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मधु दंडवते की  जन्म शताब्दी पर समाजवादियों को याद करने का सबसे अच्छा समय

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रामचंद्र गुहा

भारत की समाजवादी परंपरा आज बेशक मृत्युशैय्या पर दिख रही हो, लेकिन एक दौर ऐसा जरूर था, जब राजनीति और समाज पर इसका गहरा सकारात्मक असर दिखता था। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, क्षेत्रीय दल, आंबेडकरवादी और खासकर हालिया वर्षों में जनसंघ व भाजपा, सभी के पास अपने इतिहासकार और उपलब्धियों का बखान करने वालों की अपनी-अपनी फौजें भी हैं। लेकिन भारतीय समाजवादियों के साथ ऐसा नहीं है, जिनमें से ज्यादातर तो इतिहासकारों के निशाने पर भी रहे। यह समाजवादियों को याद करने का सबसे अच्छा समय इस वजह से है कि उनके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधियों में से एक की जन्म शताब्दी इस महीने पड़ रही है। नाम है मधु दंडवते। बॉम्बे में अपने छात्र जीवन के दौरान दंडवते कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के आदर्शों और जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया व यूसुफ मेहर अली जैसे इसके करिश्माई नेताओं से गहरे प्रेरित थे। समाजवादी और कम्युनिस्ट का अलगाव 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान प्रभावी ढंग से उभरा, जिसका समाजवादियों ने समर्थन, लेकिन कम्युनिस्टों ने विरोध किया था।

देश में कथित समाजवाद के वर्तमान धड़े बेशक समाजवादी आदर्शों का उपहास उड़ाते दिखते हैं, लेकिन आजादी के तीन दशक बाद तक समाजवादियों ने जिस बौद्धिक नवाचार और व्यक्तिगत साहस का परिचय दिया, आज राजनीति को उसकी जरूरत है।

विचारधारा के स्तर पर देखें, तो समाजवादी तीन बातों में कम्युनिस्टों से अलग थे। पहली, स्टालिन और रूस के प्रति कम्युनिस्टों की श्रद्धा, जबकि समाजवादी सही ही, स्टालिन को निरंकुश व रूस को तानाशाही व्यवस्था मानते थे। दूसरी बात, राजनीतिक विवादों के समाधान के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा को स्वीकारा, जबकि समाजवादियों ने अहिंसा को तवज्जो दी। तीसरी बात, कम्युनिस्ट आर्थिक व राजनीतिक शक्ति के केंद्रीकरण की बात करते थे, जबकि समाजवादी दोनों के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे। खुद को कम्युनिस्टों से अलग दिखाने में समाजवादी गांधी से प्रेरित थे। मधु दंडवते अपनी पुस्तक ‘मार्क्स एंड गांधी’ में लिखते हैं, ‘हिंसक तौर-तरीकों को लेकर गांधी का विरोध दरअसल मनुष्य जीवन के प्रति उनके सम्मान पर आधारित था।’

देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई। बाद के वर्षों में इसमें कई विभाजन और पुनर्मिलन हुए। लेकिन, चाहे विभाजित या एकीकृत, चाहे सत्ता में हों या बाहर, केंद्र में हों या राज्यों में, समाजवादियों ने 1950, 60 और 70 के दशक में हुईं राजनीतिक बहसों को समृद्ध जरूर किया। पार्टी के बुनियादी विचारों में लैंगिक समानता को लेकर उसकी सशक्त प्रतिबद्धता शामिल थे। कांग्रेस, जनसंघ और यहां तक कि कम्युनिस्टों की तुलना में भी समाजवादियों के बीच से कहीं ज्यादा उल्लेखनीय महिला नेताओं का विकास हुआ। इनमें कमलादेवी चट्टोपाध्याय, मृणाल गोरे और खुद मधु दंडवते की पत्नी प्रमिला प्रमुख थीं।

अपने साथी समाजवादियों के बीच दंडवते इसलिए भी सबसे आगे दिखते हैं कि उन्होंने लाखों भारतीयों की जिंदगी को बेहतर बनाने में मदद करके एक स्थायी व्यवहारिक विरासत छोड़ी है। ऐसा उन्होंने पहली जनता सरकार में केंद्रीय रेल मंत्री के तौर पर किया। उन्होंने दो साल के अपने संक्षिप्त कार्यकाल में शानदार असर छोड़ा। उन्होंने सरकार और रेलवे यूनियन के बीच के उस भरोसे को दोबारा बहाल किया, जो 1974 की रेलवे हड़ताल और इंदिरा गांधी की सरकार की दमन नीति से खत्म हो गया था, उनके कार्यकाल में कंप्यूटरीकृत प्रणाली की शुरुआत हुई, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्होंने पैसेंजर ट्रेन की दूसरी श्रेणी की कठोर सीटों पर फोम का मुलायम आवरण चढ़वाकर मुसाफिरों को राहत दी। सुरक्षित और ज्यादा आरामदायक सीटों वाली ऐसी पहली ट्रेन 26  दिसंबर, 1977 को बंबई से कलकत्ते के बीच चली।

रेलवे बोर्ड इसका नाम ईस्टर्न एक्सप्रेस रखना चाहता था। लेकिन रेल मंत्री ने इसका नाम गीतांजलि एक्सप्रेस रखा, और ट्रेन के अंदर रवींद्रनाथ टैगोर का पोट्रेट था। वास्तविक रूप में ऐसे कैबिनेट मंत्री बहुत कम हुए हैं, जिन्होंने भारत और भारतीयों की बेहतरी में रूपांतरकारी प्रभाव डाला। गृह मंत्री के रूप में वल्लभभाई पटेल के 1947 से 1950 तक, कृषि मंत्री के रूप में सी सुब्रमण्यम के 1964 से 1967 तक और वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के 1991 से 1996 तक के कार्यकाल को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है। बाद की जनता सरकार में वित्त मंत्री के रूप में 1990  में दंडवते ने अपने बजट भाषण में पर्यावरणीय चुनौती पर ध्यान दिया था। उन्होंने कहा था, ‘पर्यावरणीय चुनौतियों की अब अनदेखी नहीं की जा सकती। स्वस्थ पर्यावरण गुणवत्तापूर्ण जीवन का हिस्सा है और बेहतर पर्यावरण विकास का आधार हो सकता है।’

दुर्भाग्य से बाद की सरकारों ने इन चेतावनियों की अनदेखी की। पूंजीवाद पर निरंकुश जोर और बृहद परियोजनाओं के प्रति उनके आकर्षण ने पर्यावरण का विनाश ही किया है। एक जुलाई, 2005 को,  जब वह अस्सी वर्ष के थे, अपने संस्मरण की भूमिका में उन्होंने लिखा, ‘1984 के सिख-विरोधी दंगे,  बाबरी मस्जिद का विध्वंस और आगजनी, हाल के सांप्रदायिक दंगों के दौरान गुजरात में हत्या और लूट जैसी घटनाओं ने धर्मनिरपेक्षता को भारी आघात पहुंचाया है। धार्मिक सहिष्णुता की जिस भावना को आजादी के आंदोलन के दौरान प्रोत्साहित किया था, आज वह ध्वस्त है। लेकिन इसी की राख से एक दिन सद्भावपूर्ण भारत का महल खड़ा होगा। जुनून अस्थायी होता है, जबकि संवेदना स्थायी।’

आज जब हमारी राजनीति में हिंदुत्व वर्चस्ववादी भूमिका में है, तब संवेदना और भ्रातृत्व के पक्ष में खड़े होने वालों के लिए दंडवते की उम्मीद पूरी करने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ेगा। मैंने अपना कॉलम यह रेखांकित करते हुए शुरू किया था कि विद्वानों ने कांग्रेस, कम्युनिस्ट और हिंदुत्ववादियों की तुलना में समाजवादियों को कम महत्व दिया। ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि उनका हालिया इतिहास अच्छा नहीं। इनमें से स्वघोषित समाजवादियों के एक धड़े ने हिंदुत्व को वैधता प्रदान की, तो दूसरे धड़े ने वंशवादी राजनीतिक पार्टियां बनाईं, जिनमें सत्ता पिता से पुत्र के पास जाती है। इसके बावजूद आजादी के एक दशक पहले से आजादी के तीन दशक बाद तक समाजवादियों ने बौद्धिक नवाचार और व्यक्तिगत साहस का परिचय दिया।

भारतीय समाजवाद के सम्यक इतिहास के लिए हमें इंतजार करना पड़ेगा। हालांकि जीवनीमूलक अध्ययन के मोर्चे पर देखें तो, वर्ष 2022 में राहुल रामागुंडम ने जॉर्ज फर्नांडीज के घटनाबहुल जीवन पर शोध कर शानदार किताब लिखी। मैं कमलादेवी चट्टोपाध्याय पर निको स्लेट द्वारा लिखी जीवनी की पांडुलिपि पढ़ रहा हूं। अक्षय मुकुल जयप्रकाश नारायण की जीवनी पर काम कर रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि कुछ प्रतिभाशाली विद्वान इनसे प्रेरित होकर मधु दंडवते या उनके साथ प्रमिला दंडवते की जीवनी पर भी काम करेंगे।

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