सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट
भारत 23 जून 1757 को सामन्ती शासक वर्गों की फूट गद्दारी, और 20 लाख रूपये की रिश्वत खोरी के कारण लार्डक्लाइव की 500 बन्दूक धारी सेना से प्लासी के मैदान में बिना युद्ध किये आधे घंटे में हार गयी और भारत की 18 हजार सेना खड़ी की खड़ी रह गयी। क्योंकि सेनापति मीरजाफर, जगतसेठ, अमीरचन्द्र और नन्दगोपाल जैसे गद्दार अंग्रेजों से मिल गये थे इस कारण भारत 190 वर्षों तक अंग्रेजों का गुलाम बना रहा।
हम भारत वासियों के दो प्रमुख राष्ट्रीय पर्व है। एक 15 अगस्त 1947 जिसे स्वतन्त्रता दिवस कहा जाता है, यह असल में सत्ता हस्तान्तरण दिवस है के साथ-साथ भारत का विभाजन दिवस भी है। दूसरा 26 जनवरी 1950 जिसे गणतंत्र दिवस कहा जाता है। यह वास्तव में संविधान दिवस है।
1857 भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 तक भारत की जनता के अभूतपूर्वशहादत के साथ संघर्ष किया था। क्रान्तिकारियों ने बलिदान और कुर्बानी की परम्परा कायम किया था। हजारो लोग फांसी के फन्दे पर पर चढ़ गये थे। लाखों गोलियों से भून दिये गये थे। करोड़ो लोग बार-बार जन आन्दोलनों के दौरान जेल गये यातनायें सहे तब जाकर 15 अगस्त 1947 के दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद हारकर भारत छोड़ने के लिए बाध्य हुआ था।
भारत के विभाजन का प्रस्ताव-10 जुलाई 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने पारित किया था। पंडित नेहरू द्वारा लिखित, सरदार पटेल द्वारा समर्थित और गान्धी जी द्वारा अनुमोदित था।
क्या कहीं कोई देशभक्त अपने देश के विभाजन के लिए प्रस्ताव पारित करता है? ऐसी तथाकथित आजादी का मिशाल विश्व इतिहास में नहीं मिलता है। यह बेमिशाल है। जहाँ गुलाम बनाने वाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति का प्रतिनिधि वायसराय महारानी विक्टोरिया का पोता लार्ड माउन्टबेटन ही सत्ता हस्तान्तरण के लगभग 10 महीने बाद तक भारत का वायसराय बना रहा।
यह सत्ता हस्तान्तरण पूरी तरह से भारत की जनता के खून से डूबी हुयी थी। जहाँ 14 अगस्त 1947 तक भारत का जो हिन्दू और मुसलमान आपस में मिलकर अंग्रेजो से लड़ते थे वहीं अब तथा कथित आजादी के कारण पूरे देश व्यापी पैमाने पर आपस में एक दूसरे का खून बहाने लगे।
इधर 15 अगस्त 1947 से 17 अगस्त 1947 तक यानी 3 दिन तक भारत के लोगों को पता नहीं था कि वे हिन्दुस्तान में हैं या पाकिस्तान में हैं। उधर सत्ताधारी अंग्रेजों ने जान बूझकर साम्प्रदायिक दंगा करवाया था। परिणामस्वरूप 3 दिनों में 10 लाख से अधिक लोग साम्प्रदायिकवादी दंगों में मारे गये। एक करोड़ लोग अपने देश में ही शरणार्थी बनकर रह गये। एक करोड लोग अपने देश में शरणार्थी बनकर एक कोने से दूसरे कोने तक अपना जान बचाने के लिए दौड़-भाग करते रहे। अरबों-खरबों की पूँजी सम्पत्ति और धन देश की जनता का बरबाद हुआ। इसके लिए जिम्मेदार गद्दार पूँजीवादी नेताओं को सजा मिलनी चाहिए थी किन्तु 14 अगस्त की रात्रि में उन्हें गद्दारी का इनाम मिला और सत्तारूढ हो गये। नेहरू पटेल भारत के प्रधानमंत्री और उपप्रधान मंत्री बनकर सरकार चलाने लगे, उधर जिन्ना साहब पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बन गये, यद्यपि देश के मालिक भारत की जनता ने इन दोनों को सत्ता नहीं सौंपी।
भारत जो पूर्णसामंती और पूर्ण औपनिवेशिक देश था वह अर्द्धसामंती, अर्द्धऔपनिवेशिक में बदल गया। सत्ता हस्तान्तरण के बाद ब्रिटिश राजसत्ता और व्यवस्था सेना, पुलिस, नौकरशाही, ब्रिटिश का ही कानून कायदे सत्ता और व्यवस्था का पुराना ढाँचा ब्रिटिश साम्राज्य समेत कई साम्राज्यवादी देशों पूँजी की सत्ता अमेरिकी नेतृत्व में आज भी कायम है।
15 अगस्त 1947 को भी ऐसा ही हुआ आज के युग में दलाल पूँजीपतियों के नेतृत्व में कोई भी देश पूरी तरीके से आजाद या स्वतन्त्र नहीं हो सकता है हमारे सत्ताधारी लोगों का सम्बन्ध भारत के बड़े-बडे़ पूँजीपतियों और बडे जमीन्दारों एवं राजाओं-महाराजाओं के साथ हैं जो साम्राज्यवादियों के साथ पुराने औपनिवेशिक सम्बन्धों को कायम रखे हुए हैं।
जहाँ देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि इस देश को कोई सरकार नहीं भगवान चला रहे हैं। वहीं निवार्चन आयोग का अध्यक्ष कहता है कि लोग पैसा कमाने के लिए रोज-रोज नई पार्टियाँ बना रहे हैं।
राजनीति अर्थनीति की धुरी है अर्थनीति का चक्कर राजनीति लगाती है। किन्तु वतर्मान समय में समाज में राजनैतिक दरिद्रता छा गयी है। विचारधारा और सिद्धान्तविहीन राजनीति हो गयी है, इसीलिए निजी स्वार्थ के लिए एक पार्टी से दूसरे पार्टी में जाने के लिए भागदौड़ मची हुयी है। शोषणतंत्र को छिपाने के लिये संसदीय लोकतंत्र का ब्रिटिश प्रणाली को 15 अगस्त 1947 के पहले से ही गवर्मेन्ट आफ इण्डिया एक्ट 1935 के जरिये ऊपर से लाद दिया गया था ताकि पूरी स्थिति की जानकारी भारत की जनता को होने ही न पावे।
भारत में झूठ बोलने की आजादी को ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहा जाता है, भारत का संसदीय लोकतंत्र इसी झूठ का नमूना है, जैसा कि सभी पूंजीवादी पार्टियों के चुनावी वादों और नारों को केन्द्र या राज्यों के सरकारों के रवैये से पता चलता है-
सम्पूणर्क्रान्ति का नारा, शोषणमुक्त समाज बनायेंगे, भ्रष्टाचार मिटाएंगे, बेरोजगारी, बेकारी, मंहगाई, कुशिक्षा समाप्त हागी। 2. हर- हाथ को काम, हर- खेत को पानी, 3. जय-जवान, जय-किसान। 4. गरीबी मिटाओ, 5. बैंको का राष्ट्रीयकरण, 6. भूख,भय और भ्रष्टाचार मिटाऐंगे। 7. शाईनिंग इण्डिया, 8.अच्छे दिन आयेंगे, 9. विदेशों में जमा धन 90 दिन में आयेगा, 15-15 लाख रूपया प्रत्येक परिवार के खाते में जायेगा। 10. न्यू इण्डिया, 11. महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी, बेटी-पढ़ाओ और बेटी बचाओ। 12. किसानों की आय 2022 तक दुगनी हो जायेगी।
ऐसे तमाम नारे और वादे जनता के बीच सभी पूंजीवादी पाटिर्यां चुनाव के अवसर पर करती हैं। जनता उनके लुभावने नारे को सुनकर उन्हें चुनती है परिणामस्वरूप जनता को धोखा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता जैसा कि उपरोक्त नारों से परिणाम सामने हैं। किन्तु चुनाव से देश में कुछ लोगों की किस्मत बदलती है, मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, ग्राम प्रधान विकास के नाम पर मिले धन को लूट पाट कर बराबर कर देते हैं, जनता उनसे हिसाब भी नहीं मांग सकती।
कहा जाता है कि भारत में जनतंत्र है, लोकतंत्र है। क्योंकि माननीय मोदी जी जनतंत्र द्वारा चुने गये हैं, लेकिन जनता द्वारा चुने जाने पर जनतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं अपने मन की बात कह कर तथा 135 करोड देश वासियों से टी0वी चैनल पर झूठ बोलते हैं। जो पूरा देश देखता व सुनता है, यह कैसा जनतंत्र है या राजतन्त्र है इटली के मुसोलिनी और जमर्नी के हिटलर से भी आगे है।
अपना भारत वर्ष को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, 70 प्रतिशत लोग गांवों में निवास करते हैं और खेती करते हैं। उनकी जीविका कृषि से ही चलती है, उन्ही को अन्नदाता भी कहते है, भारत में 40 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं।
आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उस समय 1946 से 1951 तक तेलंगाना में हथियार बन्द किसान जमीन के लिये संघर्ष कर रहे थे। तेलंगाना किसान संघर्ष के ताप से डरके 1952 में तथाकथित जमीन्दारी उन्मूलन हुआ कुछ किसानों को जमीन मिली। जो खुद काश्त थे सरकार को दस गुना लगान देकर भूमिधर हो गये और जमीन के मालिक हो गये जो दसगुना लगान नहीं दे पाए वे खुद काश्त करने के बावजूद भी भूमिहीन हो गए। जिनके नाम से खुदकाश्त नहीं रहा मगर खेती करते थे वे भूमिहीन हो गए। इस प्रकार जोतने वाले को जमीन नहीं मिल पायी।
1952 के पहले जमीन के मालिक राजा-रजवाडे, व जमीन्दार ही होते थे आम जनता का जमीन पर कोई अधिकार नहीं था। गांव में भी लोग जमीन्दारों या राजाओं के आदेश पर बसते थे और मकान बनाते थे, 1952 के बाद भी उन्होंने हजारों-हजारों एकड़ जमीन देवी-देवताओं, तथ मन्दिर के नाम दर्ज करा लिया है। क्योंकि जमीन्दारों, राजाओं-महराजाओं के नाम आज भी जमीन्दारी कायम है, भोजन, वस्त्र और मकान का निदान जमीन से जुड़ा हुआ है। जब जमीन से खेती होगी भोजन की समस्या हल होगी। जमीन से मकान की समस्या और जमीन से ही वस्त्र की समस्या हल होगी, किन्तु खेद की बात है किसी भी सरकार ने ऐसा नहीं किया कि जमीन जोतने वाले को जमीन मिले या यह सरकार किसान विरोधी, जन विरोधी है, क्योंकि किसान विरोधी जमीन अधिग्रहण अध्यादेश 2015 में ही पास कर दिया है।
2020 में किसान विरोधी तीन काले कानून बने जो जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हक में अदानी, अम्बानी के हाथ गिरवी करने की साजिश थी। जिसके लिये गत वर्ष तीन काले कानून बनाये गये थे जिसे किसानों के अथक संघर्ष के बाद सरकार को वापस लेने पड़ा। 1967 में नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन जो पूरे देश में कई वर्षों तक चला जिससे सरकार की नींव हिला दिया और जिसकी चिंगारी पूरे देश में आग तरह फैल गया। देश के कोने-कोने में जमीन का सवाल उठने लगा। तिभागा, छबहर, कुड़वा मानिकपुर, तमाम जगहों पर जमीन के लिये आन्दोलन हुआ परिणामस्वरूप सरकार को बाध्य होकर कृषि एवं मकान आदि के लिये पट्टा देना शुरू किया।
क्योंकि पूरी दुनिया में दो व्यवस्थाऐं हैं-
1. पूँजीवाद,
2. समाजवाद,
पूंजीवाद का चरित्र उजागर हो गया जो आपके सामने है। समाजवाद दुनिया के कई देशों में चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, जिम्बाम्बे, वल्गारिया जहाँ मजदूर वर्ग की पार्टी है। मजदूरों का राज हैं वहां कोई बेकार व बेरोजगार नहीं है न कोई भूखा है न नंगा है, समाजवादी चीन के पास अपार सम्पत्ति और पूँजी है। विश्व का सबसे शक्तिशाली और धनी देश बन गया। जो 1949 में क्रान्ति के पहले 40 देशों से पीछे था और वह आज नम्बर 1 हो गया है। उसी चीन में लगभग सभी रोजगारशुदा है। यहां की तुलना में वहां की प्रति व्यक्ति आय 6 गुनी है।
किसी देश की स्वतन्त्रता का तात्पर्य है उस देश की जनता के आत्म निर्णय के अधिकार से होता है। दूसरे शब्दों में किसी देश के आर्थिक राजनैतिक मामले को खुद उस देश की जनता द्वारा समाधान करने का अधिकार होता है। वास्तव में यही स्वतन्त्रता कहा जाता है, जो अपने देश में नहीं हुआ। आज देश की जनता की मांग है- दूसरी आजादी मतलब व्यवस्था परिवर्तन, यानी भारत में नवजनवादी क्रान्ति अर्थात् साम्राज्य वाद विरोधी सामान्त वाद विरोधी क्रान्ति। तब हमारे महान क्रान्तकारियों सरदार भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, असफाक उल्ला खाॅ, सुखदेव, राजगुरू, बटुकेश्वर दत्त, के सपने साकार होंगे।
जब तक भूखा इन्सान रहेगा धरती पर तुफान रहेगा।
*सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट’’*
*आल इण्डिया जनरल सेक्रेट्री*
*भारत चीन मैत्री संघ,बस्ती*
*मो0नं0-9532507014*