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मूलभूत चिंतन : स्त्री उत्पीड़क आदर्शवाद

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 सुधा सिंह

      _मैं स्त्रियों के उत्पीड़न की आम सच्चाई को मानती हूँ, पर एकदम आदर्शवादी ढंग से उनके बारे में कत्तई नहीं सोचती ! मैंने लोर्का के नाटक “हाउस ऑफ़ बर्नार्ड अल्वा” की मुख्य पात्र की तरह ऐसी भी स्त्रियाँ देखी हैं, जो साक्षात् पुरुष-सत्ता का मूर्त रूप होती हैं, मध्यवर्गीय परिवारों में “घर उजड़ जाने” के डर से पति को हर कीमत पर किसी भी प्रकार की सामाजिक सक्रियता से रोकने वाली पत्नियों को भी देखा है और पति को जूतियों के नीचे दबाकर रखने वाली देवियों को भी देखा हैI_

     मैंने ऐसी माँओं को भी देखा है जो अपनी बेटियों की आज़ादी को पिताओं से कई गुना अधिक कुचलती हैं और पितृसत्तात्मक रूढ़ियों को स्वीकारने के लिए उनका मानसिक अनुकूलन करती हैंI 

मानती हूँ कि इसके लिए भी स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ही ज़िम्मेदार है– हजारों वर्षों की पराजय और दासता से पैदा हुआ विमानवीकरण, घरेलू दासता से पैदा हुआ दिमागी क्षितिज का संकुचन और गहन असुरक्षा-बोध आम स्त्रियों को किसी भी प्रकार के बदलाव के प्रति संशयशील, अन्धविश्वासी, परम्परावादी और यथास्थितिवादी बनाते हैंI

      अभिजन समाज की नारीवादी स्त्रियाँ इस कठोर सच्चाई से नज़रें चुराती हैं और आम स्त्रियों पर दिखावटी हमदर्दी की बारिश करती रहती है, जबकि इस दिमागी गुलामी पर हथौड़े से चोट करके ही वास्तव में उन्हें मुक्ति का सपना दिया जा सकता है.

     इस प्रकार की आलोचनात्मक शिक्षा का असर सबसे पहले उन मज़दूर स्त्रियों पर पड़ता है जो घरेलू गुलामी से एक हद तक मुक्त और एक हद तक आर्थिक तौर पर स्वावलंबी होती हैं I सामाजिक उत्पादन की कार्रवाई से कटी हुई घरेलू स्त्रियाँ, विशेषकर मध्यवर्गीय गृहणियाँ स्त्री-मुक्ति के विचारों और रास्ते को बहुत मुश्किल से, और बहुत देर से  समझ पाती हैं.

           कई ऐसी शिक्षित मध्यवर्गीय स्त्रियों को देखा है जो पति की कमाई पर आराम से घरेलू जीवन जीती हैं, मॉल-मल्टीप्लेक्स-क्लब के चक्कर लगाती रहती हैं पर जब नारीवादी जोश में आकर मर्दों के ख़िलाफ़ लेक्चर दागने लगती हैं तो लगता है जैसे उनके मुँहसे ड्रैगन की तरह आग निकलने लगेगीI

       खाती-पीती मध्यवर्गीय स्त्रियों का गरीबों-मज़दूरों के प्रति घटिया व्यवहार भी देखा है I माफ़ कीजिये, इसीलिये मैं खासकर मध्यवर्गीय स्त्रियों के बारे में एकदम किताबी आदर्शवादी ढंग से नहीं बल्कि यथार्थवादी ढंग से सोचती हूँ ! मध्यवर्गीय स्त्रियाँ जेंडर के स्तर पर उत्पीड़ित होती हैं, पर वर्ग के स्तर पर मिथ्या श्रेष्ठता-बोध से ग्रस्त होती हैं और रोज़मर्रा के जीवन में उनका व्यवहार जेंडर से ज्यादा वर्ग से तय होता हैI

       _अभिजन समाज की स्त्रियों का व्यवहार रिक्शावालों के प्रति, मज़दूरों के प्रति या कामवाली के प्रति कितना घटिया होता है ! हाँ, यह भी सही है कि जो पति पत्नी-आराधक होते हैं, उनकी अपनी भी कोई कमजोर नस दबी होती है._

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