मणेन्द्र मिश्रा ‘मशाल’
बिहार सरकार द्वारा कराए गए जातीय गणना के आकड़े सामने आ गए हैं। पूरे देश में बिहार इस मामले में पहला राज्य है। बिहार जाति आधारित गणना के अनुसार तेरह करोड़ की आबादी में अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36 %,पिछड़ा वर्ग 27%, अनुसूचित जाति 19.65%, अनुसूचित जनजाति 1.68%, अनारक्षित 15.52% कोटिवार विवरण है। इसमें जातियों उनकी आबादी और प्रतिशत का अलग-अलग उल्लेख है। साथ ही धार्मिक आधार के आकड़ों में 81.9% हिन्दू, 17.7 % मुसलमान, 0.05 % ईसाई,0.08 % बौद्ध, 0.009 % जैन बिहार की आबादी है। 1931 की जातीय जनगणना के बाद पहली बार बिहार सरकार ने राज्य के संसाधनों से सीमित समय में जाति आधारित जनगणना जारी किया। बिहार के आकड़ों से राष्ट्रीय राजनीति और राजनैतिक दलों में जातीय जनगणना को लेकर विमर्श तेज हो जाएगा।
इतिहास की तरफ दृष्टिपात करने से स्वतंत्रता आंदोलन के बाद प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी को लेकर संविधान सभा में हुई बहसों से आरक्षण व्यवस्था का विषय स्पष्ट हो जाएगा। भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति/जनजाति के साथ छुआछूत की अमानवीय परंपरा को समाप्त करने के लिए जहां एक ओर अस्पृश्यता निवारण कानून बना वहीं दूसरी ओर एस सी/एस टी वर्गों के लोकसभा एवं विधानसभाओं में समुचित प्रतिनिधित्व के लिए सुरक्षित निर्वाचन सीटों का प्रावधान हुआ। जिससे दलित और जनजातीय समाज से सांसदों और विधायकों की शृंखला शुरू हुई। उसका देश की सामाजिक संरचना पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। अनुसूचित जाति और जनजाति को उसकी आबादी के अनुपात मे आरक्षण मिलने से सरकारी सेवाओं एवं सदनों में दोनों जगह उस वर्ग को आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी मिलने लगा।
आरक्षण की व्यवस्था में ओबीसी की समस्याओं एवं चुनौतियों की दिशा में ठोस पहल न होने से राज्यों सहित राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश तेज होने लगा। आपातकाल के बाद जब देश में समाजवादियों की सरकार बनी उस समय घटक दलों में समाजवादी विचार के नेताओं ने डॉ राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में पिछड़े पाँवें सौ में साठ के नारे को आधार बनाते हुए चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मण्डल कमीशन ने आकार लिया। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे बी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में मण्डल आयोग ने पिछड़ों के सामाजिक/शैक्षणिक आधार का मूल्यांकन कर अपनी रिपोर्ट तैयार किया। लेकिन केंद्र में निर्वाचित सरकारों के बदलाव और सत्ताधारी राजनैतिक दलों के भीतर साहस की कमी के कारण मण्डल रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही। अस्सी के उतरार्द्ध में कांग्रेस की हार के बाद जनता दल की सरकार बनने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री बी पी सिंह ने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट जारी करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। जिसके पृष्ठभूमि में उस दौर के प्रभावशाली छत्रप हरियाणा से देवीलाल,उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह यादव, बिहार से शरद यादव, लालू यादव और राम बिलास पासवान सहित अन्य प्रदेशों के नेताओं ने पिछड़ों के अधिकारों के लिए सड़क से सदन तक आंदोलन किया।
मण्डल कमीशन की सिफारिशें लागू होने से देश के विभिन्न प्रांतों में कुछ समय के लिए सामाजिक हिंसा भी हुआ जो समय रहते नियंत्रण में आ गया। मण्डल कमीशन लागू होने से पूरे देश में पिछड़ों के सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण का रास्ता खुल गया। जिससे सामाजिक विविधता का नया रूप सामने आया। इसके साथ ही उत्तर भारत में सत्ता के केंद्र में पिछड़ीं जातियों का उभार हुआ। नब्बे के दौर में केंद्र और राज्यों में पिछड़ों को आबादी के अनुसार हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व की मांग जोर पकड़ने लगी। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में पिछड़ी जातियों का कोटा तय करने का दबाव केंद्र सरकार पर पड़ने लगा जिसे 2004 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने अमली जामा पहनाया। आरक्षण और प्रतिनिधित्व की धाराएं स्वतंत्र भारत में अनेक सामाजिक आंदोलनों के रूप में लगातार चुनावी राजनीति में राजनैतिक दलों पर प्रभाव डालती रहीं।
यूपी-बिहार में यह धारा बेहद समृद्ध रही। अर्जक संघ के माध्यम से उत्तर प्रदेश में राम स्वरूप वर्मा (कानपुर) और महाराज सिंह भारती (मेरठ) का साठ एवं सत्तर के दशक में प्रभाव रहा,वहीं अस्सी के दशक में मान्यवर कांशीराम ने अनेक सामाजिक प्रयोगों के माध्यम से पिछड़ों-दलितों की एकता को बहुजन नाम देते हुए कैडर आधारित नेता खड़े किए। इन नेताओं में पिछड़े,अति पिछड़े, दलित सहित अन्य उपेक्षित समूह शामिल रहे। उत्तर प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैन्ड से निकले किसान मसीहा नाम से लोकप्रिय चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में दिल्ली के समीपवर्ती राज्यों सहित अन्य शेष राज्यों में पिछड़ीं जाति एकमुश्त लामबंद हुई। जिससे यूपी बिहार में पिछड़ी जातियाँ बेहद ताकतवर रूप से सत्ता में आईं। नब्बे के दौर में जहां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में पिछड़ीं जातियाँ एकजुट हुईं वहीं बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार की अगुवाई में यह एकता सामने आई।
बीते दो दशकों में पिछड़ी जातियों की आबादी के अनुरूप प्रतिनिधित्व में कमी के कारण जातीय जनगणना की मांग तेज हुई। 2011 में तत्कालीन केंद्र सरकार को समाजवादी और लेफ्ट पार्टियों के सांसदों के समूह ने उस समय कराए गए जातीय जनगणना के आकड़े प्रकाशित किए जाने के लिए लोकसभा स्पीकर को माँगपत्र भी दिया था। लेकिन वह आकड़े सामने नहीं आ पाए। 2014 में भाजपा सरकार बनने पर यह मांग फिर से प्रकाश में आया। उत्तर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय से महापरिवर्तन के लिए जातीय जनगणना की मांग उठाया था जिसे बीते विधानसभा चुनाव में चुनावी मुद्दा बनाया। हाल ही में भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन में जातीय जनगणना कराए जाने के मुद्दे पर सभी दलों की सहमति बनी। आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों के क्रम में अखिलेश यादव ने बतौर नेता प्रतिपक्ष यूपी विधानसभा में सदन के भाषणों में जातीय जनगणना के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता दिखाया। इसके साथ ही सामाजिक न्याय के लिए जातीय जनगणना को रास्ता और पीडीए को उसका फार्मूला बताया। समाजवादी पार्टी की तरह बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जातीय गणना कराने के लिए न केवल पहल किया बल्कि अविलंब उसके आकड़े भी जारी कर दिए। हाल ही में सम्पन्न हुए संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल के दौरान कांग्रेसी नेता राहुल गांधीं ने जातीय जनगणना कराने के पक्ष में समर्थन दिया।
बिहार जातीय गणना के आकड़ों से कई बिन्दु उजागर हुए। जिससे विभिन्न जातियों की आबादी को लेकर चले आ रहे भ्रम दूर हो गए। वहीं दूसरी ओर अनेक ऐसी जातियों के नाम प्रकाश में आए जिनके विषय में सामान्य जानकारी का भी अभाव है। इन आकड़ों से कम चर्चित जातियों के नेतृत्व को भी सत्ता की मुख्य धारा में अपने दावे को बल मिलेगा। जिससे नए प्रतीक पुरुष भी उभरेंगे। बिहार ने हमेशा देश के सामने अनेक ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जिनपर बाद में राष्ट्रीय सहमति बनी। आपातकाल के दौर में भारत के लोकतांत्रिक संकट को दूर करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले जय प्रकाश नारायण की भूमि बिहार ही रही। संविधान के लोकतांत्रिक अधिकारों का सफल परिणाम बिहार के सात
दशकों की राजनैतिक यात्रा से भी समझा जा सकता है। देश के पहले दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान, अति पिछड़े समाज के कर्पूरी ठाकुर और अल्पसंख्यक समाज से अब्दुल गफ़ूर का साठ एवं सत्तर के दशक में मुख्यमंत्री बनना बिहार की सामाजिक संरचना के प्रगतिशील गुण को दर्शाता है। जो बाद में 21 वीं शताब्दी में महादलित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के रूप में गतिशील बना रहा।
देश में जातीय स्वाभिमान और अस्मिता की राजनीति के उभार से कई मोर्चों पर सामाजिक कटुता अक्सर दिखती रहती है। लोकतंत्र में आबादी के हिसाब से सभी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व एक नैसर्गिक मांग के रूप में बेहद लोकप्रिय अवधारणा के रूप में स्थापित हो गया है। ऐसे में जातीय जनगणना के माध्यम से सभी जातियों और समूहों को उनके आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी मिले इसके लिए आपसी सहमति बननी चाहिए। सामाजिक तनाव, भेदभाव, वंचित तबके के लिए विशेष अवसर की कमी जैसे अन्य समानार्थी मुद्दे किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है। संविधान और लोकतंत्र का मूल सिद्धांत समानता,बंधुत्व और सामाजिक न्याय है। जातीय जनगणना इसी लक्ष्य को पूरा करने का एक कारगर हथियार है। जिसे बिहार सरकार ने अपने साहसिक राजनैतिक फैसले से पूरे देश के सामने प्रस्तुत कर दिया है।
लेखक: पूर्व अतिथि प्रवक्ता: एंथ्रोपोलॉजी डिपार्टमेंट, इलाहाबाद केन्द्रीय
विश्वविद्यालय