~ नीलम ज्योति
दक्षिण अमेरिकी कहानी से विषय-प्रवेश करते हैं.
एक मछुआरा अपनी छोटी सी नाव में मछली पकड़ रहा था. वहां घूमने आया एक टूरिस्ट उसे देख रहा था.
मछुआरे ने दसेक मछली पकड़ी और जाने लगा तो टूरिस्ट जो किसी बड़ी कंपनी में काम करता था उसने पूछा, कितनी देर में ये मछली पकड़ लेते हो. मछुआरे ने कहा- एकाध घंटे, कभी कभी दो तीन घंटे.
टूरिस्ट ने कहा कि अगर तुम आठ घंटे मछली पकड़ोगे तो सौ से अधिक मछली पकड़ सकते हो.
मछुआरे ने कहा- फिर क्या करूंगा
टूरिस्ट ने कहा- उसे बाज़ार में बेच देना
मछुआरा- फिर?
टूरिस्ट- इस तरह से हर दिन आठ दस घंटे काम कर के तुम खूब पैसा कमा लोगे.
मछुआरा- फिर?
टूरिस्ट- फिर क्या तुम बड़ी नाव लेना मछली पकड़ने की और हज़ारों मछलियां पकड़ना.
मछुआरा- फिर आगे…
टूरिस्ट- ढेर सारी नाव हो जाएगी तो लाखों मछलियां पकड़ोगे और विदेशों में भेजोगे. खूब पैसा आएगा.
मछुआरा- फिर?
टूरिस्ट- फिर क्या अमेरिका में एक कंपनी खोल लेना. मल्टीनेशनल. पूरी दुनिया में तुम्हारा नाम होगा. पैसा होगा.
मछुआरा- फिर?
टूरिस्ट- फिर क्या. तुम्हारे नीचे लोग काम करेंगे. तुम्हें कोई चिंता नहीं होगी
मछुआरा- तो फिर मैं करूंगा क्या.
टूरिस्ट- तुम छुट्टी लेना और कहीं शांत जगह पर नदी किनारे बैठ कर आराम करना.
मछुआरा- मैं ये दस मछलियां घर पर देने के बाद आराम ही करता हूं नदी किनारे.
कहने का अर्थ आप लोग समझ गए होंगे लेकिन फिर भी :
नारायण मूर्ति ने कहा है कि लोगों को खास कर युवाओं को दिन के दस घंटे काम करना चाहिए. ऐसा कहने वाले वो पहले आदमी नहीं हैं. विदेशों में और भारत में भी ऐसा कहने वाले कारपोरेट के कई लोग हैं. इसमें से एक एलन मस्क भी हैं. शायद चीन के अलीबाबा के बॉस ने भी ऐसा कहा था.
असल में चाहे वो मस्क हों या फिर मूर्ति, ये मूल रूप से लोगों का खून पीने वाले प्रेत हैं. वो चाहते हैं कि दुनिया में हर गरीब, मिडिल क्लास आदमी एक ऐसा सपना देखे जो कभी पूरा न हो सके और वो उस सपने के पीछे भागते हुए उनकी तिजोरियां भरता रहे.
हो सकता है कि कोई यहां आकर यह ज्ञान दे देगा कि लालबहादुर शास्त्री जी ने कहा था कि आराम हराम है तो मैं उसका जवाब भी दे देता हूं. राष्ट्रनिर्माण का समय अलग होता है. तब देश आज़ाद हुआ था.
पिछड़ा था तो लोगों ने अधिक काम किया. यह प्रक्रिया कुछ साल की ही होती है. दस-पंद्रह साल. जीवन भर लोगों को एक पैर पर खडा कर के काम करवाने की प्रवृति तानाशाही ही कहलाती है.
मनुष्यों ने बहुत संघर्ष कर के आठ घंटे काम करने की डील की है. वर्ना औद्योगिकरण के बाद दस दस घंटे काम करवा कर कम वेतन देना आम बात थी. लोगों ने बहुत लड़ाइयां लड़ी हैं इसके लिए. चूंकि औद्योगिक क्रांति यूरोप में हुई तो यह लड़ाईयां यूरोप में ही शुरू हुईं.
अब यूरोप इस स्तर पर आ गया है कि कई देशों में हफ्ते में चार घंटे काम करने की बात हो रही है आम लोगों के लिए.
भारत में लग रहा है कि लोगों का खून चूसकर सेठों का पेट नहीं भरा है. वो चाहते हैं कि लोग मर जाएं उनके लिए काम करते हुए. वैसे इसमें नारायण मूर्ति का दोष नहीं है. हर छोटा मोटा और बड़ा सेठ यही चाहता है कि उनके यहां काम करने वाले लोग दस बारह घंटे काम करें.
भारतीय मानसिकता भी इस तरह की है कि अपना काम करने के बाद मुंह देखते रहते हैं बॉस का कि वो कब झोला उठाता है.
मेरे एक मित्र कहते हैं :
मैं जिस दफ्तर में काम करता था वहां आठ घंटे काम करने का चलन था. लंबे समय तक यह चलन रहा. लोग ब्रेक लेते थे. आठ घंटे के बाद चले जाते थे. एक हमारी बॉस थी. अगर आप आठ घंटे से अधिक रूके हैं तो वो डांटती थी कि घर जाकर किताब पढ़ो. अच्छी पत्रकारिता करनी है तो.
कालांतर में बॉस बदले और डिजिटल का जमाना आ गया. मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं दफ्तर छोड़ रहा था तब तक हालत यह थी कि मैं अकेला आदमी था पूरे दफ्तर में जो घड़ी देखकर एक घंटे का ब्रेक लेता था और बिना ज़रूरी काम के दफ्तर में रूकता नहीं था.
दफ्तर में बाद में आए युवा लोग ब्रेक नहीं लेते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे उनके नंबर कटेंगे. नतीज़ा वही होता था कि चार छह महीने के बाद फ्रस्टेट होने लगते थे कि मैंने इतना काम किया कुछ मिला नहीं.
मैं हमेशा कहता था- जितना काम है उतना कीजिए. अतिरिक्त काम करिए तो अपेक्षा मत कीजिए कि प्रमोशन हो जाएगा. अपने लिए समय बचाइए.
मैंने भी शुरूआती दो सालों में ऐसा किया कि छुट्टियां नहीं ली साल भर. बाद में पता चला कि छुट्टियां बेकार चली गईं. उसके बाद अगले पंद्रह सोलह सालों तक मैने एक छुट्टी नष्ट नहीं होने दी. छुट्टियों में फोन ऑफ कर देना मेरा प्रिय कार्य होता था और मैं अमूमन दिल्ली से बाहर चला जाता था.
आठ दस बारह घंटे काम कर के क्या हासिल हो जाता है. भगवान जाने. मेरा एक परिचित नया नया इंजीनियर बना है. शुरू शुरू में वो खूब बताता था कि मैं ये प्रोजेक्ट कर रहा हूं मेरी सैलरी इतनी है. नौकरी के दो ही साल में फ्लैट, गाड़ी सब खरीद लिया. अब पांच साल के बाद यह हालत है कि सत्ताईस साल की उम्र में डायबीटिज़, ओवरवेट से परेशान है. और भी तमाम परेशानियां हैं. डिप्रेशन है सो अलग है.
कुछ प्रोफेशन हैं जहां काम के घंटे तय नहीं होते हैं. जैसे पुलिस, रिपोर्टर, आदि आदि आदि लेकिन हर आदमी को दस घंटे काम में झोंक देना एक बेवकूफी ही है. हर आदमी अडानी, अंबानी नहीं हो जाता है. एक बड़ी आबादी सामान्य लोगों की है दुनिया में.