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*मानव ही नहीं पशु-कुटुम्बी भी बनें*

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     राजेंद्र शुक्ला, मुंबई 

       प्राणी जगत में अकेला मनुष्य ही नहीं है, उसके दूसरे छोटे-बड़े भाई भी इसी दुनियाँ में रहने के लिए परमेश्वर ने सृजे हैं। मनुष्य अपनी ही सुविधा के लिए सृष्टि की सारी सुविधाओं को हथिया ले और दूसरों के हिस्से में कुछ न छोड़ें, यह अनुचित है।

       न्याय का तकाजा यह है कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ से अपने लिए आवश्यक सुविधाएंँ उपलब्ध करे और दूसरे प्राणियों को भी अपना साथी सहयोगी समझकर ऐसी व्यवस्था बनाये जिससे अपनी और अन्य प्राणियों की जीवनचर्या में अन्याय, अत्याचार की आवश्यकता न पड़े।

       हमारी ही तरह प्रशु-पक्षियों को भी ईश्वरप्रदत्त जीवन प्यारा है और उन्हें भी शान्तिपूर्वक जीवित रहने का अधिकार रहना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन को प्यार करे और उसे सुखी बनाने का प्रयत्न करे यह उचित है, पर इसके लिए इस सीमा का ऐसा अतिक्रमण नहीं होना चाहिए, जिससे दूसरों को पीड़ा-वेदना का अन्याय और अत्याचार का शिकार बनना पड़े।

       इस सन्दर्भ में उन पशुओं की समस्या अधिक विचारणीय है, जो मनुष्य के आधीन उसके सहयोगी-सहचर बनकर रह रहे हैं। इनकी सुविधाओं का वैसा ही ध्यान रखा जाना चाहिए, जैसा कि अपने घर-कुटुम्ब वालों का रखा जाता है।

     वे अपनी बात कह नहीं सकते, शिकायत कर नहीं सकते, इसलिए उन पर अत्याचार की छूट मिल गई, नहीं मान लिया जाना चाहिए। पालतू पशुओं के साथ न्यायोचित व्यवहार करने का हर मनुष्य को पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए।

        पालतू जानवर कितना श्रम कर सकते हैं, उन्हें कितना अवकाश विश्राम मिलना चाहिए, इसका ध्यान न रखा जाय और जितना श्रम वे नहीं कर सकते, जितना बोझ नहीं ढो सकते, उसके लिए विवश किया जाय, तो वह क्रुरता और दुष्टता ही कहलाएगी।

     कौन पशु कितना श्रम आसानी से कर सकता है, इसका अनुमान उसकी उदासी और थकान के प्रत्यक्ष चिन्ह देखकर आसानी से लगाया जा सकता है।

       अपना स्वास्थ्य गँवाये बिना और अड़चन अनुभव किये बिना जितना श्रम आसानी से जो कर सके, उसे उतना ही श्रम लिया जाना चाहिए, उसकी सुविधा, आहार-विहार का भी वैसा ही प्रबन्ध करना चाहिए जैसा एक जीवधारी को सुविधाजनक जीवन जीने के लिए अभीष्ट है। 

       लोग बैल, घोड़े, गधे, ऊँट आदि पर इतना बोझ लाद देते हैं, इतनी देर जोतते हैं, जिससे उसकी थकान, उदासी और पीड़ा स्पष्ट झलकती है। कई बार तो उनके कंँधे, पीठ आदि में घाव हो जाते हैं।

    थके पशु से अधिक काम लेने के लिए बुरी तरह पीटा जाता है, उसके क्रुरतापूर्ण चिन्ह भी मनुष्यता पर लगी कलंक-कालिमा की तरह अपनी कथा आप कहते हैं। इस प्रकार का उत्पीड़न बन्द किया जाना चाहिए।

      बेहतर युग निर्माण की विधि व्यवस्था में केवल मनुष्य को ही अन्याय से मुक्ति दिलाना शामिल नहीं होता है, पशुओं को भी अत्याचार से मुक्ति मिलने की बात उसमें सम्मिलित होती है।

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