बृंदा करात
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरएसएस प्रकाशन के ‘ऑर्गनाइज़र’ और ‘पाञ्चजन्य’ (15 जनवरी) के संपादकों को दिए एक साक्षात्कार में कई सवालों का जवाब दिया है। भागवत की टिप्पणियों को हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए हेगड़ेवार और गोलवलकर जैसे आरएसएस संस्थापकों के लेखन के वर्ष 2023 में नवीकरण (अद्यतन) के रूप में लिया जाना चाहिए। वह कहते हैं, “हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है। यह समृद्ध और शक्तिशाली हिंदू समाज – हिंदू राष्ट्र -8 भारत – अपने गौरव के शिखर पर पहुंचेगा और विश्व को नेतृत्व प्रदान करेगा।” जब भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश था, तब आरएसएस ने अपनी परियोजना की शुरुआत की थी। आज स्वतंत्र भारत का अपना संविधान है। आरएसएस प्रमुख के अपमानजनक बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि आरएसएस ने कभी भी संविधान को स्वीकार नहीं किया है। वह यह भी कहते हैं कि आज आरएसएस के पास “प्रचुर संसाधन और साधन” हैं। यह पूछना वैध है कि ये संसाधन क्या हैं, वे कितने प्रचुर हैं और पैसा कहां से आ रहा है?
*गोलवलकर के ‘आंतरिक शत्रु’ का विस्तार*
साक्षात्कार “हिंदू समाज” की चर्चा पर आधारित है, लेकिन आरएसएस प्रमुख द्वारा प्रतिपादित हिंदू समाज की अवधारणा का भारत के संविधान में कोई स्थान नहीं है। आरएसएस प्रमुख के अनुसार “हिंदू समाज 1000 से अधिक वर्षों से युद्ध में रहा है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि ये युद्धरत लोग आक्रामक हो …।” इस प्रकार, भागवत एक ही झटके में हिन्दू बनाम अन्य के रूप में हिंदुओं की एकरूपता के एक द्विआधारी इतिहास का निर्माण करते हैं, जहां सामंती राजाओं के बीच अपने स्थानीय सहयोगियों द्वारा सहायता प्राप्त आक्रमणकारियों और विजेताओं के युद्ध, मुस्लिमों और हिंदू समाज के बीच एक धार्मिक लड़ाई में परिवर्तित हो जाते हैं। वे कथित ऐतिहासिक अन्याय के नाम पर आज के समय में “हिंदुओं” के “आक्रमण” को जायज बताते हैं। उनके शब्दों में “यह बाहर का शत्रु नहीं, भीतर का शत्रु है। इसलिए हिंदू समाज, हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए एक युद्ध चल रहा है”, और आगे “आज भारत में रहने वाले मुस्लिमों को कोई खतरा नहीं है। अगर वे अपने विश्वास पर टिके रहना चाहते हैं, तो वे टिके रह सकते हैं। यदि वे अपने पूर्वजों की आस्था पर विश्वास करना चाहते हैं, तो वे वापस लौट सकते हैं — अब इस्लाम से डरने की कोई बात नहीं है… लेकिन मुस्लिमों को अपनी सर्वोच्चता की उद्दाम बयानबाजी को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इसे ऐसे दावों के रूप में वर्णित किया जाता है कि मुसलमान एक “उन्नत नस्ल” हैं जो “भारत पर फिर से शासन करना चाहते है”, आदि-इत्यादि।” आगे और भी — वास्तव में वे सभी लोग, जो यहाँ रहते हैं – चाहे वे हिंदू हों या कम्युनिस्ट – उन्हें इस आख्यान को त्याग देना चाहिए, इस तर्क को छोड़ देना चाहिए।”
यह आरएसएस का तर्क है — वे आरएसएस के फर्जी नैरेटिव के खिलाफ लड़ाई में कम्युनिस्टों सहित उन सभी को डरा-धमका रहे हैं, जो समझौताहीन तरीके से लड़ रहे हैं। गोलवलकर ने कहा था, “भारत में मुस्लिम पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन ही रह सकते हैं।” भागवत ने इस बयान को कानून की नजरों से बचने के लिए संशोधित किया है, लेकिन इसका उद्देश्य भी वही है कि मुस्लिम समुदाय को आरएसएस की जांच-पड़ताल के अधीन किया जाएं और उन पर संघ परिवार द्वारा किये जा रहे आपराधिक हमलों को माफ किया जाएं। यह स्थापित करने के लिए कि एक आंतरिक शत्रु के खिलाफ युद्ध है, भागवत ने गोलवलकर की मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ईसाइयों के रूप में दुश्मन की परिभाषा का विस्तार किया है, ताकि उन हिंदुओं को भी शामिल किया जा सके, जो आरएसएस के आख्यान के अनुरूप आचरण नहीं करते हैं। यह साम्प्रदायिकता और तानाशाही का एक ज़हरीला कॉकटेल है। “वे सभी जो यहां रहते हैं” यानि कि जो भारतीय नागरिक हैं, उन्हें शांति से रहने के लिए भारत के संविधान के अनुसार नहीं, बल्कि आरएसएस के दृष्टिकोण के अनुरूप होना होगा। यह बहुत ही खतरनाक है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि सीपीआई (एम) यह मानती है कि आरएसएस के तीव्र उकसावे की कार्यवाहियों ने इस्लामिक समुदाय के एक समूह को मुस्लिम समुदाय के तबको के बीच अपने कट्टरपंथी विचारों और प्रथाओं को फैलाने में सक्षम बनाया है, जो बदले में आरएसएस के ध्रुवीकरण और विभाजनकारी रणनीतियों को और मजबूत करती है। यह साक्षात्कार माकपा द्वारा बार-बार कही गई इस बात की पुष्टि करता है कि एक सांप्रदायिकता दूसरी सांप्रदायिकता को मजबूत करती है।
*आरएसएस के लिए कोई जाति-अत्याचार नहीं*
भागवत इस “हिंदू समाज” के स्वयंभू प्रतिनिधि के रूप में बोलते हैं, जो “समाज” की ओर से अपमानजनक दावे कर रहे हैं। हिंदुत्व के आचरण का दावा करना एक बात है, क्योंकि यह एक राजनैतिक अवधारणा है, जिसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन उन सभी लोगों के प्रतिनिधित्व करने का दावा करना, जो इस देश में हिंदू हैं, दूसरी बात है, जबकि इस देश में अधिकांश लोग – धर्म से हिंदू होते हुए भी आरएसएस के सदस्य/समर्थक नहीं हैं। ऐसा लगता है कि आरएसएस प्रमुख के लिए दलितों के खिलाफ अत्याचार में उल्लेखनीय वृद्धि कोई मुद्दा नहीं है। साक्षात्कार में जाति का एकमात्र उल्लेख इस प्रकार है कि “श्री राम ने सभी जातियों और संप्रदायों को एक साथ जोड़ा।” इस प्रकार श्री राम हिंदुत्व की पहचान बनाने के लिए “जय श्री राम” के नारों में परिलक्षित एक राजनीतिक साधन बन जाते हैं, जबकि उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा भेदभाव, हिंसा, यौन उत्पीड़न का सामना करने वाले दलितों की वास्तविकता का वे कोई उल्लेख नहीं करते।
*ये “गरीबी” है या “समृद्धि”?*
भागवत “समृद्ध और शक्तिशाली हिंदू समाज” की बात करते हैं। सबसे बड़ी कुपोषित और भूख से प्रभावित आबादी वाले देशों में भारत है और जहां अधिकांश की धार्मिक संबद्धता हिंदू होगी, वहां वैश्विक भूख सूचकांक पर भारत की शर्मनाक रैंकिंग के साथ, “समृद्धि” की बात करना एक बीमार मजाक की तरह है। यह उल्लेखनीय है कि आरएसएस प्रमुख के पास आम लोगों की दुर्दशा, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के बारे में कहने के लिए एक शब्द भी नहीं है, जो भारत को तबाह कर रहे हैं। आरएसएस के लिए, मजदूर या किसान जैसी कोई श्रेणी नहीं हैं — सभी तथाकथित हिंदू समाज में शामिल हैं। इसलिए जब अडानी एक दिन में औसतन 1216 करोड़ रुपये कमाता है और एक ग्रामीण महिला मजदूर एक दिन में बमुश्किल 250 रुपये कमाती है, तो आरएसएस उन्हें जिस एक ही श्रेणी में रखता है — वह है हिंदू समाज। एक चमकदार वास्तविकता के संदर्भ में चूक कभी-कभी एक बचाव का काम भी करती है। उस अर्थ में आरएसएस प्रमुख अमीर और गरीब की वास्तविकता को पहचानने से इंकार करके भारी असमानताओं का बचाव करते हैं और उसे व्यापक हिंदुत्व की पहचान में शामिल करते हैं, जिसे आरएसएस बनाना चाहता है। जबकि अधिकांश भारतीय मूल्य वृद्धि से प्रभावित हैं और आधिकारिक आंकड़े भी बहुत कम खपत व्यय को दिखाते हैं, यह अधिकांश लोगों की कम क्रय शक्ति को दर्शाता है। इसके बावजूद आरएसएस प्रमुख का मानना है कि मुद्रास्फीति “उपभोक्तावाद” के कारण है। इसका मतलब है कि लोग अधिक खरीद रहे है और इस प्रकार कीमतों को बढ़ा रहे हैं! जबकि भारत मंदी के कगार पर है, यहां तक कि पूंजीवादी समर्थक अर्थशास्त्री भी मांग बढ़ाने के लिए नीतियों पर जोर दे रहे हैं, लेकिन यहां आरएसएस प्रमुख महंगाई के लिए लोगों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं! वास्तव में यह साक्षात्कार हिंदुत्व का बचाव करने वाले कॉरपोरेट वर्ग के हितों के साथ “हिंदू समाज” का कथित प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले आरएसएस के संबंधों को उजागर करता है।
*एक संविधानेत्तर प्राधिकरण*
इस साक्षात्कार का एक और खुलासा करने वाला पहलू तब उजागर होता है, जब वे आरएसएस और उसके स्वयंसेवकों के साथ राजनीति और सरकार के बीच के संबंधों की बात करते है। वे इस मिथक को दोहराते हैं कि आरएसएस एक “सांस्कृतिक” संगठन है, जो दिन-प्रतिदिन की राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखता है। लेकिन वे यह स्वीकार करते हैं कि वर्तमान स्थिति में आरएसएस, न चाहते हुए भी, सरकारी मुद्दों में हस्तक्षेप करने के लिए “मजबूर” है। वे कहते हैं, “पहले अंतर यह था कि हमारे स्वयंसेवक सत्ता के पदों पर नहीं थे। … लेकिन अब स्वयंसेवक राजनीति में जो कुछ भी करते हैं, उसके लिए हमें जवाबदेह ठहराया जाता है। … निश्चित रूप से हमारी कुछ जवाबदेही बनती है, क्योंकि अंततः यह संघ है, जहां स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया जाता है। इसलिए हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए, किन चीजों को हमें पूरी लगन से आगे बढ़ाना चाहिए।” “अंतर” यह है कि इस देश के प्रधान मंत्री स्वयं एक पूर्व प्रचारक हैं, केंद्रीय मंत्रिमंडल में लगभग 71 प्रतिशत मंत्री आरएसएस से जुड़े हुए हैं। इसी तरह की आरएसएस से संबद्धता वहाँ भी हैं, जहाँ वे भाजपा द्वारा संचालित राज्य सरकारों में मंत्री हैं। आरएसएस ने घोषणा की है कि सरकार में अपने स्वयंसेवकों पर उसकी निगरानी है। “कुछ जवाबदेही” का और क्या मतलब है?
आगे यह भी कि, “राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में एकमात्र बिंदु यह है कि अगर लोग कुछ उम्मीद कर रहे हैं, अगर उन्हें कोई कठिनाई आ रही है, जो हमें बताई गई है, तो अगर वे स्वयंसेवक हैं, तो इसे संबंधित लोगों के ध्यान में लाया जा सकता है … बस इतना ही हम करते हैं।”
“बस इतना ही हम करते हैं” के निहितार्थों को देखें : “कुछ जवाबदेही”, जो कैबिनेट के दो-तिहाई से अधिक संघ-प्रशिक्षित लोगों के निरीक्षण के जरिये पूरी की जाती हैं; नीतियों में हस्तक्षेप के लिए “उचित परिश्रम के साथ कुछ चीजें” की जाती है और आरएसएस द्वारा स्वयंसेवक मंत्रियों को सिफारिशों के जरिये संबंधित लोगों के ध्यान में लाया जाता है। एक संविधानेत्तर प्राधिकरण का ठीक यही अर्थ है। भाजपा द्वारा चलाई जा रही सरकारों पर आरएसएस की शक्ति कोई रहस्य नहीं है — यह बात अब खुद आरएसएस प्रमुख ने कही है। इस संविधानेत्तर शक्ति और आरएसएस की सांप्रदायिक विभाजनकारी विचारधारा का एक पहलू यह भी है कि अपनी नीति को कैसे जारी रखा जाए, लेकिन इसकी धारणा को बदल दिया जाए। भागवत कहते हैं, “हमने अपने मीडिया इंटरैक्शन में वृद्धि की है, कुछ आउटरीच पहल शुरू की हैं, … यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे वांछित परिणाम समय पर दें, हमें सही रणनीति के साथ सही समय पर कार्य करना होगा। ….” इसका अर्थ है कि आने वाले दिनों में हम ऐसी कहानियों की उम्मीद कर सकते हैं, जो आरएसएस की चापलूसी करें और उसके नफरत भरे अतीत को ढंकने का काम करें।
*समलैंगिक संबंधों और महिलाओं पर*
कुछ लोगों ने “एलजीबीटी/ट्रांसजेंडर समुदायों” पर आरएसएस के विचारों में अनुमानित बदलाव पर सहमति व्यक्त की है। भागवत कहते हैं, “ये कोई नए मुद्दे नहीं हैं। वे हमेशा से रहे हैं। इन लोगों को भी जीने का अधिकार है।” यहां तक कि अगर कोई संरक्षक स्वर की उपेक्षा करता है, तो जो कुछ भी होता है, वह घोर अवमानना दिखाता है। वे कहते हैं, “चूंकि मैं जानवरों का डॉक्टर हूं, इसलिए मुझे पता है कि ऐसे लक्षण जानवरों में भी पाए जाते हैं। यह जैविक जीवन का एक तरीका है। …. हमें इस दृष्टिकोण को बढ़ावा देना होगा, क्योंकि इसे हल करने के अन्य सभी तरीके व्यर्थ हैं।” यौन पसंद की तुलना “जीव विज्ञान” और जानवरों से करना अपमानजनक है। भागवत का दृष्टिकोण सर्वोच्च न्यायालय के उस दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत है, जिसने अपने ऐतिहासिक फैसले में “यौन अभिविन्यास को संविधान द्वारा गारंटीकृत एक मौलिक अधिकार” कहा है।
महिलाओं के बारे में उनकी विशिष्ट टिप्पणियों से भी यह परिलक्षित होता है कि वे अधिकार आधारित लोकतांत्रिक ढांचे को मान्यता देने से इंकार कर रहे हैं। आरएसएस के अनुसार महिलाओं को परिवार के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। वह कहते हैं, “महिला मुक्ति और महिला सशक्तिकरण आदि मुद्दों को लंबे समय से उठाया गया है .. लेकिन अब पश्चिम की महिलाएं लिंग-परस्पर निर्भरता और पारिवारिक जीवन की आवश्यकता पर लौट रही हैं।” आरएसएस के अनुसार, समान अधिकारों के साथ एक स्वतंत्र सोच वाली सशक्त महिला का पारिवारिक जीवन के साथ संघर्ष होना तय है, क्योंकि उनके अनुसार, महिला को अपने परिवार के भीतर मनुवादी दृष्टिकोण से निर्देशित हिंसा का सामना करने की परवाह किए बिना “समायोजित” होना चाहिए। आरएसएस का महिला संस्करण राष्ट्रीय सेविका समिति इसी का प्रचार कर रही है। लेकिन यह एक विफल परियोजना है, जैसा कि आरएसएस प्रमुख खुद स्वीकार करते हैं, “आज तक समिति के पास इतनी ताकत नहीं है।” नई बात यह है कि वह कहते हैं कि शाखाओं में सीखने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, इसलिए उन्हें समिति में नहीं भेजा जाना चाहिए। आरएसएस को यह योजना बनानी चाहिए कि उन्हें सीधे कैसे शामिल किया जाए। प्रज्ञा ठाकुर जैसी हिंदुत्व ब्रिगेड की महिला सदस्यों द्वारा अभद्र भाषा और अत्यधिक भड़काऊ बयान, महिलाओं को सीधे भर्ती करने के लिए आरएसएस के लिए रोल मॉडल हो सकते हैं। दहेज हत्या, बाल बलात्कार सहित बढ़ती हिंसा, जो महिलाओं को प्रभावित करती है, पर आरएसएस प्रमुख चुप हैं — आरएसएस में महिलाओं का संभावित परिचय महिलाओं के अधिकारों के लिए नहीं है, बल्कि महिला आरएसएस कैडर द्वारा सीधे तौर पर नफरत की विचारधारा के प्रसार के लिए है।
आरएसएस प्रमुख का साक्षात्कार उन सभी के लिए एक चेतावनी है, जो स्वतंत्रता संग्राम के बुनियादी मूल्यों — एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण भारत — के लिए प्रतिबद्ध हैं। पूंजीवाद की विफलता ने संविधान के कई वादों को निरर्थक कर दिया है और बदले में अत्यधिक प्रतिक्रिया की ताकतों को जन्म दिया है। जैसा कि इस साक्षात्कार से पता चलता है, मोदी सरकार के सौजन्य से इन ताकतों के पास अब कई क्षेत्रों तक पहुंच है और राज्य सत्ता के लीवर पर उनका नियंत्रण है। इसका उत्तर वैकल्पिक नीतियों, लोकप्रिय लामबंदी और पूंजीवादी लूट के खिलाफ लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और प्रतिरोध का निर्माण करने और हिंदुत्व के नवीकृत (अद्यतन) एजेंडे को हराने के लिए कार्रवाई में निहित है। .
*(लेखिका प्रसिद्ध महिला नेत्री और माकपा पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं।)*