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बतंगड़ (8):कहा था- न खाऊंगा, न खाने दूंगा…मजा करने के लिए थोड़ी मना किया था

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विवेक मेहता

हाथी के साथ रिश्तो को लेकर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म को ऑस्कर मिला। उसका क्रेडिट ले इसके पहले ही उच्च सदन में नेताजी ने चेता दिया था कि देखो ऐसा न हो जाए। तो सोचा इसका लाभ दूसरे तरीके से ले लें। हाथी-शेर से मुलाकात ही कर लें। फिर एक फोटो सामने आया। बड़े महंगे लेंस वाले कैमरे से फोटो क्लिक करते हुए। इस महान क्षण को आतुरता से अपने कैमरे में उतारता हुआ दूसरा कैमरामैन। इस सच्चाई की फिल्मता हुआ वीडियोग्राफर। वीडियोग्राफर और अन्य लोग सही काम कर रहे है इसका प्रूफ इकट्ठा करता एक और फोटोग्राफर। इस कार्य में ड्रोन कैमरा था या नहीं इसका कोई संकेत अभी तक मिला नहीं। हो सकता है ड्रोन कैमरा नहीं हो। क्योंकि कहा तो यह गया था कि जहां भ्रष्टाचार होगा वहां चेक करने के लिए उसे भेजा जाएगा। यहां तो फिजूलखर्ची थी, भ्रष्टाचार थोड़े ही था। यह भी हो सकता है की यह असत्य का एक रूप हो। फकीर इतना खर्चीला तो नहीं हो सकता! हो भी सकता है, किसके लिए छोड़कर जाना है। असत्य के सच्चे रूप इतने है कि सच्चा रूप भी असत्य जान पड़ता है।

          इस बीच भाई लोग धारवाड़ कर्नाटक की 110 मिनट की यात्रा का आधा अधूरा 95000000 रुपए के खर्चे का बिल लाकर बतंगड़ खड़ा करने लगे। जबकि इस खर्चे में कैमरामैन, ड्रेस, हवाईयात्रा, पुलिसफोर्स जैसे अनेक खर्च शामिल नहीं थे। यदि इन्हें जोड़ते तो और बड़ा हवा हवाई बतंगड़ खड़ा कर देते। वीपी सिंह जिस तरीके से बोफोर्स के वक्त बतंगड़ खड़ा कर रहे थे वैसा करते तो बतंगडी लोग बोल रहे होते कि यदि एक-एक रुपया भी गरीबी की रेखा के सीमा पर जी रहे लोगों के खाते में डाल दे तो लगभग 10 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर आ जाते। अमृतकाल में अब गरीबी रही नहीं। शहरों की तरह उसका नाम बदलकर अमीरी कर दिया गया है। गरीबी रेखा ही कहां है? आपको मालूम हो तो आप से बड़ा देशद्रोही कोई और नहीं! 

          हमारा शेर भी बीटीआर में शेर देखने गया। जंगल का शेर ड़र के मारे भाग गया। दिखा ही नहीं। फोटो कहां से खींचे! वैसे भी उसने तो नियम का पालन ही किया-एक जंगल में दो शेर नहीं रह सकते। यह उसकी अपने शेर होने के बारे में गलतफहमी थी। इससे तो बाद में और तरीके से निपटा जा सकता है। जाएगा भी। उसके चक्कर में ड्राइवर मधुसुधन की नौकरी पर बन आई। गुस्से में सवाल हुआ रास्ता क्यों नहीं बदला? रास्ता बदलता तो सुरक्षा का मामला आता। यानि चाकू खरबूजे पर गिरता या खरबूजा चाकू पर, कटता तो मधुसूदन ही। 

         पुराना जमाना होता तो गुलाम लोगों से हाका लगवा कर, ढोल पिटवा कर शेर को राजा महाराजा के सामने प्रस्तुत कर देते। अब राजे महाराजे तो नाम बदलकर वही रहें मगर प्रजा में कई लोग बतंगडी हो गए। कहां कहां से बातें खोद कर ले आते हैं। वे बताते हैं कि पुराने महामहिम आसाम में हाथी देखने गए थे उनके अन्य खर्चों के अलावा लगभग 1.61 करोड़ रुपए दूसरे मद से उनके उपर खर्च कर डाले। अब इसमें बतंगड़ क्या बनाना? क्या राजाओं पर इतने खर्च की भी हमारी जिम्मेदारी नहीं।  

            हमने तो कहा था- न खाऊंगा, न खाने दूंगा। मजा करने के लिए थोड़ी मना किया था।

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