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जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म

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 ~मीना राजपूत (कोटा)

 पुनर्जन्म होता कैसे है? मान लो हम मर गये और मोक्ष के बजाए पुनर्जन्म की ही पात्रता है, हमारी; तो मरने के बाद हमारा प्राण, सूक्ष्मशरीर के साथ नये शरीर को प्राप्त करेगा। पर कैसे? मरने के तुरंत बाद कोई नया शरीर इंतजार कर रहा है या जीव नये शरीर का सृजन स्वयं करेगा?

ऎसे सवालों को लेकर चेतना विकास मिशन के सूत्रधार डॉ. मानवश्री से हुए संवाद आधारित पोस्ट :

जीव.की उत्तपत्ति केवल चार प्रकार से होती है, अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज।

तो जीवांश यदि उद्भिज प्रक्रिया का पात्र है तो वह मिट्टी या काष्ठ मे प्रवेश करके घाँसफूस बन जाएगा, जिसको कोई अन्य जीव खा लेगा और उसके स्वपाक से वह फिर मिट्टी मे आ गया, अब वह अन्न बन गया, उस अन्न को किसी नपुंसक ने खा लिया, तो उससे वीर्य्य या रज नही बनेगा।

इसलिए वह जीव फिर मिट्टी मे आ गया। अबकी बार कौवे ने उसे खा लिया और कञ्चनजंगा या अचानकमार के जङ्गल मे विष्ठा त्याग दिया और वह जीव वटवृक्ष बन गया और कयी लाख वर्ष तक बटवृक्ष बना रहा और यदि कौवा नही खाया तो यह जमीन से अन्नरूप हो गया।

इस अन्न को मनुष्य ने खाया तो वह वीर्य्य कणों के माध्यम से पुरुष बना या इसी प्रक्रिया से कूकर, शूकर, जोंक, चीटी, गधा, घोड़ा कुछ भी बन सकता है.

इसलिए कहते हैं :

यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्मिँल्लोके जुहोती यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्त्राण्यवदेवास्य तद् भवति यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात् प्रैति स कृपणोsथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स ब्राहमणः।।

     ~बृहदारण्य उपनिषद (०/३/८/१०)

         याज्ञवल्क्य कहते हैं :

     कि हे गार्गी! इस लोक मे(अन्य लोक मे नही) इस जीवात्मा को बिना जाने जो मनुष्य हवन, यज्ञ, और सहस्त्रोवर्षपर्यन्त तप करता है, वह मूढ है,। क्योंकि उसके यह सभी कर्म अंतवान्.होने से निष्फल हैं, और बिना इस अक्षर पुरुष को जाने ही मर जाता है, जैसे हम मरने जा  रहे है तो हमारा वही हाल होगा।

       किसी जंगल मे कोई पेड़ बनकर पड़े रहेंगे। केवल पुरुष को जाननेवाला ही ब्रह्म को प्राप्त होता है, अर्थात् उसका पुनरावर्तन नही होता।

      _तो हमने न कोई दान किया, न हवन किया, न तप किया और न ही स्वयं को जाना. रह गये मंदिर-मस्जिद मे घंटा हिलाते, गङ्गा नहाते तो हम तो सबसे बड़े रौरव नरक के अधिकारी हुए की नही?_

ऋगवेद (३/१/२१) का कहना है :

  जन्मन्जन्मन् निहितो जातsवेदा विश्वामित्रेभिरिध्यते अजस्त्रः।

तस्य वयं सुमतौ याज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम।

यहाँ विश्वामित्र शब्द मानस के विश्वामित्र की पुष्टि नही है, प्रत्युत, यह अजस्त्रं शब्द निरन्तरता का वाचक है। इसलिए जो विश्व (Universe) का मित्र, निरंतर विद्यमान था, है,और रहेगा, वही ,,विश्व,,का मित्र हो सकता है।

इसलिए एक सत्ता निरंतर विद्यमान है, वही विश्वामित्र है और जिस प्रकार यह  अनंत है उसी प्रकार उसके नाम भी अनंत हैं। राम ही अनंत है या कृष्ण ही अनन्त है, या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रमेश, सुरेश, गणेश आदि कुछ भी नाम हो सकता है।

जो जन्मन्जन्मन् निहितो जातवेदा ऐसा कहा है. इसका अभिप्राय इतना ही है कि जन्म-जन्मान्तर के संचित कर्मों के अनुसार संस्थापन किया और जातवेदा यानी उत्पन्न हुए पदार्थों मे न उत्पन्न हुए के समान वर्त्तमान समस्त संसार मे एक अस्तिमान् सत्ता शाश्वत है, ऐसा अनुमान बनता है।

अब एक सवाल हमेशा अनुत्तरित रहता है और रहेगा कि जो यह कहता है कि हम परमात्मा को जानते हैं और वह ऐसा है या कैसा है, तो निश्चित रूप से वह १००% मूर्ख व्यक्ति है।

ऐसा कहना इसलिए आवश्यक हुआ कि केनोपनिषद (/1/3) मे स्पष्ट कहा गया है :

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति न मनो न विद्यो.

अर्थात् नेत्र, वाणी,मन, बुद्धि यानी विज्ञान वा किसी प्रकार के टेलीस्कोप की पहुँच ही नही है तो तुम कैसे जान लिए जी, जबकि पुनर्जन्म के अनेको प्रमाण हैं।

इसलिए जो विदित से अन्य और अज्ञात से भी परे है और पर उसको कहते हैं जो अधि यानी अत्यन्त दूर हो। इसलिए यदि कोई ऐसी आख्या देता है कि हम परमात्मा को जानते हैं तो सर्वप्रथम उसकी सङ्गति का त्याग करके किसी श्रीमान् गेहे जाकर ब्रह्मविद्या का अभ्यास करना चाहिए।

साथ ही इस ऋचा मे प्रयुक्त वाक्य तस्य वयं सुमतौ को हमेशा ध्यान मे रखना चाहिए कि उसको हम सब मिलकर यानी सद्बुद्धिपूर्वक, बिना अभिमान किए श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः के सूत्र (बृहदारण्य उपनिषद (२/४/५) का पालन करते हुए श्रेष्ठता के अभिमान का त्याग करके,जानने का प्रयास करना चाहिए।

गीता (2/13) का कथन है : देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं, यौवनं, जरा।

हम जन्म लेते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े होते है, पश्चात् मर जाते हैं, यह देह की स्थिति है। एक शरीर से दुसरे शरीर मे जाना-आना यह आत्मा का गुण नही है, सुक्ष्म-शरीर अर्थात् जीव का है। जीव, प्रकृति के गुणों से प्रभावित होता है। प्रायः इसी स्वभाववश अंतकाल मे जैसा संकल्प होता है, उसी प्रकार का सूक्ष्मशरीर बनता है, कारण और सूक्ष्मशरीर सहित यह जीव इस शरीर को छोड़कर दुसरे शरीर मे प्रवेश करता है।

यही जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म कहाता है। जैसे हम तोता हैं, तोता राम-राम चिल्लाता है, कौवा काँव-काँव करता है, दोनो मर जाते हैं, लेकिन गति एक सी नही होती। तोता जबरदस्ती सिखाएनुसार राम-राम बोलता है, छूटकर जङ्गल भाग जाए तो स्वभाव बदल जाएगा, कौवा चाहे भारत का हो चाहे रशिया का, दोनों जगह काँव-काँव बोलता है।

यह दोनों मरेंगे, लेकिन जीव को सद्गुण मनुष्य योनी मे आते है। हर देश की परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं, भारतीय दर्शन अंतःस्थल को छूकर बाह्याभ्यान्तर अध्ययन करता है।

 विदेशों मे यह सब न के बराबर होता है. सब Eat,Drink, Be Marry का जीवन जीते हैं.

भारतीय मंदिर-मस्जिद मे जीते हैं, इसलिए स्वभाव भी उसी प्रकार का बनता है। मोक्ष, बन्धन, पाप-पुण्य हमारे यहाँ ज्यादा है, इसलिए हमारा स्वभाव उनसे भिन्न होते हुए भी मूलकर्मस्वभाव एक होता है, इसलिए मरते समय सभी एक ही भाव के होते हैं।

 विदेशों मे भी वैज्ञानिक अपनी लैब मे 24 घंटे काम करता है, भारत का वैज्ञानिक भी जो 24 घन्टे अध्यात्मविषयक खोज मे लगा है, उसमे से विदेशी कर्मयोगी और भारतीय ज्ञानयोगी (अध्यात्मयोगी) दोनों की गति एक ही होगी।

 लेकिन एक तीसरा योगी है जो कर्मकाण्ड मे लगा है और दिन-रात मोह, शोक,लोभ, लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा के लिए जीता है और अंत तक इसी मे रमा है तो उसका अंतभाव भी वही होगा।

हम सपने मे भी कोई न कोई मंत्र पढ़ते रहते हैं, हमारा अंतभाव अलग होगा। इसलिए पुनर्जन्म भी वैसे ही गुणों से युक्त होगा। एक शराबी है, मरते दम तक शराब मे ही जीता है तो उसका अंत भी उसी प्रकार होगा। बहुत ही साफ बात है :

जो जस करयी तो तस फल चाँखा.

पर इसमे न कोई दोष है, न कोई पृथक राय हो सकती। क्योंकि :

वास़ासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

  तो जो जन्म लिया है, वह जरा को प्राप्त होगा, वस्त्र बदलकर नया वस्त्र धारण करेगा। इसमे केवल एक अपवाद है। वह यह है :

तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व.(तैतरीय उपनिषद :/३/२/१)   

 श्रद्धावाँलभतेत्रज्ञानम्।गीता(4/39).

यथा च मरणं प्राप्य.(कठोपनिषद : २/२/६)

  निराशिषमनारम्भं निर्मस्कारमस्तुतिम्। अक्षीण़ क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मण़ विदुः(बृहदारण्य उपनिषद : ३/५/१)

    तमाम श्रुतिमतानुसार और अपने मन, बुद्धि अहंकारानुसार स्वानुभव आदि से ज्ञात जब कर्मानुष्ठान से रहित, नमस्कार, स्तुति से रहित यानी गुण-दोषों से रहित जो जीव है अत्र समविलियन्ते अर्थात् यहीं विदेहमुक्ति या जीवनमुक्ति को प्राप्त होकर यही लीन हो जाता है.

     केवल वही जीव पुनरपि जननं पुनरपि मरणं दोष से सदा के लिए मुक्त हो जाता है, जीवन और मरण धर्म नही होता. अन्य सभी जीव मरते और जीते रहते हैं।

      (चेतना विकास मिशन)

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