उर्मिलेश
एक समय था, जब डॉ. अम्बेडकर हों या यहां तक कि लोहिया हों, सभी लेखन, बहस और प्रकाशन के जरिये अपनी राजनीति और वैचारिकता के प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहते थे लेकिन उनके कथित समर्थकों के पास न ऐसी अंतर्दृष्टि है और न ऐसे किसी बड़े विमर्श को आगे बढ़ाने मे दिलचस्पी है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु इसके अपवाद हो सकते हैं। एक दौर था जब इवी रामासामी पेरियार की तमिल पत्रिका कुदियारसू (Kudi Arasu) किसी पार्टी का भोंपू बनने की जगह वैचारिक मंच जैसी थी। उल्लेखनीय है कि भगत सिंह की शहादत पर भारत में पहला संपादकीय लिखने का श्रेय इसी पत्रिका को जाता है।
इस क्रम में यह भी बता दूं कि प्रेमचंद की हंस पत्रिका ने अगस्त, 1933 के अपने अंक के आवरण पर तब के अपेक्षाकृत युवा विचारक और देश में वंचितों के प्रवक्ता के तौर पर उभरे डाक्टर अम्बेडकर की तस्वीर छापी थी। उससे कुछ ही महीने पहले गांधी जी और अम्बेडकर के बीच ऐतिहासिक पूना पैक्ट हुआ था। येरवेडा जेल में बंद गांधी जी की तरफ से मदन मोहन मालवीय ने इस पर हस्ताक्षर किये थे। इसके प्रकाशन की पहल से भी प्रेमचंद की आधुनिकता, प्रगतिशीलता और पत्रकारिता के सरोकारों का ठोस संकेत मिलता है।
मुझे नहीं मालूम, प्रेमचंद के अलावा उस दौर के किसी अन्य हिंदी लेखक ने कभी उन अम्बेडकर को समझने या उन पर लिखने की कोशिश की या नहीं, जिन्हें आज पूरी दुनिया में भारत के एक बड़े विचारक के तौर पर स्वीकार किया जाता है। दुनिया का शायद ही कोई महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय हो, जहां ड़. अम्बेडकर और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में उनके वैचारिक-बौद्धिक योगदान पर किसी न किसी तरह का काम न हुआ हो या न हो रहा हो!
समता और सामाजिक न्याय के दर्शन और परिप्रेक्ष्य को लेकर उच्चवर्णीय पृष्ठभूमि से आये ज्यादातर साहित्यकारों और लेखकों में वैचारिक स्पष्टता नहीं रही और आज भी नहीं है। वे वर्गांतरण की बात अक्सर करते हैं पर कुछेक अपवादों के छोड़कर ज्यादा लोग अपना मन-मिजाज नहीं बदल पाते। इस तरह उनकी सिर्फ बाहरी काया बदलती है। उनकी सारी प्रगतिशीलता अपने को ‘सेक्युलर’ साबित करने तक सीमित रहती है। मैं समझता हूं, इसके लिए सिर्फ वे ही दोषी नहीं हैं। वामपंथी, सोशलिस्ट पार्टियों से फूटी धाराएं और कांग्रेस भी दोषी है। इन्होंने समाज और साहित्य में संवैधानिक मसलों पर कभी बहस नहीं चलाई।
कांग्रेस भले ही वामपंथियों और सोशलिस्टों की तरह बदलाववादी होने का दावा न करती रही हो पर संविधान के प्रति तो वह अपनी वचनबद्धता हमेशा(इमरजेंसी के कुछ महीनों को छोड़कर) दोहराती रही है। भारत का संविधान अंततः कांग्रेस सोच से ही बना है। अनेक अम्बेडकरवादियों सहित देश-विदेश के ज्यादातर लोग समझते हैं कि भारत के संविधान के रचनाकार डा बी आर अम्बेडकर हैं। पूरा संविधान उनकी दृष्टि और वैचारिकी की रोशनी में लिखा गया है। पर यह सही नहीं है। अम्बेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष ज़रूर थे पर हमारा संविधान बुनियादी तौर पर कांग्रेस पार्टी की वैचारिकी की रोशनी में लिखा गया। क्योंकि संविधान सभा में कांग्रेस का बहुमत ही नहीं, प्रचंड बहुमत था।कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों के बहिष्कार के चलते भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की अन्य प्रमुख धाराओं का संविधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया।
कांग्रेस के अंदर की विभिन्न धाराओं के लोगों का दबदबा था। इसलिए डा अम्बेडकर हों या संविधान सभा में चुनकर आये कुछ अन्य विख्यात बुद्धिजीवी हों, वे संविधान के प्रारूप को बड़े पैमाने पर प्रभावित नहीं कर सकते थे। जवाहर लाल नेहरू और कुछ अन्य कांग्रेस नेताओं के सहयोग-समर्थन से अम्बेडकर ने संविधान के प्रिएम्बल को ज़रूर प्रभावित किया। वह प्रिएम्बल में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के साथ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय एवं प्रतिष्ठा और अवसर की समता और बंधुत्व जैसे महान् मानवीय मूल्यों को शामिल करने में कामयाब हुए। लेकिन राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांत में दर्ज बेहद महत्वपूर्ण संकल्पों और प्रस्थापनाओं को मूल अधिकारों में शामिल कराने में उन्हें या अन्य समतावादी-लोकतंत्रवादियों को सफलता नहीं मिली।
यह महज संयोग नहीं कि बाबा साहेब ने तो बाकायदा अपनी तरफ से भारत के संविधान का एक निजी प्रारूप भी अपने मित्रों और संविधान सभा के कुछ महत्वपूर्ण सदस्यों के बीच वितरित किया था। मजे की बात है कि डा अम्बेडकर के उस प्रारूप का शीर्षक था-संयुक्त राज्य भारत का संविधान! इस शीर्षक से भारत के फेडरल और लोकतांत्रिक स्वरुप का बोध ज्यादा होता है। अपने प्रस्तावित संविधान-प्रारूप में बाबा साहेब ने ऐसे अनेक अनुच्छेदों का प्रावधान किया, जो हमारे संविधान के मुकाबले लोकतंत्र, समता, बंधुता, सामाजिक न्याय और सेक्युलरिज्म को ज्यादा ठोस और दृढ़ रूप में पेश करते हैं।
उदाहरण के लिए अम्बेडकर के प्रस्तावित संविधान-प्रारूप के अनुच्छेद के सत्रहवें पैरे में कहा गया हैः राज्य किसी भी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं देगा। इसी तरह अनुच्छेद-2 के खंड 4 के पहले पैरे में कहा गया हैः वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग हैं अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया किया जाए, सभी राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाये जायेंगे। इसी खंड के पैरा 3 में बीमा क्षेत्र को पूरी तरह राज्य के अधीन रखने का प्रावधान है। चौथे पैरे में कृषि को राज्य-उद्योग का दर्जा देने का प्रावधान किया गया है। नौवें पैरे में भूमि-सुधार की मुकम्मल नीति और कार्ययोजना दर्ज की गई है। ऐसे अनेक प्रावधान हैं, जिन्हें भारतीय राजनीति में आमतौर पर वामपंथियों के एजेंडे के तौर पर जाना जाता है, वे सभी बाबा साहेब द्वारा निजी तौर पर प्रस्तावित संविधान के प्रारूप में शामिल हैं।
यह समझना कठिन नहीं कि ऐसे तमाम प्रावधानों वाले प्रारूप को बाबा साहेब चाहते हुए भी संविधान सभा में आधिकारिक तौर पर क्यों नहीं पेश कर सके? डा अम्बेडकर ने अपने इस इस प्रारूप को संविधान सभा में भले नहीं पेश किया लेकिन सभा के कुछ प्रबुद्ध और समतामूलक सोच के लोगों के बीच जरूर वितरित किया था। भारतीय संविधान सभा ऐसे प्रावधानों वाले संविधान को हरगिज पारित नहीं कर सकती थी। क्योंकि उसमें नेहरू जैसे तरक्कीपसंद कांग्रेसी ही नहीं थे, बहुत बडी संख्या उन कंजरवेटिव्स और सामंती मिजाज के कांग्रेसियों की भी थी, जो आजादी की लड़ाई में अपने-अपने वर्ग हितों के सोच के साथ ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति चाहते थे।
इनमें कई बहुत ताकतवर थे। नेहरू जैसे अपेक्षाकृत उदार विचार के नेताओं को ऐसे सामंती और ब्राह्मणवादी मानसिकता के कांग्रेसी दिग्गजों के साथ समझौता करना पड़ता था। ऐसे ही एक समझौते के तहत उन्हें अपने मित्र नरेंद्र देव के खिलाफ कांग्रेस की तरफ से उतरे एक विवादास्पद बाबा को प्रत्याशी के तौर पर स्वीकार करना पड़ा। आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गये। अयोध्या के मामले में भी ऐसे ही कुछ समझौते करने पड़े। गोविन्द बल्लभ पंत जैसे दक्षिणपंथी और सामाजिक रूप से संकीर्णतावादी मिजाज के नेता की अनेक गैर-वाजिब बातें उन्हें मंजूर करनी पड़ीं। उन दिनों राजनीति और समाज के अंदरूनी अंतर्विरोध इस कदर उलझे हुए थे कि इनका सबका समाधान किसी एक नेता या कांग्रेस जैसी पार्टी से बिल्कुल संभव नहीं था। इन्हीं अनसुलझे अंतर्विरोधों के साथ सन् 1947 में हमने आजादी हासिल की थी।
शायद यही सब देखकर राजनीति और साहित्य की एक धारा की तरफ से आवाजें भी उठीं कि यह आजादी झूठी है। पर आजादी झूठी नहीं थी। आजाद भारत में हमने राजसत्ता, राजनीति, अर्थनीति और सामाजिक संरचना को जो आकार देना शुरू किया, गड़बड़ी उसमें थी। चाहते हुए भी देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू हिन्दू कोड बिल पारित नहीं करा सके और उसे ठंडे बस्ते में डालने पर सहमति बनी। संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की पहल करने के संवैधानिक आश्वासन(अनुच्छेद-340) के बावजूद सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हित में सकारात्मक कार्रवाई के लिए समय रहते कोई आयोग नहीं बनाया जा सका।
बाद में काका कालेलकर की अगुवाई में जो आयोग बना, उसने एक निरर्थक रिपोर्ट देकर अपने लिए निर्धारित विषय पर इतना रायता फैलाया कि अनुच्छेद-340 के लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं हो सका। दरअसल, कांग्रेस और कैबिनेट के अंदर पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई जैसे विषय पर भारी विरोध था। काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में कांग्रेस के अंदर के विचारों की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। अक्तूबर, 1951 में अम्बेडकर ने इस्तीफे दिया था। संभवतः उने इस्तीफे का ही दबाव काम कर रहा था कि नेहरू सरकार ने काका कालेलकर आयोग का जनवरी, 1953 में गठन किया। पर इस आयोग के स्वरूप, खासतौर पर इसके सदस्यों के चयन में भारी गड़बड़ी हुई। बाबा साहेब ने सरकार का रवैया समझ लिया था।
उन्होंने देश के पहले कानून मंत्री पद से जिन तीन-चार प्रमुख कारणों से इस्तीफा दिया, उनमें दो पहलू-हिन्दू कोड बिल और पिछड़े वर्गों के लिए आयोग बनाना बहुत महत्वपूर्ण थे। अगर नेहरू कैबिनेट ने हिन्दू कोड बिल और सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के आरक्षण के सवाल पर समय रहते सकारात्मक फैसला कर लिया होता तो शायद सरकार में अपनी घोर उपेक्षा के बावजूद डा अम्बेडकर ने नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा नहीं दिया होता।
इसके पहले का एक घटनाक्रम भी बहुत उल्लेखनीय है। उससे पता चलता है कि आजाद भारत के पहले दशक की शुरुआत के साथ हमारे समाज में जितनी खुशी, मिठास और भाईचारा होना चाहिए था, वह बिल्कुल ही नहीं था। इसके उलट समाज और राजनीति के अनसुलझे अंतर्विरोधों ने देश के सामाजिक जीवन को बेहद कटु, जहरीला, अन्यायपूर्ण और नफरत से भर दिया था। राजनीति की मुख्यधारा में ब्राह्मणवादी मान-मूल्यों के वर्चस्व के कारण यह माहौल और विषाक्त हुआ था।
इसी माहौल में संघ-शिक्षित एक हिन्दू महासभाई नाथू राम गोडसे और उसके कुछ कट्टरपंथी साथियों ने मिलकर महात्मा गांधी की नृशंस हत्या कर दी। दुनिया भर में जिस महात्मा को भारत का सबसे ‘बड़ा और विचारवान हिन्दू’ कहा गया, उसे उग्र हिन्दुत्ववादियों ने यह कहते हुए मारा कि वह मुसलमानों और पाकिस्तान का पक्ष लेता रहा है!
शुरू से ही कांग्रेस एक गठबंधन जैसी राजनीतिक पार्टी थी। काफी कुछ बदलने के बावजूद वह आज भी एक लुंज-पुंज गठबंधन जैसी संस्था है, जिसमें कुलीन और उच्चवर्णीय हिन्दू नेता ही ज्यादा प्रभावी हैं। राहुल गांधी अब उस पार्टी का कायाकल्प करना चाहते हैं पर मन-मिजाज बदले बगैर सिर्फ काया बदलने से वह कितना बदलेगी? बहरहाल, मैं आजादी की लड़ाई और आजादी हासिल करने के तुरंत बाद के दौर की बात कर रहा था। उन दिनों कांग्रेस में तरह-तरह के विचारों के लोग शामिल थे। यह उसकी शक्ति भी थी और कमजोरी भी।
इसी शक्ति के बल पर उसने आजादी की लड़ाई को मंजिले मकसूद तक पहुंचाया लेकिन अपनी उन निहित कमजोरियों के चलते ही वह भारत को एक शक्तिशाली, समृद्ध, खुशहाल, समतामूलक और न्याय-आधारित व्यवस्था का देश नहीं बना सकी। उसने बेहद जरूरी रेडिकल सामाजिक-आर्थिक सुधारों को लागू करने और जाति-वर्ण के मसलों को संबोधित करने से लगातार परहेज किया। व्यवस्था पर काबिज वर्ग और उनके बौद्धिक प्रतिनिधि देश की आबादी के बड़े हिस्से को राजनीतिक और सामाजिक न्याय-आधारित व्यवस्था से लगातार वंचित करते रहे। डॉ. अम्बेडकर ने बार-बार देश और उसके शीर्ष नेताओं को चेताया कि ‘जाति-वर्ण को इस रूप में बनाये रखते हुए और समाज के बड़े हिस्सों को समय रहते शिक्षित, सुखी और रोजगार से लैस किये बगैर हम भारत को वास्तविक अर्थ में लोकतंत्र नहीं बना सकते।’
वर्ग, वर्ण और इनके कुछ शक्तिशाली समूहों के निहित स्वार्थों में आज की तरह तब की राजनीति भी लगातार उलझी रही। सरकार के अनेक फैसलों में इसकी अभिव्यक्ति होती रही। यह महज संयोग नहीं कि जनतंत्र के सूर्योदय में ही केंद्र की सरकार ने तीन राज्य सरकारों को ‘डिसमिस’ किया, जिनका जिक्र हमने इस आलेख में पहले किया है। इनमें दो राज्यों-जम्मू-कश्मीर और केरल की सरकारों को उनके प्रगतिशील सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों के चलते किया गया। 1953 में तत्कालीन पंजाब की पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन की सरकार भी डिसमिस की गई थी। वह 8 राज-घरानों द्वारा नियंत्रित सूबों की एक संयुक्त सरकार थी। इसलिए जम्मू कश्मीर और केरल की सरकारों के डिसमिसल से उसका संदर्भ थोड़ा अलग है।
इन तमाम घटनाक्रमों से आजादी के बाद के राजनीतिक परिदृश्य और उसे संचालित करने वाली शक्तियों के सोच का संकेत मिलता है। आज भारत और उसका लोकतंत्र जहां खड़ा है, उसमें अतीत की गलतियों की भूमिका से इंकार करना इतिहास के साथ नाइंसाफी होगी। पर कहने वाले ये भी कह सकते हैं कि अतीत की कुछ बेहतर नीतियों और कोशिशों के कारण ही आज भारत में औपचारिक तौर पर लोकतंत्र का ढांचा कायम है। भले ही उसकी तमाम संवैधानिक और शासकीय संस्थाओं को लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के संवैधानिक उसूलों से पूरी तरह काटकर कारपोरेट और हिन्दुत्ववादी निरंकुशता के ‘टूलकिट’ के तौर पर ढाला जा रहा है।
यह सब इसलिए हुआ कि हमारे देश और इसकी व्यवस्था के संचालकों ने बीते सात दशकों में समाज और शासन को वास्तविक अर्थों में लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों से लैस नहीं किया। भारत में लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म की जड़ें सामाजिक न्याय के रास्ते ही मजबूत की जा सकती थीं। निस्संदेह, नेहरू की कुछ शुरुआती कोशिशों के बाद इंदिरा गांधी के दौर के कुछ बड़े शासकीय कदम सकारात्मक रहे। पर इन कदमों और कार्यक्रमों में सुसंगतता और निरंतरता का अभाव लगातार बना रहा। दरअसल, उस समय रेडिकल भूमि सुधारों की जरूरत थी, सभी वर्गों के लिए समान-साझा शिक्षा और समान स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था होनी चाहिए थी, जाति और वर्ण की व्यवस्था को क्रमशः कमजोर करके अंततः निष्प्रभावी बनाना चाहिए था, देश के प्रमुख और बड़े उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन होने चाहिए थे और उन्हें संचालित करने वाले सुसंगत संवैधानिक सोच के लोग होने चाहिए थे। कृषि-क्षेत्र को राज्य उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए था, जैसा कि डा अम्बेडकर चाहते थे।
संविधान में साफ तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए था कि भारतीय संघ का कोई धर्म नहीं होगा और सरकारें धार्मिक मामलों में नहीं उतरेंगी। सरकार किसी धर्म के प्रति राग-द्वेष या किसी तरह की सम्बद्धता नहीं दिखायेगी। पर ठोस शब्दों में ऐसा नहीं दर्ज किया जा सका। इसलिए उसे अमल में लाना भी नामुमकिन था। निश्चय ही आज के हालात हम सबके लिए चिंताजनक हैं। ये गंभीर आत्मचिंतन, आत्मालोचना और आत्म-संशोधन की मांग करते हैं। पर हमारे समकालीन साहित्य में इन सवालों की अनुगूंज कितनी है? क्या लोग इन सवालों पर सोचने के लिए तैयार हैं?
(उर्मिलेश हिंदी के लेखक-पत्रकार हैं। इन दिनों वह UrmileshSamvad नाम से अपना Youtube Channel चलाते हैं। 26 अक्तूबर को चंडीगढ में आयोजित भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सेमिनार के उद्घाटन सत्र में उर्मिलेश ने इस आलेख को आधार बनाकर तनिक विस्तार से अपना अतिथि-भाषण पेश किया।)