Site icon अग्नि आलोक

शाश्वत जीवन के आधारभूत सिद्धांत-सूत्र 

Share

        डॉ. विकास मानव 

    आइन्स्टीन ने कहा था, “मेरी दृष्टि में ईश्वर इस संसार में संव्याप्त एक महान नियम है। मेरी मान्यता के अनुसार ईश्वरीय सत्य अंतिम सत्य है। अंतिम सत्य की खोज ही विज्ञान का परम लक्ष्य है। अपने मार्ग पर चलते हुए विज्ञान ने जो तथ्य ढूँढ़े और सत्य स्वीकार किए हैं उन्हें देखते हुए भविष्य में और भी बड़े सत्यों का रहस्योद्घाटन होता रहेगा।”

    केनोपनिषद् में प्रतिपादन है :

   परब्रह्म ऐसा कोई विचारणीय पदार्थ नहीं है, जिसे मन द्वारा ग्रहण किया जा सके। वह तो ऐसा तथ्य है जिसके आधार पर मन को मनन शक्ति प्राप्त होती है। परबह्म ही नेत्रों को देखने की, कानों को सुनने की, प्राणों को जीने की शक्ति प्रदान करता है। वह सर्वान्तर्यामी और निरपेक्ष है। वह कोई देवता नहीं है और न वैसा है जिसकी परब्रह्म नाम से उपासना की जाती है।

   मुण्डकोपनिषद् का कथन है :

 जिसका मन पवित्र और शान्त है, वह निर्मल ज्ञान की सहायता से गम्भीर ध्यान का आश्रय लेकर उसकी प्रतीति कर सकता है।

     आइंस्टीन अंर्तज्ञान को विशेष महत्त्व देते थे। उनका मत था- ज्ञान आवश्यक है। उसी के सहारे दैनिक क्रिया-कलापों का संचालन और निर्णयों का निर्धारण होता है। फिर भी अन्तर्ज्ञान का अपना क्षेत्र और अस्तित्व है।

    मस्तिष्क की क्षमता और तर्क की उड़ान सीमित है, लेकिन एक स्थिति ऐसी भी आती है जहाँ चेतना उछलकर किसी ऐसे स्थान पर पहुँच जाती है, जहाँ मस्तिष्क के सहारे पहुँचना कठिन है। संसार के महान आविष्कार इसी रहस्यमयी अंतः प्रज्ञा के आधार पर संभव हुए हैं। प्रमाणित करने वाले अन्वेषण का कार्य तो यह प्रकाश मिलने के उपरान्त आरम्भ होता है।

*ईश्वर विश्वास की फलश्रुति :*

    आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान को एक ही तथ्य का उद्बोधक माना गया है। ईश्वर विश्वास के साथ जुड़ा हुआ आत्मविश्वास जब विकसित होता है तो उस पर उच्चस्तरीय आदर्शवादिता छाई रहती है। यह आच्छादन सामान्य दृष्टि से भले ही नगण्य-सा प्रतीत होता हो, पर उसका प्रतिफल क्रमशः अधिकाधिक फलदायक सिद्ध होता जाता है।

   जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर विश्वास सहायक होता है। वह असन्तुलन को सन्तुलन में बदलता है। निराशा के क्षणों में उसकी वह ज्योति चमकती है, जिसे दीनबंधु, भक्त-वत्सल, अशरण- शरण आदि नामों से पुकारते हैं और मातृतुल्य वात्सल्य प्रदान करने की, अंचल में आश्रय देने की कल्पना करते हैं।

    श्रेष्ठ मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य एवं सुसम्पन्न साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है, वह सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन ही नहीं, वरन सहायता के आश्वासन भी देता है। इनके सहारे चलने वाले का साहस प्रतिकूलताओं के बीच भी अविचल बना रहता है। नास्तिक ऐसी किसी सहायता की आशा नहीं करता, साथ ही अपनी दुर्बलताओं और कठिनाइयों को देखता रहता है। ऐसी दशा में उसे ऐसी अन्तःस्फुरणा का लाभ नहीं मिलता जो अग्रगमन के लिए साधनों से भी अधिक मूल्यवान होती है।

*कर्मफल सुनिश्चित :*

    कर्मफल न चाहते हुए भी मिलते हैं। कोई नहीं चाहता कि उसे अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दण्ड मिले। कोई नहीं चाहता कि पुरुषार्थ के अनुपात से ही उसे सफलता मिले। हर कोई दुःख से बचना और सुख का अधिकाधिक लाभ पाना चाहता है। 

     पर यह इच्छा कहाँ पूरी होती है? जो व्यवस्था तोड़ते हैं वे ठोकर खाते और दण्ड पाते हैं। सभी सुविधाजनक स्थिति में रहना चाहतें हैं, पर सृष्टिक्रम के आगे किसी की मर्जी नहीं चलती। इस व्यवस्था प्रवाह को ईश्वर समझा जा सकता है।

*आस्तिकता का अवलम्बन :*

    मानव जीवन में समता, सहयोग, शिक्षा, चरित्र और सुरक्षा जैसे उच्चस्तरीय तत्त्वों के अभिवर्धन की आवश्यकता है। इन्हें आस्थाओं की गहराई में प्रवेश कराने के लिए आस्तिकतावादी जीवन- दर्शन की आवश्यकता होती है। 

      निजी और तात्कालिक संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाकर ही जीवन में सामाजिक और आदर्शवादी मूल्यों का परिपोषण हो सकता है। लेकिन प्रत्यक्षवाद का दबाव यह रहता है कि अपना सामयिक स्वार्थ सिद्ध किया जाए, भले ही उसके फलस्वरूप भविष्य में अपने को ही हानि उठानी पड़े अथवा सार्वजनिक अहित करना पड़े। इस पशु प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए ही मानवीय आदर्शों की नींव रखी जाती है। 

     मानव जीवन की गरिमा और सामाजिक व्यवस्था के लिए साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी आस्थाओं की है। उत्कृष्टता के प्रति आस्था उत्पन्न करना ही आस्तिकता का मूलभूत आधार है।

*परमार्थ सच्चा स्वार्थ है :*

    आस्तिकता के मूलभूत आधार को जिन्होंने अपनी जीवन-शैली बनाया, उनके जीवन व क्रियाकलापों को परमार्थ-निष्ठा का आदर्श कहा जा सकता है। परमार्थ का अर्थ ही वह कार्य है कि जिससे सर्वश्रेष्ठ प्रयोजन की पूर्ति होती हो। इसी कारण परमार्थपरायणता को आस्तिकता का आधार दर्शन कहा जा सकता है।

    परमार्थ-बुद्धि से जो कुछ भी किया जाता है, जिस किसी के लिए भी किया जाता है, वह लौटकर उस करने वाले के पास ही पहुँचता है। तुम्हारी यह आकांक्षा वस्तुतः अपने आप को प्यार करने, श्रेष्ठ मानने और आत्मा के सामने आत्म-समर्पण करने के रूप में ही विकसित होगी।

    दर्पण में सुंदर छवि देखने की प्रसन्नता- वस्तुतः अपनी ही सुसज्जता की अभिव्यक्ति है। दूसरों के सामने अपनी श्रेष्ठता प्रकट करना उसी के लिए संभव है जो भीतर से श्रेष्ठ है। प्रभु की राह पर बढ़ाया गया हर कदम अपनी आत्मिक प्रगति के लिए किया गया प्रयास ही है। जो कुछ औरों के लिए किया जाता है, वस्तुतः वह अपने लिए किया हुआ कर्म ही है। दूसरों के साथ अन्याय करना अपने साथ ही अन्याय करना है। हम अपने अतिरिक्त और किसी को नहीं ठग सकते। दूसरों के प्रति असज्जनता बरतकर स्वयं के साथ ही दुष्ट दुर्व्यवहार किया जाता है।

    दूसरों को प्रसन्न करना अपने आप को प्रसन्न करने का ही क्रिया-कलाप है। गेंद को उछालना अपनी मांसपेशियों को बलिष्ठ बनाने के अतिरिक्त और क्या है। गेंद को उछाल कर हम उस पर कोई एहसान नहीं करते। उसके बिना उसका कुछ हर्ज नहीं होगा। यदि खेलना बंद कर दिया जाए तो उन क्रीड़ा के उपकरणों की क्या क्षति हो सकती है? अपने को ही बलिष्ठता के आनंद से वंचित रहना पड़ेगा।

*भक्ति-भावना :*

    ईश्वर रूठा हुआ नहीं है कि उसे मनाने की मनुहार करनी पड़े। रूठा तो अपना स्वभाव और कर्म है। मनाना उसी को चाहिए। अपने आप से ही प्रार्थना करें कि कुचाल छोड़ें। मन को मना लिया, आत्मा को उठा लिया तो समझना चाहिए ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई और उसका अनुग्रह उपलब्ध हो गया। 

    गिरे हुओं को उठाना, पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना, भूले को राह बताना और जो अशांत हो रहा है उसे शांतिदायक स्थान पर पहुँचा देना यह वस्तुतः ईश्वर की सेवा ही है। जब हम दुःखी और दरिद्र को देखकर व्यथित होते हैं और मलीनता को स्वच्छता में बदलने के लिए बढ़ते हैं, तो समझना चाहिए ये कृत्य ईश्वर के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए ही किए जा रहे हैं। दूसरों की सेवा-सहायता अपनी ही सेवा-सहायता है।

    प्रार्थना उसी की सार्थक है जो आत्मा को परमात्मा में घुला देने के लिए व्याकुलता लिए हुए हो। जो अपने को परमात्मा जैसा महान बनाने के लिए तड़पता है, जो प्रभु को जीवन के कण-कण में घुला लेने के लिए बेचैन है। जो उसी का होकर जीना चाहता है, उसी को भक्त कहना चाहिए। दूसरे तो विदूषक हैं। कुछ लेने के लिए किया हुआ भजन वस्तुतः प्रभु प्रेम का निर्मम उपहास है। भक्ति में तो आत्मसमर्पण के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। वहाँ देने की ही बात सूझती है, लेने की इच्छा ही कहाँ रहती है।

    ईश्वर का विश्वास सत्कमों की कसौटी पर ही परखा जा सकता है। जो भगवान पर भरोसा करेगा वह उसके विधान और निर्देशों को भी अंगीकार करेगा। भक्ति और अवज्ञा का तालमेल बैठता कहाँ है?

    हम अपने आप को प्यार करें, ताकि ईश्वर से प्यार कर सकने योग्य बन सकें। हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, ताकि ईश्वर के निकट बैठ सकने की पात्रता प्राप्त कर सकें। जिसने अपने अंतःकरण को प्यार से ओतप्रोत कर लिया, जिसके चिंतन और कर्तृत्व में प्यार बिखरा पड़ा है, ईश्वर का प्यार केवल उसी को मिलेगा। जो दीपक की तरह जलकर प्रकाश उत्पन्न करने को तैयार है, प्रभु की ज्योति का अवतरण उसी पर होगा। ईश्वर का अस्तित्व विवाद का नहीं, अनुभव का विषय है। जो उस अस्तित्व का जितना अधिक अनुभव करेगा, उतना ही प्रकाशित उसका जीवन होता जाएगा।

Exit mobile version