिस पार्टी या दल के लिए कोई कलाकार पब्लिक में आया है, उस पार्टी की सियासत के साथ उसकी सहमति है. अगर ऐसा नहीं भी है तो भी उसने अपने कामों ये ऐसा सोचने और मानने की वजह तो दी है. ऐसे में उस पार्टी के काम के अच्छे या बुरे असर का जिम्मेदार ये कलाकार भी है.
इसलिए ये कहना कि एक कलाकार सिर्फ़ कलाकार होता है और कुछ नहीं, मानने योग्य बात नहीं है. हर वो इन्सान जिसे आप पसंद करते हैं, उसका अच्छा या बुरा कृत्य आपको प्रभावित करता है. लता जी गाने अच्छे गाती थीं ये तथ्य है. उन्होंने अपने गानों से सबका दिल जीता और देश के लिए भी कई मंचों से गाया. नेहरू जी से लेकर मोदी जी तक सभी ने उन्हें पसंद किया. ये उनके व्यक्तित्व का एक पहलु है. उन्होंने सियासत में भले ही कोई भूमिका नहीं निभाई लेकिन हिंदुत्व की सियासत के पक्ष में खड़ी हुईं, उनके एक ट्विट का जितना प्रभाव है उतना आम आदमी पूरी किताब लिख कर भी पैदा नहीं कर सकता, इसलिए एक ट्विट के लिए भी उनकी पक्षधरता पर बात ज़रूरी है, जाति आधारित असमानता और अन्याय को सदियों से जीते हुए भारतीय समाज में उन्होंने सवर्ण हिंदुत्व का पक्ष चुना जो सदियों पुराने इस अन्याय को बनाये रखना चाहती है. इसलिए ये तर्क न दें कि उनकी आलोचना क्यों की जा रही है या अभी ही क्यूँ की जा रही हैं.
कला जनभावनाओं को प्रभावित करने वाला ताकतवर माध्यम है. रामायण दूसरे महाकाव्यों की तरह ही हाड़मांस के बने ब्राह्मण तुलसीदास की एक रचना मात्र है, लेकिन आज अगर उसे दिव्यता हासिल हुई है और घर घर में इसने धार्मिक ग्रन्थ की जगह बनाई है तो इसका कारण तुलसीदास के लेखन और ब्राह्मण समाज द्वारा इसका अपनाया जाना है. रामायण की कथा, तुलसी का काव्य-शिल्प और इसके सामाजिक और राजनितिक पक्ष को लेकर कितनी ही बातें की जा सकती हैं. मुसलमानों ने अपने नातिया कलामों में कुरआन और हदीस के दायरे से बाहर जाकर कितनी ही बातें की हैं, लेकिन नातिया कलाम अपनी धुन और अलफ़ाज़ की वजह से सीधे दिल को छूते हैं, और भी धर्मों और परम्पराओं से ऐसे उदहारण लिए जा सकते हैं.
इसलिए हर कला और कलाकार का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्ष होता है, इस पर उसके जीवन में, उसके मृत्यु पर और उसके बाद भी चर्चा होती रहनी चाहिए. हम इंसान हैं, हमने सभ्यता पैदा की है और इसी में जीते और विकसित होते हैं. हम ग़लतियाँ करते हैं, ग़लतियों से सीखते हैं और स्वार्थों में अंधे होकर गुनाह भी करते हैं. हमारे जीवन के काले और सफ़ेद पक्ष तो होते ही हैं कुछ इन दोनों के बीच के भी होते हैं. सफ़ेद को लेकर प्रेम में दीवाना हो जाना और काले को लेकर नफ़रत से भर जाना ठीक बात नहीं है, धुंधले पर भी चर्चा ज़रूरी है कि क्या होता कि ये भी सफ़ेद के खाने में होता. फिर भी इस चर्चा का महत्व तभी है जब ये प्रेम और नफ़रत के बजाय समाज की चेतना को सकारात्मक तौर पर प्रभावित करने में मददगार हो. बाकी जब नफ़रत समाज, सियासत और कला जगत में केन्द्रीय स्थान ले चुका हो तब कला और संस्कृति पर पैनी नज़र भविष्य निर्माण के लिए ज़रूरी है.

-डॉ. सलमान अरशद

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