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बच्चियों की पैदाइश :बदलती सामाजिक अवधारणाऐं

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सुसंस्कृति परिहार 
भारत में जनसांख्यिकीय बदलाव का संकेत देते हुए पहली बार महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो गई है. इसके साथ-साथ ही लिंगानुपात 1,020 के मुकाबले 1,000 रहा है यह नवंबर 21के आंकड़े है।जबकि 1901 से लेकर 1971 तक हर एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या का अनुपात घटता चला गया लेकिन 1981 की जनगणना में यह ट्रेंड पलट गया और 70 सालों में पहली बार लड़का-लड़की का अनुपात सुधरा था, लेकिन 1991 से फिर इसमें गिरावट शुरू हो गई। 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं।जो चिंतनीय तो था ही और कई सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है।इस महत्वपूर्ण विषय पर आजकल जो स्थितियां बन रही हैं वे उत्साह वर्धक हैं।वजह लाड़ली लक्ष्मी हेतु सरकार द्वारा दी जा रही मदद हो या लड़कियों की मदद और सहयोग की भावना अब बच्चियों को लेकर गांव गांव में बहुत परिवर्तन देखने मिल रहा है। उनके जन्म पर बराबर खुशियां देखी जा रही हैं।दो लड़कियों वाले परिवारों की संख्या लाखों में पहुंच रही है।यह अच्छे संकेत हैं। सामाजिक बराबरी में महिलाओं का हस्तक्षेप ज़रूरी है।
पिछले दिनों एक गांव में  लड़कों की पैदाइश का आंकड़ा बढ़ा तो वहां पहली बार महिलाओं को चिंतित देखा गया । महिलाओं का इस असंतुलन को लेकर चिंतित होना इस बात का प्रतीक है कि  शायद महिलाओं को यह अहसास हुआ है कि लड़कियों का अनुपात कम नहीं होना चाहिए। यह बात एक सामाजिक संस्था द्वारा विद्यालयीन परिचर्चा में सामने आई थी जिसमें ग्रामीण क्षेत्र की  आठवीं पास महिलाओं और 11वीं 12वीं की लड़कियों के बीच हुई ‘लड़की लड़का में श्रेष्ठ कौन ?  विषय में सामने आई।अधिकांश लड़कियों ने  लड़की हूं लड़ सकती हूं नारे से प्रेरणा  ली थी । लड़कियों ने साथ ही साथ यह भी साफ साफ बोलने का साहस दिखाया कि आज लड़के विश्वास करने लायक नहीं रहे।वे पढ़ना नहीं चाहते,काम करने में अरुचि रखते है तथा वे नौकरी पेशा लड़की से शादी करने की इच्छा रखते हैं।उनका सारा समय मोबाइल को अर्पित है।जबकि महिलाओं ने यह भी नि:संकोच कहा कि लड़के विवाह के बाद मां बाप से दूर हो जाते हैं मां बाप की सेवा लड़की ही करती है।अब मां बाप का भ्रम भी दूर हो गया क्योंकि पढ़ने वाली लड़की साईकिल पर पानी ,लकड़ी के तमाम सामान उचित दाम पर घर पहुंचाने के साथ अपने माता-पिता को साईकिल पर बैठाकर अस्पताल भी लेकर जा रही है। यह भी बताया गया कि अब गांव की लड़कियां गांव के शोहदों को एक जुट होकर सबक भी सिखाने लगी है।यह बुंदेलखंड के एक मझौले गांव खैरी की कहानी है जो उम्मीद जगाती है कि आने वाला समय निश्चित रूप से महिलाओं का होगा। वे उनकी कम संख्या से चिंतित हैं और लड़की के जन्म लेने पर खुश हो रही हैं। लड़कों के प्रति रुझान घट रहा है।
सबके चेहरे की खोई मुस्कान लाई है,मेरे घर में एक प्यारी सी परी आई है.
 इसी से मिलते जुलते विचार एक जिला अस्पताल के महिला प्रसव केन्द्र के बाहर खड़ी महिलाओं की राय में सुनने मिले, हुआ यह कि जब लगातार प्रसूतीकेंद्र से लड़का होने की ख़बरें  बाहर आ रहीं थी तो दो कमसिन प्रसूताएं खीझ कर यह कह रही थीं मुझे तो बेटी चाहिए या रब दुआ कुबूल करना। चुपचाप इस परिवर्तन को देखना अपरिमित सुख देता है। मुस्लिम समाज की महिलाओं में यह सोच काबिले गौर है।
लड़कियों के साथ यौन हिंसा और छेड़छाड़ के बढ़ते मामलों के बीच सुल्ली बुल्ली जैसे ऐप का आना। लड़कियों को टोल करना बड़े पैमाने पर चल रहा है। लड़कियों की शिक्षा दीक्षा कोराना काल में लड़खड़ाई हुई है बहुत सी लड़कियों ने पढ़ाई भी छोड़ दी है। फिर भी विभिन्न चैनलों के ज़रिए जिस तरह महिलाओं के आगे बढ़ने की बातें सामने आ रही हैं उनसे लड़कियां बराबर आगे बढ़ने का जज़्बा लिए हुए हैं वे अब आगे निकलने तत्पर हैं । ख़ासतौर से जब 800के लगभग आबादी वाले गांव की परिचर्चा में शामिल  5 लड़कियां  और पांच महिलाएं चालीस लोगों के सामने खुलकर लड़कियों की महत्ता बताती हैं तो इसमें शक नहीं ये बात दूर तलक जायेगी। उम्मीद है कि आगामी वर्षो में उनका यह लिंगानुपात ही बराबर नहीं होगा बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में बराबरी का हक हासिल करने में समर्थ हो जायेंगी।किसी ने क्या ख़ूब कहा है  
प्यारी बेटियाँ जब मुस्कुराती है,घर खुशियों से भर जाती है
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आइए हम सब मिलकर उनके रास्तों को आसान करें ताकि वे हम-कदम बन वतन को बहुत आगे ले जाने में भरपूर साथ दें।ReplyReply to allForward
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