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जन्म, मृत्यु, प्रेम और परमात्मा 

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         अनामिका, प्रयागराज

निश्चित ही मन के सभी रोग प्रेम की कमी से पैदा होते हैं। रोगी मन शरीर और मस्तिष्क को भी रोगी बना देता है.

    जीवन में तीन घटनाएं हैं, जो बहुमूल्य हैं: जन्म, मृत्यु और प्रेम. जिसने इन तीनों को समझ लिया उसने सब समझ लिया।

   जन्म है शुरुआत, मृत्यु है अंत, प्रेम है मध्य। जन्म और मृत्यु के बीच जो डोलती लहर है, वह प्रेम है। इसलिए प्रेम बड़ा खतरनाक भी है। क्योंकि उसका एक हाथ तो जन्म को छूता है और एक हाथ मृत्यु को। 

इसी कारण प्रेम में बड़ा आकर्षण है और बड़ा भय भी। प्रेम में आकर्षण है जीवन का, क्योंकि उससे ऊंची जीवन की कोई और अनुभूति नहीं है।

     हम ने परमात्मा को प्रेम कहा है । वस्तुतः प्रेम को परमात्मा कहना चाहिए । बड़ी ऊंची तरंग है उसकी। उससे ऊंची कोई तरंग नहीं। कोई गौरीशंकर प्रेम के गौरीशंकर से ऊपर नहीं जाता।

     इसलिए बड़ा उद्दाम आकर्षण है प्रेम का। क्योंकि प्रेम जीवन है। लेकिन बड़ा भय भी है प्रेम का, क्योंकि प्रेम मृत्यु भी है।

यही वह बज़ह है की लोग प्रेम करना भी चाहते हैं और बचना भी चाहते हैं। यही मनुष्य की विडंबना है।

    तुम एक हाथ बढ़ाते हो प्रेम की तरफ और दूसरा खींच लेते हो। क्योंकि तुम्हें जहां जीवन दिखाई पड़ता है उसी के पास लहर लेती मृत्यु भी दिखाई पड़ती है।जो लोग जीवन और मृत्यु का विरोध छोड़ देते हैं, वे ही लोग प्रेम करने में समर्थ हो पाते हैं; जो यह बात समझ लेते हैं कि जीवन और मृत्यु विरोधी नहीं है।

    मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वरन जीवन की ही परिपूर्णता है, परिसमाप्ति है। मृत्यु जीवन की शत्रु नहीं है, वरन जीवन का सार है, निचोड़ है। मृत्यु जीवन को मिटाती नहीं, थके जीवन को विश्राम देती है। 

     जैसे दिनभर के श्रम के बाद रात्रि का विश्राम है, ऐसे जीवनभर के श्रम के बाद मृत्यु का विश्राम है।

    मृत्यु के प्रति शत्रुता का भाव अगर तुम्हारे मन में है, तुम कभी प्रेम न कर पाओगे क्योंकि प्रेम में मृत्यु भी जुड़ी है। प्रेम संतुलन है जीवन और मृत्यु का, जन्म और मृत्यु का।

    तो आकर्षित तो तुम होओगे लेकिन डरोगे भी। बढ़ोगे भी; और बढ़ोगे भी नहीं। चाहोगे भी और इतना भी न चाहोगे, कि कूद पड़ो, छलांग ले लो। हमेशा अटके रहोगे, झिझके रहोगे, खड़े रहोगे किनारे पर। नदी में न उतरोगे प्रेम की।

   जब तुम प्रेम से वंचित रह जाओगे, तो तुम्हारे जीवन में हजार-हजार रोग पैदा हो जाएंगे। क्योंकि जो प्रेम से वंचित रहा, उसका जीवन घृणा से भर जाएगा। वही ऊर्जा जो प्रेम बनती, सड़ेगी, वह घृणा बनेगी।

   जो प्रेम से वंचित रहा, उसके जीवन में एक चिड़चिड़ाहट और एक क्रोध की सतत धारा बहने लगेगी।

     क्योंकि वही ऊर्जा जो बहती है, तो सागर तक पहुंच जाती, बंद हो गई। डबरा बनेगी, सड़ेगी–बहाव चला गया।

जीवन का अर्थ है, बहाव, सतत सातत्य, सिलसिला, बहते ही जाना। जब तक कि सागर ही द्वार पर न आ जाए तब तक रुकना नहीं।

   जो प्रेम से डरा, वह रुक गया। वह सिकुड़ गया, उसका फैलाव बंद हो गया।

    अब ऐसा व्यक्ति जिसने प्रेम नहीं जाना, जीवन को भी नहीं जान पाएगा। क्योंकि प्रेम ही जीवन का मध्य है। ऐसा व्यक्ति सिर्फ घसीटेगा, जीएगा नहीं। उसका जीवन पंगु और लंगड़ाता हुआ होगा। लकवा लग गया जैसे किसी आदमी के प्राण में।

   सरकता है वैसाखियों के सहारे। अगर तुम गौर से देख सको, तो संसार में सौ में निन्यानबे आदमियों को वैसाखियों पर पाओगे। वैसाखियां सूक्ष्म हैं।

    कोई धन की बैसाखी लगाए हुए है। प्रेम से चूक गया, अब वह धन से प्रेम कर रहा है। क्योंकि जीवित प्रेम से तो खतरा था, धन से प्रेम करने में कोई खतरा नहीं है।

     अगर तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो, तो खतरा है। तुम खतरे में उतर रहे हो, सावधान! क्योंकि व्यक्ति एक जीवित घटना है। तुम बदलोगे, तुम वही न रह जाओगे, जो तुम प्रेम के पहले थे। कोई प्रेमी प्रेम के बाद वहीं नहीं रह सकता, जो प्रेम के पहले थे।  

      वास्तविक प्रेम आमूल बदल देता है; दोनों को बदल देता है, जो भी प्रेम में पड़ते हैं। दोनों के अहंकार को मटियामेट कर देता है। दोनों के अहंकार को तोड़ देता है। जो परम अनुभूति होती है दोनों के अद्वैत होने पर, एक जान-एक ज़िस्म होने पर : वह ईगोलेश और टाइमलेश होती है. अनहद में विश्राम कराती है. जरूरी होता है समान स्तरीय जोड़े का संगम. यह समानता भावना, संवेदना, चेतना स्तरीय होनी चाहिए : रूप- रंग- उम्र- पद- कद दो कौड़ी की बातें हैं.

     परमात्मा क्या है, कौन है, कहां है? परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। मूर्ति, चित्र, स्थान विशेष तो बिल्कुल नहीं. इसलिए न तो कहा जा सकता है कि कौन है और न कहा जा सकता है की कहां है। परमात्मा तो एक अनुभव है। जैसे प्रेम एक अनुभव है। कोई पूछे: प्रेम कौन है, प्रेम कहां है? बताना असंभव.

    तो प्रश्न निरर्थक होगा। उसका कोई सार्थक उत्तर नहीं हो सकता। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम सदियों से ऐसे प्रश्न पूछते रहे हैं। क्योंकि पंडित-पुरोहित यही समझाते रहे हैं कि परमात्मा व्यक्ति है।

     परमात्मा है इस पूरे विराट अस्तित्व का नाम। तो या तो यहां है, या कहीं भी नहीं है। देख सको तो अभी है, न देख सको तो कभी नहीं है। प्रेम उसके लिए है, जो प्रेम अनुभव कर सके। लेकिन जिसके हृदय में प्रेम का झरना न फूटता हो, वह पूछे: प्रेम क्या है? तो कैसे उसे उत्तर दें? और क्या कोई भी उत्तर उसे तृप्त कर पाएगा?

    जिसे प्यास न लगी हो, जिसने कभी जल का एक घूंट न पिआ हो, जिसने कभी जाना न हो प्यास की तृप्ति का आनंद, वह पूछे प्यास क्या है, प्यास की तृप्ति का आनंद क्या है..कैसे उसे उत्तर दो?

   कथित सदगुरु नहीं बता सकते कि परमात्मा कहां है, कौन है; लेकिन प्यास को प्रज्वलित कर सकते हैं। तुम्हारे भीतर एक अभीप्सा जगा सकते हैं। एक खोज शुरू हो सकती है। और वह खोज धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर ही पड़े बीज में अंकुरण ले आती है।

    परमात्मा तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे प्रेम की क्षमता का नाम है, तुम्हारे प्रेम की परिपूर्णता की धारणा है। जब तुम्हारा प्रेम बेशर्त हो, जब तुम्हारा प्रेम ऐसा हो कि तुम्हें मिटा जाए, तुम्हारा प्रेम जब इतना विराट हो कि जैसे बूंद खो जाए सागर में ऐसे तुम अपने प्रेम में खो जाओ, तो जो तुम जानोगे, उस अनुभव का नाम परमात्मा है।

   न उसे शब्दों में बांधा जा सकता, न सिद्धांतों में, न शास्त्रों में। सब उपाय उसे बांधने के व्यर्थ हो जाते हैं।

वह अभिव्यक्त होता ही नहीं। हां, अनुभव होता है।

     सभी चीजें जो अनुभव होती हैं, जरूरी नहीं कि अभिव्यक्त भी हो सकें। तुम्हारे जीवन में ऐसे बहुत अनुभव हैं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकते। अभिव्यक्त करोगे, मुश्किल में पड़ोगे। तुम जानते हो समय क्या है। लेकिन कोई अगर ठीक-ठीक पकड़ ले तुम्हें और पूछे कि आज जान कर ही रहूंगा कि समय क्या है, तब तुम थोड़ा चैंकोगे, उत्तर तुम न दे पाओगे।

    ऐसा नहीं कि तुम नहीं जानते कि समय क्या है। तुम जानते हो, भलीभांति जानते हो। लेकिन जो जानते हो, उसे जना देना जरूरी नहीं है।

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