ज्योतिषाचार्य पवन कुमार
अनन्त आकाश में विखरे दीप्तिमान तारों के बीच समय-समय पर होने वाले परिवर्तन मानव मस्तिष्क को अनादि काल से आकर्षित करते आ रहे हैं। भारतीय मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने अन्तरिक्ष के अनेक रहस्यों को अपने अन्तवान एवं अपने दीर्घजीवन में किये गये प्रयोगों के आधार पर सुलझाया।
फिर भी अनन्त रहस्य यथावत् विद्यमान हैं। मानव जीवन इतना अल्प है कि किसी एक गतिशील तारे का राशि परिवर्तन भी एक जीवन में देख पाना सम्भव नहीं है। फिर भी ऋषियों ने रहस्य भेदन हेतु मार्ग उद्घाटित कर मानव जाति को एक ज्योति प्रदान की है।
आज भूमण्डल के विज्ञान वेत्ता अपने-अपने साधनों के अनुसार अन्तरिक्ष एवं सृष्टि के रहस्य को समझने हेतु अहर्निश प्रयत्नशील है। भारतीय परम्परा में गुणधर्मानुसार आकाशीय ज्योतिष्पिण्डों का जो त्रिधा वर्गीकरण किया गया है वह यद्यपि आधुनिक परिभाषा से कुछ भिन्न है फिर भी व्यवहारिक दृष्टि से पूर्णतया उपयुक्त है।
_भारतीय ज्योतिष में ज्योतिष्पिण्डों के तीन प्रमुख विभाग हैं :_
1. ग्रह
2. नक्षत्र
3 .तारा
सूर्य और चन्द्रमा को भी ग्रह माना गया है। पृथ्वी को आधारभूत पिण्ड होने से उसकी गणना उक्त तीनों कोटियों से पृथक की गई है। भूधिष्ण्य ग्रह” (भूमि, नक्षत्र, ग्रह) इस प्रकार के भी तीन भेद मान्य है।
यहाँ नक्षत्र और तारा को एक साथ परिगणित किया गया है। भूकेन्द्र मानकर ग्रहों की कक्षाओं का निरूपण किया गया है। किन्तु आचार्य अत्यन्त सावधान थे। इस प्रकार भूकेन्द्रित कक्षा क्रम से किसी को भ्रान्ति न हो जाय. कि वस्तुतः भूमि ग्रहकक्षाओं के केन्द्र में स्थित है।
अतः उन्होंने स्पष्ट शब्दों में निर्देश किया कि जिस वृत्त में ग्रह भ्रमण करते हैं उस वृत्त के केन्द्र में पृथ्वी नहीं है। चन्द्रमा पृथ्वी का निकटवर्ती ग्रह है। इसकी आकर्षण शक्ति का प्रकाश प्रत्यावर्तन का तथा प्रत्यावर्तन से उत्पन्न अनेक परिणामों का प्रभाव पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देखा जाता है। अतः चन्द्रमा ग्रह न होते हुये भी ग्रह कोटि में रखा गया।
इसी प्रकार सूर्य भी अपने परिवार का सर्वाधिक शक्तिशाली पिण्ड है. इसकी शक्ति एवं प्रकाश भूतल पर स्थावर एवं जंगम दोनों सृष्टियों के लिए पोषक स्रोत है। इसके प्रकाश से ही अन्य सभी ग्रह पिण्ड प्रकाशित होते हैं।
इसलिए सूर्य को भी ग्रह कोटि में ही नहीं रखा गया अपितु ग्रहराज दिवाकर कहा गया है। सूर्य और चन्द्र की स्थिति एवं गति ग्रहों की अपेक्षा भिन्न होने के कारण इनके साधन की प्रक्रिया भी भिन्न है। शेष पाँच ग्रहों- मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि को पंचतारा ग्रह कहा गया है तथा इनके साधन अर्थात् इनके भोगांश का ज्ञान लगभग समान सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है।
राहु और केतु दो छाया ग्रह हैं। इनका पिण्डरूप में अस्तित्व नहीं है। इनके आकाशीय नियत स्थान हैं। इन्हें तमोग्रह अथवा पात भी कहा जाता है। नाड़ी वृत्त (आकाशीय मध्यरेखा) तथा चन्द्रकक्षा के दो सम्पात बिन्दुओं को पात अथवा राहु-केतु कहा जाता है। यही कारण है कि राहु और केतु में परस्पर 6 राशि 1800 का अन्तर होता है।
इस प्रकार नव ग्रह एवं एक पृथ्वी सब मिलाकर 10 इकाइयाँ ग्रह कोटि की हुई। तारा और नक्षत्र मूलतः एक है। भौतिक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं है। ये सभी प्रकाशमान हैं तथा अत्यन्त स्वल्प गति से गतिमान है। अन्तर इतना ही है कि क्रान्ति वृत्त के क्षेत्र में आने वाले तारों को चन्द्रमा की गति के आधार पर 27 भागों में विभक्त कर दिया गया है।
एक भाग में आने वाले (क्रान्ति वृत्त के 27वें भाग में स्थित) तारे अथवा तारों के समूह को एक नक्षत्र कहा गया है। इससे भिन्न इस कोटि के ज्योतिष्यान् पिण्डों को तारा कहा जाता है। इन समस्त खगोलीय पिण्डों के रचना की दृष्टि से कुछ अंशों में समानता होती है, किन्तु अनेक अंशों में वैषम्य भी होता है।
प्रत्येक ग्रह एवं नक्षत्रों में सामान्य धर्म के अतिरिक्त कुछ विशेष धर्म भी होते हैं, जिनके कारण इन ग्रहों और नक्षत्रों के परस्पर सम्बन्ध से प्रकृति में अनेक परिवर्तन एवं प्रतिक्रियायें होती रहती हैं।
_ग्रहों का निरूपण करते हुये सूर्य सिद्धान्तकार ने लिखा है :_
अग्रिषोमी भानुचन्द्रौ ततस्वङ्गारकादयः। तेजो-भू-खाम्बुवातेभ्यः क्रमशः पंचजज्ञिरे।
(सूर्य सिद्धान्त 12.24)
अर्थात् सूर्य का अग्रि तत्व, चन्द्रमा का सोमतत्व, भौमका तेजस् (अग्रि), बुध का पृथ्वी तत्व, गुरु का आकाशतत्व, शुक्र का जल तत्व तथा शनि का वायु तत्व है।
अर्थात् इन ग्रहों में पृथक्-पृथक् तत्वों की प्रधानता है। इसी प्रकार नक्षत्रों में भी ग्रहों के अनुरूप गुणधर्म होते हैं, जिनका आधिदैवत्य इनका स्वामित्व कहलाता है। ग्रहों का अपने अनुरूप नक्षत्रों में रहना अनुकूल प्रभावोत्पादक होता है, किन्तु प्रतिकूल नक्षत्रों में रहना प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करता है।
ग्रहों में भी परस्पर मित्र भाव एवं शत्रु भाव होता है। अग्रि तत्व वाले ग्रहों का साम्य अग्रि तत्व वाले ग्रहों के साथ तथा अनुकूल तत्व वालों के साथ मित्र भाव होता है। यथा- अग्रि और जल का विपरीत स्वभाव है।
अग्नि तत्व का जल तत्व के साथ शत्रु भाव होगा तथा अग्रि तत्व और वायु तत्व का सख्य भाव होगा। इसी प्रकार सभी तत्वों के परस्पर संख्य एवं शत्रु भाव के आधार पर ग्रहों में भी शत्रु, मित्र और सम भाव निरूपित किया गया है।
सर्वविदित है कि सूर्य रश्मि से ही सभी ग्रह प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही स्वयं प्रकाशमान है। सूर्य को सप्त रश्मि और सहस्ररश्मि भी कहा गया है। आज भी वर्णक्रम; द्वारा सप्त वर्ण एवं उनकी प्रतिनिधि सप्त रश्मियों को ही पहचाना गया है। हमारे मनीषियों ने इन सप्त रश्मियों को सात नामों से व्यवहुत किया है।
उन रश्मियों का प्रभाव स्थावर जंगम एवं समस्त वायुमण्डल पर पड़ता है। परिणामतः यह प्रभाव वायु-वर्षा ग्रीष्म शरद आदि समस्त प्राकृतिक परिवर्तनों पर भी पड़ता है। जिस वर्ष का अधिपति जो ग्रह हो जाता है उसके प्रकृति के अनुसार ही पृथ्वी का वातावरण होता है।
यथा संवत् 2047 का अधिपति मंगल ग्रह था। मंगल का स्वभाव उग्र है। युद्ध, अग्रि और उत्पात का प्रतिनिधि ग्रह मंगल माना जाता है। अतः शाखकारों ने वर्षेश मंगल का परिणाम इस प्रकार बतलाया है “”जिस वर्ष का स्वामी मंगल होता है उस वर्ष पृथ्वी पर धन एवं अन्न का अभाव होता है।
सर्वत्र युद्ध और रोग की विभीषिका बनीर रहती है। मंगल के अधिपति होने पर पृथ्वी का कल्याण नहीं होता। आकाश में ग्रह नक्षत्रों के योग से विश्व सम्बन्धी अनेक शुभाशुभ घटनाओं के संकेत मिलते हैं यथा~ यदा क्रूरग्रहो वक्री शुभश्चैवातिचारगः।
तदा भवति दुर्भिक्षं राज्ञां युद्धं परस्परम् । इसी प्रकार अनेक योग है जिने विश्व की परिस्थितियों का ज्ञान होता है। प्रत्येक वर्ष के वर्षेश, मन्त्री, मेघेश, रसेश आदि ग्रहों के आधार पर भी शुभाशुभ का निर्णय होता है।
सूर्य और चन्द्रमा के प्रभाव को तो हम प्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी पर अनुभव करते हैं। सर्वाधिक स्थूल उदाहरण ज्वार-भाटा है। यह सूर्य चन्द्रमा की स्थिति विशेष से, उनकी आकर्षण शक्तियों के फलस्वरूप होता है। जिन परिस्थितियों में समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, उन परिस्थितियों में सर्वत्र जहाँ जहाँ जलांश होता है वहाँ वहाँ भी हलचल होती है।
यहाँ तक कि मनुष्य के शरीर में रक्त में तथा वनस्पतियों के अन्दर स्थित रसों में भी उद्रेक होता है।
एक रूसी वैज्ञानिक ने लिखा है :
“ज्वार भाटा के समय पशुओं एवं वनस्पतियों में भी प्राकृतिक आकर्षण शक्ति का प्रभाव अनुभव किया जाता है।”
चन्द्रमा अनेक निकटस्थ होने के कारण भूतल एवं भूतल वासियों के लिए विशेष प्रभावोत्पादक है। वैदिक वाक्य में चन्द्रमा को मन का कारक माना गया है। चन्द्रमा की उत्पत्ति ही ब्रह्मा के मन से हुई है। इसीलिए कहा गया है- चन्द्रमा मनसो जातः। हम प्रत्यक्ष अनुभव भी करते हैं कि चन्द्रमा का सर्वाधिक प्रभाव मन पर पड़ता है। ज्योतिषशास्त्र में भी मनुष्य के विभिन्न तत्वों एवं अंगों का सम्बन्ध ग्रहों से दर्शाया गया है।
आत्मा का सम्बन्ध रवि से, मन का चन्द्रमा से, शक्ति का मंगल से, वाणी का बुध से, ज्ञान का गुरु से, काम का शुक्र से तथा कष्ट का सम्बन्ध शनि से है। शास्त्रकारों ने गर्भाधान काल से ही शुभाशुभ का विवेचन किया है। गर्भस्थ शिशु का विकास ग्रहस्थिति के अनुसार ही होता है।
आचार्य वराह मिहिर ने लिखा है कि प्रथम मास में रक्त संचय, द्वितीय मास में पिण्ड निर्माण, तृतीय मास में अवयव, चतुर्थ मास में अस्थि, पंचम मास में चर्म, षष्ठ मास में रोम तथा सप्तम मास में चेतना संचार होता है। सातवें मास में शिशु पूर्ण हो जाता है। अष्टम और नवम मास गर्भस्थ शिशु के पोषण का होता है।
प्रत्येक मास के स्वामी ग्रह जिन परिस्थितियों में होते हैं उन मासों के गर्भ की स्थिति भी उसी प्रकार होती है। यदि गर्भ स्वामी शुभ एवं बलवान है तो गर्भ पुष्ट होगा। ग्रह निर्बल एवं पापाक्रान्त है तो गर्भ में विकार आ सकता है। ग्रह से सम्बन्धित मासों में गर्भपात भी हो सकता है। गर्भस्थ शिशु का विकास, उसकी मानसिक एवं शारीरिक स्थिति आदि का निर्माण ग्रहों के तत्व एवं के अनुसार ही होता है।
हीनांग, विकलांग, अधिकांश, क्रोधी, सौम्य, पराक्रमी, दुर्बल आदि स्थितियाँ ग्रहों की स्थिति पर ही निर्भर करती है जिनका ज्ञान गर्भाधार काल एवं जन्म काल के आधार पर किया जा सकता है। जन हम देश विशेष के सम्बन्ध में अथवा ऋतु परिवर्तन-वृष्टि एवं भूकम्प आदि के सम्बन्ध में ज्ञान करना चाहते हैं तो संहिताओं के अनुसार ग्रहचार का अवलोकन करना पड़ता है तथा कूर्म चक्र के आधार पर देश विशेष पर घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान कर पाते हैं।
कूर्म चक्र में भूमण्डल को कूर्म के रूप में मानकर उसके शरीर में नक्षत्रों का न्यास किया जाता है। ग्रहचार नक्षत्रों में होता है। जिस प्रकार के ग्रहों का चार जिन नक्षत्रों में होगा उनसे सम्बन्धित शुभाशुभ परिणाम सम्बन्धित देशों में होंगे। यथाश्लेषा, मघा पूर्वाफल्गुनी ये तीन नक्षत्र कर्म के अग्निकोण में स्थित है।
इन नक्षत्रों में शनि के प्रवेश से अंग, बंग, कलिंग, कोशल आदि देशों में उत्पात होते हैं। इसी प्रकार चन्द्र नक्षत्र में सूर्य और चन्द्रमा दोनों स्थित हों तो आंधी तूफान का भय होता है। सूर्य नक्षत्र में यदि दोनों हों तो न वायु न वृष्टि तथा यदि सूर्य नक्षत्र में चन्द्र तथा चन्द्र नक्षत्र में सूर्य हो तो सुवृष्टि होती है।
इसके अतिरिक्त अनेक अन्य विधियाँ भी हैं जिनसे हम वातावरण का ज्ञान कर सकते हैं। परन्तु समस्त विधियों का विवेचन एक लघु निबन्ध में सम्भव नहीं है। संक्षेप में केवल दिग्दर्शन मात्र कराते हुये इस आशय से अवगत करा देता ही उचित होगा कि सभी ग्रह पिण्ड एक दूसरे को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं।
हम भू-वासियों के लिए ग्रहों के साथ-साथ भूमण्डल का भी प्रभाव महत्वपूर्ण होता है। हमारे सौर परिवार में पृथ्वी अपने ढंग का अकेला ग्रह पिण्ड है। जैसा कि भूमि की आकर्षण शक्ति का विवेचन करते समय भास्कराचार्य ने संकेत किया है “कोई भी वस्तु ऊपर से नीचे गिरती हुई प्रतीत होती है।
वस्तुतः वह गिरती नहीं है अपितु पृथ्वी उसे अपनी ओर आकृष्ट करती है। इसी आकर्षण शक्ति के प्रभाव से एक व्यक्ति सीधे पृथ्वी पर स्थित है उससे 1800 की दूरी पर दूसरा व्यक्ति प्रथम की अपेक्षा उल्टा अर्थात् नीचे सिर और ऊपर पैर कर स्थित है। जैसे जल के किनारे मनुष्य की छाया दिखती है उसी प्रकार मनुष्य पृथ्वी पर अनाकुल भाव से स्थित रहता है।
इसका कारण पृथ्वी की आकृष्ट शक्ति ही है। जो पृथ्वी हमें इतनी शक्ति से अपनी ओर आकर्षित किये हुये हैं उसका प्रभाव हमारे शरीर पर अनेक प्रकार से पड़ता रहता है। इसका ज्ञान हमें सामान्य रूप से नहीं हो पाता। • निष्कर्ष रूप से यही कहा जा सकता है कि कोई भी पिण्ड स्वतन्त्र नहीं है।
सभी एक दूसरे से आकृष्ट हैं तथा एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। अतः भूतल पर सभी प्रकार के परिवर्तनों का प्रभाव जानने के लिए सभी ग्रहों एवं नक्षत्रों का ज्ञान आवश्यक है। (चेतना विकास मिशन : 99977 41245 व्हाट्सप्प).