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वर्ण, वर्ग और जाति का आधारभूत विवेचन

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 सुधा सिंह 

    जिस देव या ब्राह्मण ने खेती की दिशा में पहल की थी उसकी प्रकृति दूसरे गणों जैसी ही थी।  गणों की विशेषता है समानता.

     जात्या, सदृशा सर्वे कुलेन सदृशस्तथा। न तु शौर्येण बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः। 

     अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय। सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या नो अच्छा जिगातन।।

    ~ ऋग्वेद (5.59.6)

    अर्थात् इसके सदस्यों में किसी तरह का भेदभाव न था। सुंदरता, शौर्य या बुद्धिमता या किसी अन्य गुण के मामले में कुछ लोग विशेष होते थे, इसकी सराहना भी की जाती थी, उन पर पूरा गण  गर्व अनुभव करता था।

         देव कुल या परिं वार में कृषि उत्पादन अपनाने के कारण गणपति या गण का नेतृत्व करने वाले की भूमिका बदल गई।  गणपति  की भूमिका अपने घर की सुरक्षा करने की थी, और इसलिए गणपति का  साहसी और युवक होना जरूरी था।  

        किसानी की ओर बढ़ने वालों को कृषिविद्या में पैदा होने वाली समस्याओं का समाधान करने वाले किसी अनुभवी परमर्शदाता की जरूरत थी। उसका युवा नहीं बुद्धिमान और वयोवृद्ध होना जरूरी था।

      इसका नेतृत्व गणपति के स्थान पर कुलपति ने ले लिया था। गणपति इसमें सवीकार्य हुए भी तो पुष्टिवर्धन या अन्नदाता के रूप में ही। इस परिवर्तन या समायोजन की प्रक्रिया से हम अपरिचित हैं, पर गणपति के प्रतीक गजराज पर मनुष्य के सवारी करने और अंकुश से उसे नियंत्रित करने की प्रक्रिया और विद्रोही असुरों पर देवों के भारी पड़ने से इसका संबंध हो सकता है।

ऐसा लगता है झूम खेती के चरण पर जब वे असुरों के उपद्रव के कारण यहां वहां भागते फिर रहे थे तभी कई इतर गणों के कुछ लोगों को कृषि पर निर्भरता अधिक सुुरक्षित लगी थी। हमारे पास ऐसा सोचने का आधार यह है कि कुलपति के समकक्ष एक दूसरा शब्द सास (शासिका) भी आज तक आधिकारिक रंगत को बनाए हुए है, जिसके महत्व को इसलिए नहीं समझा गया कि हमारा समाज आठ-नौ हजार साल पहले ही पुरुष प्रधान हो गया था।

         यदि हमारा यह अनुमान सही है तो इसका मतलब है कृषि की पहल जिसने भी की हो, पर आरम्भिक चरण पर कई भाषाई समुदायों के लोग कृषि की ओर आकर्षित हुए थे जिनमें से कुछ मातृ प्रधान और कुछ पितृ प्रधान थे। हम यहां इस बहस में नहीं पढ़ना चाहेंगे कि मानव समाज आदि अवस्था में पितृ प्रधान था या मातृ प्रधान।

       कारण कौन किसका पिता है इसका निर्णय उस अवस्था में संभव नहीं था।  मां की पहचान अवश्य आसान थी। यह जीव वैज्ञानिक समस्या नहीं है, इसलिए किसी समूह के सभी लड़के या लड़कियां आपस में भाई  बहन हुआ करते थे।

       हम जिस अवस्था की बात कर रहे हैं वह उस आदि अवस्था से हजारों साल आगे बढ़ा हुआ था। पर यह पहचान तक सीमित थी। सत्तावादी व्यवस्था बाद में आई और जिन समुदायों के पुरुषों को शिकार, पशुओंं की चरवाही, नौवहन आदि के कारण दिनों महीनों परिवार से दूर रहना पड़ता था उनमें पारिवारिक दायित्व वरिष्ठ स्त्री को ही निभाना पड़ता था, मातृसत्ताक समाजों का यह प्रधान कारण रहा है।

         पुरुषप्रधानता के लिए स्थायी निवास और जीविका का स्थायी साधन जरूरी था। और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए स्वावलंबन जरूरी है। प्रधानता अर्थमूलक है। 

जिस बात की ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं  वह यह कि कृषि विद्या आहार संग्रह की तुलना में अधिक जटिल है और जिन परिस्थितियों में  खेती आरंभ हुई,   उनमें सबसे कठिन काम फसलों की रखवाली का था, जिसमें रात दिन चौकसी रखनी पड़ती थी। 

      हिरनों के झुंड, गवल (घोड़रोज/ नीलगाय) के झुंड, अरनाभैंसों  के झुंड, गयन्द (गैंड़ों) के दल रात के अंधेरे में तो आग के लुकाठों से ही डरा कर भगाए जा सकते थे परंतु दिन की रोशनी में दुकानों की चमक दिखाई नहीं दे सकती थी। 

      इस चौकशी के बिना खेती संभव नहीं थी,   इसलिए इस काम पर कुल के सबसे साहसी  युवकों को लगाया जाता था और उनकी देखभाल भी कुछ विशेष रूप में की जाती थी  जैसे सामान्य परिवारों में यदि कोई पहलवानी करता है तो परिवार के लोग उसके खानपान का  सहज भाव से विशेष ध्यान रखते हैं। 

     इसे हम आज के शब्दों में क्षत्रिय कह सकते हैं। इसके संरक्षण में विश या कुल दूसरे लोग जमीन की सफाई  गोड़ाई, बोआई, सिंचाई, कटाई,  अनाज का भंडारण प्रसाधन और दूसरे काम करते थे।  

      काम करने में अशक्त वृद्धजन और महिलाएं खेती के श्रम से मुक्त थे और वह शिशुओं  और बाल को की देखभाल,  उनका मनोरंजन दीवारों की देखभाल।  इस तरह इस समाज में कार्य विभाजन तो था।  

       वर्ण का अर्थ है विभाजन,  यह,  एक आंतरिक  कार्य विभाजन था  जो परिवारों में भी देखने में आता है।   यह एक बड़ा परिवार था और इसमें कोई शूद्र नहीं था।   इसलिए गीता का यह कथन कि ‘चातुर्वर्ण्यम्‌ मया  सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’ सीमित सार्थकता रखता है, यह देवी विधान नहीं था परिस्थितियों की देन था,  और विभाजन  मूलतः  तीन  तरह के दायित्वों का पर्याय था जिसमें किसी तरह का अलगाव न था। सभी की एक ही संज्ञा थी।

        इसे वर्ण व्यवस्था कहने की जगह श्रम व्यवस्था कहना चाहिए। रोचक है कि आश्रम व्यवस्था पहले आई और वर्ण व्यवस्था उसके बाद। 

जिस देव समाज की बात हम कर रहे हैं वह ऋग्वेद से भी कई हजार साल पहले की सच्चाई है। गणव्यवस्था में साम्य था।  परंतु उसके ओझा भेदभाव – मुक्त गणों के बीच होते हुए भी अपने को दूसरों से ऊपर और अलग रखना और दीखना चाहता था और अलग बनाए रखता था। 

      यह एक बहुव्यापी प्रवत्ति थी और इसमें छिपा है अनन्य होने की कामना और इसके लिए कोई भी क्लेश सहने का संकल्प।

       इनके लिए प्रयुक्त संज्ञाएं – ओझा, सोखा, तांत्रिक, मांत्रिक, और शामन(सर्वविद्) सभी अपर्याप्त हैं पर शामन (shaman) का प्रयोग व्यापक है इसलिए हम इसकी परिभाषा पर ध्यान दें:

      A person regarded as having access to, and influence in, the world of good and evil spirits, especially among some peoples of northern Asia and North America. Typically such people enter a trance state during a ritual, and practise divination and healing.

   भेदमूलक वर्ण की स्थापना में इनकी भूमिका निर्णायक है, क्योकि ये समतामूलक गणसमाज में भी अपने को दूसरों से अलग और ऊपर समझते थे, और इस अंतर को बनाए रखने के लिए अपनी आजीविका के लिए जो उपाय सामान्य जन करते थे, अपनी विशिष्टता की रक्षा के लिए उन से परहेज करते थे,  यद्यपि  उनके चढ़ावे पर ही पलते थे।

       पर इसके लिए कृतज्ञता नहीं ज्ञापित करता था।  चढ़ावा उसकी अपेक्षा से बहुत अधिक मिलता था,  इसलिए वह अपनी जरूरत से अधिक को दूसरों को बांटते हुए यह दिखाने का प्रयत्न करता था कि उसको किसी तरह की आसक्ति नहीं। उसके दानसे दूसरे सभी पलते हैं।  

        इसी ने साधनहीन होने के बाद जब किसानों असंभव को संभव करने की अपनी शक्ति के बल पर  बूढ़े, बुद्धिमान वर्ग में प्रवेश किया तो वृद्ध न होते हुए भी वृद्ध बन गया, आयु की सीमा तोड़ कर बाबा बन गया। ब्राह्मण पैदा होते ही बाबा बन जाता है।         

      बाबा के रूप में शिशु का पैदा होना, मतवा के रुप में बालिका पैदा होना दुनिया में कहीं नहीं होता, ब्राह्मणों जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते।

      परंतु अपने को दूसरों से अलग और ऊपर दिखाने के लिए पुराने शामन ने जो  यह दिखावा किया कि  धन-दौलत में  उसकी कोई रुचि नहीं है, ‘न वै ब्राह्मणाय श्री रमते’, यह एक ऐसी भूल थी जिसकी त्रासदी इस  ब्राह्मण को  इस सीमा तक झेलनी पड़ी कि वह   साधन हीन हो कर  किसानों की  सेवा में आने वाले, परंतु किसानी से परहेज करने वाले, अपने ही पुराने स्वजनों से घृणा पालनी पड़ी।

सबसे रोचक बात यह है कि जन्मना जाति की अवधारणा के विकास में प्रधान भूमिका इन दक्ष कर्मियों की थी क्योंकि कोई भी कौशल पिता-पुत्र क्रम से ही सिखाया जाता रहा है और यदि किसी अन्य दक्षता वाले परिवार में कोई बालक दूसरी दक्षता की ओर आकर्षित होता था तो उसे उस विशेषज्ञता के निष्णात व्यक्ति की शिष्यता ग्रहण करनी होती थी और उसे अपनी पात्रता प्रमाणित करने के बाद लगभग आज्ञापालक (हुक्म का गुलाम)  बन कर रहना पड़ता था।

        संगीत, नृत्य में यदि यह परंपरा भारत में आज तक जीवित है तो इसलिए कि संंगीत, नृत्य, अभिनय में किसानों की अपनी रुचि हो ही नहीं सकती थी जब कि आटविक समुदायों में विविध जन-  किन्नर, यक्ष, गंधर्व  विविध कलाओं के लिए विख्यात रहे हैं।

       ये मान्यताएं और इनके जन्मना विशेष होने के यथार्थ को आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक विवशताओं   के संदर्भ में परखा जाना चाहिए।

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